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खेल-कूद

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खेल -कूद हम सबो को गरज पड़ती है अनवरत स्वस्थ रहने के लिए हमें नित्य रूप से खेल -कूद। शारीरिक रुप से खेल -कूद होता जोर, मुगदर के समान इससे हम सब आरोग्य, खुश फुर्तीला और रहते खुशहाल। आज कल खेल-कूद से हमें होते अनेक मुनाफे भव में हम सबों को नित्य-प्रतिदिन करना चाहिए खेल – कूद । खेल – कूद के क्षेत्र में जा कर धन-दौलत, नाम-सम्मान, यश कमा सकते इस भव, जहां में बिल्कुल रोनाल्डो , विराट जैसे । कवि :- अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

न झुकेगे हम

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हम सच्चाई के पथ पर निरंतर अग्र उद्वर्धन रहेंगे चाहे कितनी भी दुश्वार आ जायेगी इस पंथ में हम बिल्कुल ना झुकेंगे … इस निर्व्याज के पथ पे चलने में हम सबों को पंथ भटकाने वाले अति मिलेंगे इस भव, जहां में हम बिल्कुल ना झुकेंगे … इस संघर्ष के महायुद्ध में कई उद्यमी हो जाते व्यर्थ आखिर की कुछ श्रमचेष्टा छोड़ के बन जाते निष्फल हम बिल्कुल ना झुकेंगे … अल्पकाल के इस जिंदगी में कब है और कब न रहेंगे हम कुछ श्रेष्ठ-उमदा करके जायेगे जिनसे याद करेगी भव हमें हम बिल्कुल ना झुकेंगे … कवि :- अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

आकाश

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आकाश दिनांत को देखने में लगता कितना प्रिय प्रीतिपात्र अपने दृगेंद्रिय से देख इन्हें हम हो जाते अत्यंत हर्षित सुखप्रद । उर्ध्वलोक का नजारा देखकर विलोचन उसे देखते रह जाता ऐसा करता स्वांत,मानस हमारा व्योम का नजारा देखते ही रहे । तरापथ को देखते रहने में करता ना स्वांत फेरने का नभ का नजारा हमेशा यहां रूपांतरण होता रहता हरपल । इस खुली गगन मंडल में पक्षी ऊर्ध्वायन आमोद से व्योम का नजारा भव में लगता कितना अनूठा सा । रजनी में देखें जब शून्य को नक्षत्र कितने है टिमटिमाते सबसे प्रचुर प्रस्फुरण तारा वही असल में हमें है बनना । कवि :- अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

आया जो,वो आएगा

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जिसका पदार्पण हो भव में आज न कल वो जाएगा ही कोई न उच्छिष्ट इस जग में चाहे मनुज हो या यातुधान । हर चीज का इतिश्री जहां में कीट- पतंग हो या हम मनुज कोई न रहता शेष यहां पर सबका निर्वाण तय भव में। भास्कर का जब होत ब्याज अस्त होना भी होत यथार्थ जब मनुष्य को होती क्षोभ उसे हर्षित होना भी निश्चित । करुणा-करुणा आते भव में व्यथा – व्यथा जाते जग से जिसका उद्भव हुआ विश्व में उसका पंचत्व तय संसृति में। कवि :- अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

मृत्यु

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जिनकी गबन से आज आतंकित होते सबलोग वहीं अंत यथार्थ हमारा मृत्यु ही पदांत्य हमारा। इंतकाल से हर एक मनुज निगूहन चाहता इस भव में अजेय से सर्वपूर्व वो सगोत्र जड़ी- बुट्टी, डॉक्टर- वैध से स्वजन करवाता दवा- दारू। कोई भी प्राणीवान आज प्राण मोक्ष न चाहता कोई कितना भी संताप झेलकर निश्रेणी चाहता हर पल वो। अवसान जब हो जाती हम छोड़ जाते भव को जाने के पश्चात भी उन्हें कुछ अच्छी-बुरी सँवर से याद करते उन्हें जहांन में। कवि :- अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

परिस्थिति

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परिस्थितियां आती रहती सदा हर एक मनुज को इस भव में अवस्था में जो बांधके हौसला करता रहता है निरंतर संघर्ष होती उसकी विजय जगत में । परिप्रेक्ष्य न रहती हमेशा के लिए किसी भी नर के पास पृष्ठभूमि से कभी अधीरे मत मत कभी खुशी तो यातना यही हयात की भेंट, द्योतक । परिवेश में न हमसंगी कोई हमें इस भू, जग, संसार में स्यात् ही कोई स्वजन हमें देता कोई- कोई का साथ यही जिंदगी की अभिज्ञान । रंज, उपबंध भी होती जरूरी हमारी इस नाजुक जिंदगी में ठोकरें खा खाकर के हम सब अपनी इस अनमोल सी द्वंद्व, जिंदगी की शिखर पर पहुंचते । कवि :- अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

