वे आँखें

अंधकार की गुहा सरीखी 
उन आँखों से डरता है मन, 
भरा दूर तक उनमें दारुण 
दैन्य दुख का नीरव रोदन!

वह स्वाधीन किसान रहा, 
अभिमान भरा आँखों में इसका, 
छोड़ उसे मँझधार आज 
संसार कगार सदृश बह खिसका!

लहराते वे खेत दृगों में
हुआ बेदखल वह अब जिनसे, 
हँसती थी उसके जीवन की 
हरियाली जिनके तृन-तृन से!

आँखों ही में घूमा करता 
वह उसकी आँखों का तारा, 
कारकुनों की लाठी से जो 
गया जवानी ही में मारा !

बिका दिया घर द्वार, 
महाजन ने न ब्याज की कौड़ी छोड़ी, 
रह-रह आँखों में चुभती वह 
कुर्क हुई बरधों की जोड़ी!

उजरी उसके सिवा किसे कब 
पास दुहाने आने देती? 
अह, आँखों में नाचा करती
उजड़ गई जो सुख की खेती !

बिना दवा दर्पन के घरनी 
स्वरग चली, आँखें आती भर, 
देख-रेख के बिना दुधमुँही 
बिटिया दो दिन बाद गई मर!

घर में विधवा रही पतोहू, 
लछमी थी, यद्यपि पति घातिन, 
पकड़ मँगाया कोतवाल ने, 
डूब कुएँ में मरी एक दिन!

खैर, पैर की जूती, जोरू 
न सही एक, दूसरी आती,
पर जवान लड़के की सुध कर 
साँप लोटते, फटती छाती।

पिछले सुख की स्मृति आँखों में 
क्षण भर एक चमक है लाती, 
 तुरत शून्य में गड़ वह चितवन 
तीखी नोक सदृश बन जाती ।

                                           लेखक:- सुमित्रानंदन पंत

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

रामधारी सिंह दिनकर कविताएं संग्रह

मेसोपोटामिया सभ्यता का इतिहास (लेखन कला और शहरी जीवन 11th class)

आंकड़ों का आरेखी प्रस्तुतीकरण Part 3 (आंकड़ों का प्रस्तुतीकरण) 11th class Economics