कविता__का__हठ (हुङ्कार से)

"बिखरी लट, आँसू छलके, यह सस्मित मुख क्यों दीन हुआ ? 
कविते ! कह, क्यों सुषमाओं का विश्व आज श्री - हीन हुआ ? 
सन्ध्या उतर पड़ी उपवन में ? दिन - आलोक मलीन हुआ ? 
किस छाया में छिपी विभा ? श्रृङ्गार किधर उड्डीन हुआ ?

इस अविकच यौवन पर रूपसि, बता, श्वेत साड़ी कैसी ? 
आज असङ्ग चिता पर सोने की यह तैयारी कैसी ? 
आँखों से जलधार, हिचकियों पर हिचकी ज़ारी कैसी ? 
अरी बोल, तुझ पर विपत्ति आयी यह सुकुमारी! कैसी ?"

यों कहते - कहते मैं रोया, रुद्ध हुई मेरी वाणी, 
ढार मार रो पड़ी लिपट कर मुझ से कविता कल्याणी । 
"मेरे कवि ! मेरे सुहाग! मेरे राजा ! किस ओर चले ? 
चार दिनों का नेह लगा रे छली ! आज क्यों छोड़ चले ?

"वन - फूलों से घिरी कुटी क्यों आज नहीं मन को भाती ?
 राज - वाटिका की हरीतिमा हाय, तुझे क्यों ललचाती ? 
करुणा की मैं सुता बिना पतझड़ कैसे जी पाऊँगी ? 
कवि ! वसन्त मत बुला, हाय, मैं विभा बीच खो जाऊँगी।

"खँडहर की मैं दीन भिखारिन, अट्टालिका नहीं लूँगी, 
है सौगन्ध, शीश पर तेरे रखने मुकुट नहीं दूंगी। 
तू जायेगा उधर, इधर मैं रो-रो दिवस बिताऊँगी,
खँडहर में नीरव निशीथ में रोऊँगी, चिल्लाऊँगी।

"व्योम - कुंज की सखी कल्पना उतर सकेगी धूलों में ?
 नरगिस के प्रेमी कवि ढूँढ़ेंगे मुझको वन फूलों में ? 
हँस-हँस क़लम नोंक से चुन रजकण से कौन उठायेगा ? 
ठुकरायी करुणा का कण हूँ, मन में कौन बिठायेगा ?

"जीवन - रस पीने को देगा, ऐसा कौन यहाँ दानी ? 
उर की दिव्य व्यथा कह अपनायेगी दुनिया दीवानी ? 
गौरव के भग्नावशेष पर जब मैं अश्रु बहाऊँगी, 
कौन अश्रु पोंछेगा, पल भर कहाँ शान्ति मैं पाऊँगी ?

"किसके साथ कहो खेलूँगी दूबों की हरियाली में ? 
कौन साथ मिल कर रोयेगा नालन्दा - वैशाली में ? 
कुसुम पहन मैं लिये विपंची घूमूँगी यमुना - तीरे, 
किन्तु, कौन अंचल भर देगा चुन - चुन धूल भरे हीरे ?

"तेरे कण्ठ - बीच कवि ! मैं बनकर युग धर्म पुकार चुकी, 
प्रकृति - पक्ष ले रक्त - शोषिणी संस्कृति को ललकार चुकी। 
वार चुकी युग पर तन - मन - धन अपना लक्ष्य विचार चुकी, 
कवे ! तुम्हारे महायज्ञ की आहुति कर तैयार चुकी।

"उठा अमर तूलिका, स्वर्ग का भू पर चित्र बनाऊँगी,
 अमापूर्ण जग के आँगन में आज चन्द्रिका लाऊँगी। 
रुला - रुला आँसू में धो जगती की मैल बहाऊँगी, 
अपनी दिव्य शक्ति का परिचय भूतल को बतलाऊँगी।

"तू सन्देश वहन कर मेरा, महागान मैं गाऊँगी, 
एक विश्व के लिए लाख स्वर्गों को मैं ललचाऊँगी। 
वहन करूंगी कीर्त्ति जगत् में बन नवीन युग की वाणी, 
ग्लानि न कर सङ्गिनी प्राण की, हूँ मैं भावों की रानी।"

१९३४ ई०

-- रामधारी सिंह दिनकर

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