बुरी आदत

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बुरी आदत शाश्वत से करती हमारा है ह्रास निकृष्ट लत करके तुष्टि अधम नर बन जाते हम नित्य कर उत्सर्ग इनका । यमुना लत के विविध रीति किसी भी असिता युक्ति को करने से होता हम सबों का कतिपय विभाँति का विनाश प्रतिध्वनि रहे इनसे पृथक । अधम युक्ति की कबूल से होते कई ह्रास, क्षय हमारे फिर भी क्या होता जादू ? जो एक बार कर ले उन्हें लगती लत, न ट्रस्ट शीघ्र । अपद्रव्य युक्ति वाले मानव चाहे कितना भी हो तेजस्वी चाहे कितना भी हो विद्वान वो करे अघ-चूक जैसा कार्य उनको कहीं न मिलता मान। कवि :- अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

दुखो की नैया

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ये जग सुख- दुख के उभय से है भरा हुआ जब कोई स्वजन हमें देती है हमें मक्कारी तब होती उद्गत, निर्गत दुखों की नैया जग में । खलक में जब कोई निज इस क्षिति से कोई श्रृंग पे ले जाकर छोड़ देता हमें तब हमको कोई स्वजन पारक्य न दिखता है हमें तब बहती दुखों की नैया। कोई स्वजन ही जब हमें भाई-बंधु हो या मित्र-सखा जिनके साथ रहते हर क्षण साथ – साथ खेलते जिनके वो जब हम से करता कपट तब बहती दुखों की नैया । जब कोई अपना सहजात पार्श्ववर्ती हो या कोई हितैषी जिसको हम मानते बिम्ब जिनसे आज तक न छिपाई कोई जिह्वा हमसे, वो करे छल तब निज बहती दुखों की नैया । कवि :- अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

बुरी आदत

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बुरी आदत शाश्वत से करती हमारा है ह्रास निकृष्ट लत करके तुष्टि अधम नर बन जाते हम नित्य कर उत्सर्ग इनका । यमुना लत के विविध रीति किसी भी असिता युक्ति को करने से होता हम सबों का कतिपय विभाँति का विनाश प्रतिध्वनि रहे इनसे पृथक । अधम युक्ति की कबूल से होते कई ह्रास, क्षय हमारे फिर भी क्या होता जादू ? जो एक बार कर ले उन्हें लगती लत, न ट्रस्ट शीघ्र । अपद्रव्य युक्ति वाले मानव चाहे कितना भी हो तेजस्वी चाहे कितना भी हो विद्वान वो करे अघ-चूक जैसा कार्य उनको कहीं न मिलता मान। अमरेश कुमार वर्मा जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

राह भटके के बच्चे को

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जाड़े की रात पहाड़ पर रो रहा है एक हिरन  खेल में मदमस्त भटक गया है वह राह वह नन्हा हिरन उसके लिए बहुत दुखी हूँ, मैं  उसकी दो खुली आँखों में वेदना है कितनी ! हिरन के छौने रे, हिरन के छौने  रो मत, सो जा आराम से जरूर मिलेगी तेरी माँ तुझे।  सो जा, सो जा बाँस के वन, पाइन ऑक के वन रात की हवा तुझे लोरी सुना रहे हैं!  डर मत, बेहिचक सो जा आकाश में हैं तारे भरे नीचे झरे ढेर के ढेर पत्ते कितने नरम हैं। हिरन के छौने, सो जा ! सो जा सुबह तक सूरज उगेगा उसकी सुनहरी किरणें छुएँगी जंगल के पत्तों को मिल जायेगी तुझे तेरी माँ  रो मत, मत रो, नन्हे हिरन कवि -डा०नि० (वियतनाम)

सुदामा चरित्र

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सीस पगा न झगा तन में, प्रभु जाने को आहि, बसै केहि ग्रामा धोती फटी-सी लटी दुपटी, अरु पाँय उपानह की नहि सामा  द्वार खड़ो द्विज दुर्बल देखि, रह्यौ चकि सो बसुधा अभिरामा  पूछत दीनदयाल को धामु, बतावत आपनो नाम सुदामा । बोल्यो द्वारपालक, सुदामा नाम पांडे सुनि  छाँड़े राजकाज ऐसे जी की गति जाने की।  द्वारका के नाथ हाथ जोरि घाय गहे पाँय,  भेंटे भरि अंक लपटाय दुख साने को ।।  नैने दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि,  विप्र बोल्यो विपदा में मोहि पहिचाने को।  जैसी तुम करी तैसी करै को दया के सिन्धु,  ऐसी प्रीति दीनबन्धु दीनन सों भाने को ॥ ऐसे बिहाल बिवाइन सो पग, कांटक जाल लगे पुनि जोये,  हाय! महादुख पायो सखा ! तुम आये इतै न, कितै दिन खोये  देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिकै करुनानिधि रोये,  पानि परात को हाथ छुयो नहिं नैनन के जल सों पग धोये आगे चना गुरु मात दिये, ते लये तुम चाबि, हमें नहिं दीने,  स्याम कहयो मुसकाय सुदामा सौं, चोरी की बानि में हौं जु प्रबीने गाँठरि काँख में चापि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा रस भीने, पाछिलि बानि अजौं न तजौ तुम...

झाँसी का रानी

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सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,  बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी,  गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,  दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी, चमक उठी सन सत्तावन में,  वह तलवार पुरानी थी,  बुंदेले हरबोलों के मुँह  हमने सुनी कहानी थी,  खूब लड़ी मर्दानी वह तो  झाँसी वाली रानी थी॥  कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,  लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,  नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,  बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी। वीर शिवाजी की गाथाएं  उसको याद ज़बानी थी,  बुंदेले हरबोलों के मुँह  हमने सुनी कहानी थी,  खूब लड़ी मर्दानी वह तो  झाँसी वाली रानी थी॥ लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,  देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,  नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,  सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़।  महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी  भी आराध्य भवानी थी,  बुंदेले हरबोलों ...

खुशबू रचते हैं हाथ

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कई गलियों के बीच कई माला के पार कूड़े-करकट केरों के बाद  बदबू से फटते जाते इस टोले के अंदर खुशबू रचते हैं हाथ  खुशबू रचते हैं हाथ । उभरी नसोंवाले हाथ  घिसे नाखूनोंवाले हाथ  पीपल के पत्ते से नए-नए हाथ  जूही की डाल - खुशबूदार हाथ गंदे कटे-पिटे हाथ  जख्म से फटे हुए हाथ । खुशबू रचते हैं हाथ यहाँ इस गली में बनती है। मुल्क की मशहूर अगरबत्तियां  इन्हीं गंदे मुहल्लों के गंदे लोग   बनाते हैं केवड़ा, गुलाब, खस और रातरानी अगरबत्तियाँ दुनिया की सारी गंदगी के कोच दुनिया की सारी खुशबू रचते रहते हैं हाथ खुशबू रचते हैं हाथ खुशबू रचते हैं हाथ । कवि :- अरुण कमल

पीपल

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कानन का यह तरुवर पीपल  युग-युग से जम में अचल, अटल ऊपर विस्तृत नम नील नील नीचे वसुधा में नदी, झील, जामुन, तमाल, इमली, करील  जल से ऊपर उठता मृणाल फुनगी पर खिलता कमल लाल तिर-तिर करते क्रीडा मराल  ऊंचे टीले से सुधा पर झरती है निर्झरिणी झरझर हो जाती बूँद-बूँद झर कर निर्झर के पास खड़ा पीपल सुनता रहता कलकल - छलछल पल्लव हिलते धालढल - धालढल पीपल के पढ़े गोल-गोल कुछ कहते रहते डोल- डोल जब-जब आता पंछी तरु पर जब जब आता पंछी उड़कर जब-जब खाता फल चुन-चुनकर पड़ती जब पावस की फुहार बजते जब पंछी के सितार  बहने लगती शीतल बयार तब - तब कोमल पल्लव हिल-डुल गाते ससर, मर्मर मंजुल लख-लख, सुन-सुन विह्वल बुलबुल बुलबुल गाती रहती चह - चह सरिता गाती रहती बह - बह पसे हिलते रहते रह - रह जितने भी हैं इसमें कोटर सब पंछी गिलहरियों के घर  संध्या को अब दिन जाता ढल सूरज चलते है अस्ताचल  कर में समेट किरणें उज्ज्वल हो जाता है सुनसान लोक चल पड़ते घर को चील, कोक आंधियाली संध्या को लोक भर जाता है कोटर-कोटर बस जाते हैं पत्तों के घर  घर-घर में आती नींद उतर निद्रा ही में होता प्रभात, कट ज...

कबीर के पद

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                         (1) मेरा तेरा मनुआँ कैसे इक होई रे। मैं कहता हाँ आँखिन देखी, तू कहता कागद की लेखी।  मैं कहता सुरझावनहारी, तू राख्यौ उरझाई रे। मैं कहता तू जागत रहियो, तू रहता है सोई रे।  मैं कहता निर्मोही रहियों, तू जाता है मोही रे। जुगन-जुगन समुझावत हारा, कही न मानत कोई रे।  सतगुरु धारा निर्मल बाहै, वाम काया धोई रे।  कहत कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे।                            (2) मोको कहाँ ढूंढ़े बंदे, मैं तो तेरे पास में। ना में देवल ना मैं मस्जिद, न काबे कैलास में ।  ना तो कौनों क्रिया करम में नाहिं जोग बैराग में।  खोजी होय तो तुरतहि मिलिही, पलभर की तलास में।  कहै कबीर सुनो भाई साधो, सब साँसों की साँस में। कवि:- कबीरदास

बच्चे की दुआ

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लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी  जिन्दगी शम्अ की सूरत हो खुदाया मेरी दूर दुनिया का मेरे दम से अंधेरा हो जाए  हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाए  हो मेरे दम से यूँ ही मेरे वतन की ज़ीनत  जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत ज़िन्दगी हो मेरी परवाने की सूरत या- रब  इल्म की शम्अ से हो मुझको मुहब्बत या-रब हो मेरा काम गरीबों की हिमायत करना  दर्दमन्दों से ज़ईफों से मुहब्बत करना  मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको  नेक जो राह हो, उस रह पे चलाना मुझको कवि :- मो० इकबाल

बिहारी के दोहे

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काल के प्रतिष्ठित शृंगारिक कवि बिहारी के दोहे गागर में सागर हैं। वैसे तो बिहारी प्रेम वि के रूप में हैं, पर उनके भक्ति और नीतिपरक दोहों को भी व्यापक यता मिली। इस पाठ में उनके द्वारा रचित तीनों तरह के दोहे शामिल हैं। मेरी भव बाधा हरी राधा नागरि सोय।  जा तन की झाई परै स्यामु हरित दुति होय।  जपमाला, छापै, तिलक सर न एकी कामु।  मन-काँचे नाचे वृथा, साँचै राँचै रामु ॥  बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।  सोहँ करें भौं हनु हँसै दैन कहे नटि जाइ ||  जब-जब वै सुधि कीजियै, तब तब सुधि जाँहि ।  आँखिनु आँखि लगी रहें, आँखें लागति नाँहि ।।  नर की अरु नल नीर की गति एकै करी जोय ।  जेतो नीची हवै चलै तेतो ऊँचो होय ||  संगति सुमति न पावही परे कुमति के धन्ध ।  राखौ मेलि कपूर में हींग न होत सुगंध।  बड़े न हूजै गुनन बिनु, बिरद बड़ाई पाय।  कहत धतूरे सो कनक, गहनो गढ्यो न जाय।।  दीरघ साँस न लेहु दुख, सुख साईं हि न भूल ।  दई दई क्यौं करतू है, दई दई सुकबूलि ।।  कवि:- बिहारी

कर्मवीर

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देखकर बाधा विविध बहु विग्न घरात नहीं।  रह भरोसे भाग के दुख भोग पडताते नहीं।  काम कितना ही कठिन हो किंतुकता नहीं।  भीड़ में चंचल बने जो धीर दिखलाते नहीं।  हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले । सब जगह सब काल में वे ही मिले फूल-फते ॥ आज करना है जिसे करते उसे में आज ही।  सोचते- कहते हैं कुछ कर दिखाते हैं वहीं ।। मानते जी की है, सुनते है सदा सबकी कही । जो मदद करते हैं अपनी इस जग में आप ही ।। भूलकर वे दूसरों का मुंह कभी तकते नहीं ।  कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं।। जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं।  काम करने की जगह बाते बनाते है नहीं।  आज-कल करते हुए जो दिन गंवाते हैं नहीं।  यत्न करने में भी जो जी चुराते है नहीं।  बात है वह कौन जो होती नहीं उनको किए ।  वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिए ।। चिलचिलाती धूप की जो चाँदनी देवें बना।  काम पड़ने पर करें जो शेर का भी सामना ।।  जो कि हँस-हंस के चचा सेते हैं लोहे का चना । 'है कठिन कुछ भी नहीं' जिनके है जी में यह ठना ।। कोस कितने ही चलें, पर कभी थकते नहीं।  कौन...

लता चालीसा

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  (विनम्र शब्दांजलि) भारत मां की लाड़ली,गाये गीत हजार। सुर संगीत खजान है,कहत है कवि विचार।। हे सुर देवी कंठ सुहानी।  लता नाम से सब जग जानी।। मास सितंबर सन उनतीसा। जन्मी बेटी सुर की धीसा।। इंदुर नगरी खुशियां छाई। मातु अहिल्या मन मुसकाई।। पंडित दीना पिता कहाये। मां सेवंती गोद खिलाये।। ज्योतिष हेमा नाम बताया। लता नाम को पिता धराया।। सुर कोकिल है नाम तुम्हारा। राग सुनाती नित नव प्यारा।। सुर सम्राज्ञी भारत कोकिल। मधुर कंठ से जीते सब दिल।। आशा मीना ऊषा बहिना। हृदयनाथ भाई जग चींहा। पांच साल की आयु पाई। नाटक अभिनय धूम मचाई।। प्रथम गुरु थे तात तुम्हारे। जो संगीत कला रखवारे।। राग धनाश्री पिता सिखाया। फिर कपूरिया को समझाया।। तेरह बरस की उम्र थी भाई। पिता भूमिका आप निभाई।। सन पैंतालिस  मुंबई आई। अमन अली से शिक्षा पाई।। नूरजहां बेगम शमशादा। गायन में  ऊंची  मर्यादा।। उनसे भी आगे जब आईं। फिल्म जगत ने दई बधाई।। पार्श्वगायिका फिल्म अनेका। गाये गाने एक से एका।। उड़न खटोला मदर इण्डिया। बागी देख कबीरा रोया।। बैजु बावरा मधुमति गाया। चोरी चोरी मेरा साया। प्रेम पुजारी हीरा...

बहुत ही सुन्दर सृजन काव्य

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एक स्त्री के योनि से जन्म लेने के बाद उसके वक्षस्थल से निकले दूध से अपनी भूख,प्यास मिटाने वाला इंसान बड़ा होते ही औरत से इन्हीं दो अंगो की चाहत रखता है, और अगर असफल होता है, तो इसी चाहत में वीभत्स तरीको को अंजाम देता है...! बलात्कार और फिर हत्या...! जननी वर्ग के साथ इस तरह की मानसिकता क्यूँ...? वध होना चाहिए ऐसी दूषित मानसिकता के लोगों का..... मेरे दूध का कर्ज़ मेरे ही खून से चुकाते हो कुछ इस तरह तुम अपना पौरुष दिखाते हो दूध पीकर मेरा तुम इस दूध को ही लजाते हो  वाह रे पौरुष तेरा तुम खुद को पुरुष कहाते हो हर वक्त मेरे सीने पर नज़र तुम जमाते हो इस सीने में छुपी ममता क्यों देख नहीं पाते हो इक औरत ने जन्मा ,पाला -पोसा है तुम्हें बड़े होकर ये बात क्यों भूल जाते हो तेरे हर एक आँसू पर हज़ार खुशियाँ कुर्बान कर देती हूँ मैं क्यों तुम मेरे हजार आँसू भी नहीं देख पाते हो हवस की खातिर आदमी होकर क्यों नर पिशाच बन जाते हो  हमें मर्यादा सिखाने वालों तुम अपनी मर्यादा क्यों भूल जाते हो हमें मर्यादा सिखाने वालों तुम अपनी मर्यादा क्यों भूल जाते हो...! ✍️✍️✍️✍️ अज्ञात वरुण सिंह गौतम

मालवी सम्राट चालीसा

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(डॉ प्रह्लादचंद्र जोशी) गुरु प्रहलाद  नमन करुं, लिखते अक्षर तौल। मालव भाष सम्राट हैं, व्याकरणा अनमोल।। जय गुरुदेवा जय प्रहलादा। पूत शारदा जीवन सादा।।1 मालव भाषा के अधिकारी। लेख कहानी लिखे विचारी।।2 गूजर गौड़ सद परिवारा। मां आवंती बेटा प्यारा।।3 पिता प्रभूजी बन हलवाई। दूर दूर भोजन बनवाई।।4 मार्च पंद्रह अड़तिस आया। फागुन होली उत्सव छाया।।5 जली होलिका प्रह्लाद आये। ग्राम कायरा जन हरषाये।।6 उपनयन संस्कार कराया । फिर शाला में नाम लिखाया।।7 गुरु माधव ने बाल पढ़ाये। हिन्दी संस्कृत ज्ञान सिखाये।।8 चिंतामणि को गुरु बनाया।। कथा मालवी शोध कराया।9 एक सौ साठ केणी पाई।। लोक मालवी कथा सुहाई।10 सुआ नगर का मंडल आगर। गीत कहानी का है सागर।।11 सारे ग्रंथा है बाईसा।। सभी विधा में बनते धीसा।।12 शिक्षक जीवन आप बिताया। नवाचार भी खूब चलाया।।13 फिर इक अवसर ऐसा आया। एक साल कॉलेज पढ़ाया।।14 सीधे सादे भोले भाले। धोती कुर्ता चश्मा वाले।।15 भाष मालवी रंग रंगीले। पान चाय के बड़े रसीले।।16 दुर्गा के संग ब्याह रचाया। पत्नी देवी साथ निभाया।।17 घर वाली को खूब मनाते। कभी कभी पकवान बनाते।।18 दया ज्ञान के तु...

कलिङ्ग -विजय (सामधेनी से )

                  ( १ ) युद्ध की इति हो गयी; रण-भू श्रमित, सुनसान; गिरि - शिखर पर थम गया है डूबता दिनमान-- देखते यम का भयावह कृत्य, अन्ध मानव की नियति का नृत्य; सोचते, इस बन्धु-वध का क्या हुआ परिणाम? विश्व को क्या दे गया इतना बड़ा संग्राम? युद्ध का परिणाम? युद्ध का परिणाम ह्रासत्रास! युद्ध का परिणाम सत्यानाश! रुण्ड-मुण्ड-लुंठन, निहिंसन, मीच! युद्ध का परिणाम लोहित कीच! हो चुका जो कुछ रहा भवितव्य, यह नहीं नर के लिये कुछ नव्य; भूमि का प्राचीन यह अभिशाप, तू गगनचारी न कर सन्ताप। मौन कब के हो चुके रण-तूर्य्य, डूब जा तू भी कहीं ओ सूर्य्य! छा गया तम, आ गये तारे तिमिर को चीर, आ गया विधु; किन्तु, क्यों आकृति किये गम्भीर? और उस घन-खण्ड ने विधु को लिया क्यों ढाँक? फिर गया शशि क्या लजाकर पाप नर के झाँक? चाँदनी घन में मिली है छा रही सब ओर, साँझ को ही दीखता ज्यों हो गया हो भोर। मौन हैं चारों दिशाएँ, स्तब्ध है आकाश, श्रव्य जो भी शब्द वे उठते मरण के पास।                ( २ ) शब्द? यानी घायलों की आह, घाव के मारे हुओं की ...

दिल्ली और मास्को ( सामधेनी से )

                     ( १ ) जय विधायिके अमर क्रान्ति की! अरुण देश की रानी! रक्त - कुसुम - धारिणि! जगतारिणि! जय नव शिवे! भवानी! अरुण विश्व की काली, जय हो, लाल सितारोंवाली, जय हो, दलित, बुभुक्षु, विषण्ण मनुज की, शिखा रुद्र मतवाली, जय हो। जगज्ज्योति, जय जय, भविष्य की राह दिखानेवाली, जय समत्व की शिखा, मनुज की प्रथम विजय की लाली। भरे प्राण में आग, भयानक विप्लव का मद ढाले, देश-देश में घूम रहे तेरे सैनिक मतवाले। नगर-नगर जल रहीं भट्ठियाँ, घर-घर सुलग रही चिनगारी; यह आयोजन जगद्दहन का, यह जल उठने की तैयारी; देश देश में शिखा क्षोभ की उमड़-घुमड़ कर बोल रही है; लरज रहीं चोटियाँ शैल की, धरती क्षण-क्षण डोल रही है। ये फूटे अङ्गार, कढ़े अंबर में लाल सितारे, फटी भूमि, वे बढ़े ज्योति के लाल-लाल फव्वारे। बंध, विषमता के विरुद्ध सारा संसार उठा है। अपना बल पहचान, लहर कर पारावार उठा है। छिन्न-भिन्न हो रहीं मनुजता के बन्धन की कड़ियाँ, देश-देश में बरस रहीं आजादी की फुलझड़ियाँ             ( २ ) एक देश है जहाँ विषमता से अच्छी हो रही...

आग की भीख (सामधेनी से )

               ( १ ) धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा, कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ - सा। कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है, मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है? दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे; बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे। प्यारे स्वदेश के हित अङ्गार माँगता हूँ। चढ़ती जवानियों का श्रृङ्गार माँगता हूँ।                ( २ ) बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है, कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है? मँझधार है, भँवर है या पास है किनारा? यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा? आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा, भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा। तम - वेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ। ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ।                  ( ३ ) आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है, बल - पुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है;   अग्निस्फुलिङ्ग रज का, बुझ, ढेर हो रहा है, है रो रही जवानी, अन्धेर हो रहा है! निर्वाक है हिमालय, गङ्गा डरी हुई है, निस्तब्धता निश...

राही और बाँसुरी ( सामधेनी से )

              राही सूखी लकड़ी! क्यों पड़ी राह में यों रह-रह चिल्लाती है? सुर से बरसा कर आग राहियों का क्यों हृदय जलाती है? यह दूब और वह चन्दन है; यह घटा और वह पानी है? ये कमल नहीं हैं, आँखें हैं; वह बादल नहीं, जवानी है। बरसाने की है चाह अगर तो इनसे लेकर रस बरसा। गाना हो तो मीठे सुर में, जीवन का कोई दर्द सुना। चाहिए सुधामय शीतल जल, है थकी हुई दुनिया सारी। यह आग-आग की चीख किसे, लग सकती है कब तक प्यारी? प्यारी है आग अगर तुझको, तो सुलगा उसे स्वयं जल जा। सुर में हो शेष मिठास नहीं, तो चुप रह या पथ से टल जा।           बाँसुरी बजता है समय अधीर पथिक, मैं नहीं सदाएँ देती हूँ। हूँ पड़ी राह से अलग, भला किस राही का क्या लेती हूँ? मैं भी न जान पाई अब तक, क्यों था मेरा निर्माण हुआ। सूखी लकड़ी के जीवन का जानें सर्वस क्यों गान हुआ। जानें किसकी दौलत हूँ मैं अनजान, गाँठ से गिरी हुई। जानें किसका हूँ ख्वाब, न जाने किस्मत किसकी फिरी हुई। तुलसी के पत्ते चले गये पूजोपहार बन जाने को। चन्दन के फूल गये जग में अपना सौरभ फैलाने को। जो दूब पड़ोसिन है मेरी व...

युधिष्ठिर का विलाप ( कुरूक्षेत्र से )

आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि 'योग नहीं जाने का अभी है, इसे जान कर,  रुकी रहो पास कहीं', और स्वयं लेट गये  बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर।  व्यास कहते हैं, रहे यों ही वे पड़े विमुक्त, काल के करों से छीन मुष्टि - गत प्राण कर;  और पन्थ जोहती विनीत कहीं आसपास  हाथ जोड़ मृत्यु रही खड़ी शास्ति मान कर । श्रृङ्ग चढ़ जीवन के आर-पार हेरते - से योगलीन लेटे थे पितामह गभीर - से । देखा धर्मराज ने, विभा प्रसन्न फैल रही श्वेत शिरोरुह, शर- ग्रथित शरीर से ।  करते प्रणाम, छूते सिर से पवित्र पद,  उँगली को धोते हुए लोचनों के नीर से,  'हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ,'  चीख उठे धर्मराज व्याकुल, अधीर - से ।  'वीर - गति पाकर सुयोधन चला गया है,  छोड़ मेरे सामने अशेष ध्वंस का प्रसार ;  छोड़ मेरे हाथ में शरीर निज प्राणहीन,  व्योम में बजाता जय - दुन्दुभि सा बार- बार;  और यह मृतक शरीर जो बचा है शेष, चुप - चुप, मानों पूछता है मुझसे पुकार - 'विजय का एक उपहार मैं बचा हूँ, बोलो,  जीत किसकी है और किसकी हुई है हार ? 'हाय, पितामह, हार किसक...

अहिंसा और शान्ति ( कुरूक्षेत्र से )

            [ भीष्म की उक्ति ] समर निन्द्य है धर्मराज, पर, कहो शान्ति वह क्या है, जो अनीति पर स्थित होकर भी बनी हुई सरला है ?  सुख- समृद्धि का विपुल कोष संचित कर कल, बल, छल से,  किसी क्षुधित का ग्रास छीन, धन लूट किसी निर्बल से, सब समेट, प्रहरी बिठला कर कहती, 'कुछ मत बोलो, शान्ति - सुधा बह रही, न इसमें गरल क्रान्ति का घोलो । हिलो - डुलो मत, हृदय - रक्त अपना मुझको पीने दो, अचल रहे साम्राज्य शान्ति का, जियो और जीने दो।' सच है, सत्ता सिमट - सिमट जिनके हाथों में आई, शान्तिभक्त वे साधु पुरुष क्यों चाहें कभी लड़ाई ? सुख का सम्यक् - रूप विभाजन जहाँ नीति से, नय से - सम्भव नहीं; अशान्ति दबी हो जहाँ खड्ग के भय से ; जहाँ पालते हों अनीति - पद्धति को सत्ताधारी,  जहाँ सूत्रधर हों समाज के अन्यायी, अविचारी;  नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के जहाँ न आदर पायें; जहाँ सत्य कहनेवालों के शीश उतारे जायें; जहाँ खड्ग - बल एकमात्र आधार बने शासन का ;  दबे क्रोध से भभक रहा हो हृदय जहाँ जन-जन का ;  सहते - सहते अनय जहाँ मर रहा मनुज का मन हो; समझ कापुरुष अपने को ध...

* तू ज़िन्दा है तो......

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सूजन्दा है तो जिन्दगी की जीत में कर  अगर कहाँ है स्वर्ग तो उतारना जमीन पर ये गम के और चार दिन, सितम के और चार दिन ये दिन भी जायेंगे गुजर, गुजर गये हजार दिन  कभी तो होगी इस चमन में भी बहार को नगर  अगर कहाँ है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर  जिन्दा है तो....... सुबह और शाम के रंगे हुए गगन को चूमकर  तू सुन जमीन गा रही है कब से झूम-झूम कर  तू आ मेरा सिगार कर तू आ मुझे हसीन कर  अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर  तू जिन्दा है तो..... हजार भेष घर के आई मौत तेरे द्वार पर  मगर तुझे न छल सकी, चली गई वो हारकर  नई सुबह के संग सदा तुझे मिली नई उमर  अगर कहीं है स्वर्ग तो उत्तार ला ज़मीन पर  तू जिन्दा है तो...... हमारे कारवां को मंजिल का इंतजार है ये आँधियों ये बिजलियों की पीठ पर सवार है  तू आ कदम मिला के चल, चलेंगे एक साथ हम  अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर  तू जिन्दा है तो.... जुम के पेट में पली अगन, पले हैं जलजले  टिकेन टिक सकेंगे भूख रोग के स्वराज ये  मुसीबतों के सर कुचल, चलेंगे एक साथ हम  अग...

विकास (कुरूक्षेत्र से )

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द्वापर की कथा बड़ी दारुण,  लेकिन, कलि ने क्या दान दिया ?  नर के वध की प्रक्रिया बढी, कुछ और उसे आसान किया।  पर, हाँ, जो युद्ध स्वर्गमुख था, वह आज निन्द्य - सा लगता है।  बस, इसी मन्दता से विकास का भाव मनुज में जगता है। धीमी कितनी गति है ? विकास कितना अदृश्य हो चलता है ?  इस महावृक्ष में एक पत्र सदियों के बाद निकलता है।  थे जहाँ सहस्रों वर्ष पूर्व, लगता है वहीं खड़े हैं हम, है वृथा गर्व, उन गुफावासियों से  कुछ बहुत बड़े हैं हम। अनगढ़ पत्थर से लड़ो, लड़ो किटकिटा नखों से, दाँतों से, या लड़ो ऋक्ष के रोमगुच्छ - पूरित वज्रीकृत हाथों से,  या चढ़ विमान पर नर्म मुट्ठियों से  गोलों की वृष्टि करो, आ जाय लक्ष्य में जो कोई, निष्ठुर हो सबके प्राण हरो । ये तो साधन के भेद, किन्तु,  भावों में तत्त्व नया क्या है ?  क्या खुली प्रेम की आँख अधिक ? भीतर कुछ बढ़ी दया क्या है ? झर गयी पूँछ, रोमान्त झरे,  पशुता का झरना बाकी है; बाहर- बाहर तन सँवर चुका, मन अभी सँवरना बाकी है। देवत्व अल्प, पशुता अथोर,  तमतोम प्रचुर, परिमित आभा,  द्वा...

कर्ण - कुन्ती - संवाद ( कुरुक्षेत्र से )

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आ गया काल विकराल शान्ति के क्षय का, निर्दिष्ट लग्न धरती पर खंड-प्रलय का । हो चुकी पूर्ण योजना नियती की सारी, कल ही होगा आरम्भ समर अति भारी । कल जैसे ही पहली मरीचि फूटेगी, रण में शर पर चढ़ महामृत्यु छूटेगी । संहार मचेगा, तिमिर घोर छायेगा, सारा समाज दृगवंचित हो जायेगा । जन-जन स्वजनों के लिए कुटिल यम होगा, परिजन, परिजन के हित कृतान्त-सम होगा । कल से भाई, भाई के प्राण हरेंगे, नर ही नर के शोणित में स्नान करेंगे । सुध-बुध खो, बैठी हुई समर-चिंतन में, कुंती व्याकुल हो उठी सोच कुछ मन में । 'हे राम! नहीं क्या यह संयोग हटेगा? सचमुच ही क्या कुंती का हृदय फटेगा? 'एक ही गोद के लाल, कोख के भाई, सत्य ही, लड़ेंगे हो, दो ओर लड़ाई? सत्य ही, कर्ण अनुजों के प्राण हरेगा, अथवा, अर्जुन के हाथों स्वयं मरेगा? दो में जिसका उर फटे, फटूँगी मैं ही, जिसकी भी गर्दन कटे, कटूँगी मैं ही, पार्थ को कर्ण, या पार्थ कर्ण को मारे, बरसेंगें किस पर मुझे छोड़ अंगारे? 'भगवान! सुनेगा कथा कौन यह मेरी? समझेगा जग में व्यथा कौन यह मेरी? हे राम! निरावृत किये बिना व्रीडा को, है कौन, हरेगा जो मेरी पीड़ा को? गांधार...