घर की याद

आज पानी गिर रहा है,            
बहुत पानी गिर रहा है, 
रात भर गिरता रहा है, 
प्राण मन घिरता रहा है,

बहुत पानी गिर रहा है, 
घर नज़र में तिर रहा है, 
घर कि मुझसे दूर है जो, 
घर खुशी का पूर है जो,

घर कि घर में चार भाई, 
मायके में बहिन आई, 
बहिन आई बाप के घर, 
हाय रे परिताप के घर!

घर कि घर में सब जुड़े हैं, 
सब कि इतने कब जुड़े हैं, 
चार भाई चार बहिनें, 
भुजा भाई प्यार बहिनें,

और माँ बिन - पढ़ी मेरी,
दुःख में वह गढ़ी मेरी 
माँ कि जिसकी गोद में सिर, 
रख लिया तो दुख नहीं फिर,

माँ कि जिसकी स्नेह - धारा, 
का यहाँ तक भी पसारा, 
उसे लिखना नहीं आता, 
जो कि उसका पत्र पाता।

पिता जी जिनको बुढ़ापा, 
एक क्षण भी नहीं व्यापा, 
जो अभी भी दौड़ जाएँ, 
जो अभी भी खिलखिलाएँ,

मौत के आगे न हिचकें, 
शेर के आगे न बिचकें, 
बोल में बादल गरजता, 
काम में झंझा लरजता, 

आज गीता पाठ करके, 
दंड दो सौ साठ करके, 
खूब मुगदर हिला लेकर, 
मूठ उनकी मिला लेकर,

जब कि नीचे आए होंगे, 
नैन जल से छाए होंगे, 
हाय, पानी गिर रहा है, 
घर नज़र में तिर रहा है,

चार भाई चार बहिनें, 
भुजा भाई प्यार बहिनें, 
खेलते या खड़े होंगे, 
नज़र उनको पड़े होंगे।

पिता जी जिनको बुढ़ापा, 
एक क्षण भी नहीं व्यापा, 
रो पड़े होंगे बराबर, 
पाँचवें का नाम लेकर, 

पाँचवाँ मैं हूँ अभागा, 
जिसे सोने पर सुहागा, 
पिता जी कहते रहे हैं, 
प्यार में बहते रहे हैं,

आज उनके स्वर्ण बेटे, 
लगे होंगे उन्हें हेटे, 
क्योंकि मैं उनपर सुहागा 
बँधा बैठा हूँ अभागा,

और माँ ने कहा होगा, 
दुःख कितना बहा होगा, 
आँख में किस लिए पानी 
वहाँ अच्छा है भवानी

वह तुम्हारा मन समझकर, 
और अपनापन समझकर, 
गया है सो ठीक ही है, 
यह तुम्हारी लीक ही है,

पाँव जो पछि हटाता, 
कोख को मेरी लजाता, 
इस तरह होओ न कच्चे, 
रो पड़ेंगे और बच्चे,

पिता जी ने कहा होगा, 
हाय, कितना सहा होगा, 
कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ, 
धीर मैं खोता, कहाँ

हे सजीले हरे सावन, 
हे कि मेरे पुण्य पावन, 
तुम बरस लो वे न बरसें, 
पाँचवें को वे न तरसें,

मैं मज़े में हूँ सही है, 
घर नहीं हूँ बस यही है, 
किंतु यह बस बड़ा बस है, 
इसी बस से सब विरस है,

किंतु उनसे यह न कहना, 
उन्हें देते धीर रहना, 
उन्हें कहना लिख रहा हूँ, 
उन्हें कहना पढ़ रहा हूँ,

काम करता हूँ कि कहना, 
नाम करता हूँ कि कहना, 
चाहते हैं लोग कहना, 
मत करो कुछ शोक कहना,

और कहना मस्त हूँ मैं, 
कातने में व्यस्त हूँ मैं, 
वजन सत्तर सेर मेरा, 
और भोजन ढेर मेरा,

कूदता हूँ, खेलता हूँ, 
दुःख डट कर ठेलता हूँ, 
और कहना मस्त हूँ मैं, 
यों न कहना अस्त हूँ मैं,

हाय रे, ऐसा न कहना, 
है कि जो वैसा न कहना, 
कह न देना जागता हूँ, 
आदमी से भागता हूँ,

कह न देना मौन हूँ मैं, 
खुद न समझँ कौन हूँ मैं, 
देखना कुछ बक न देना, 
उन्हें कोई शक न देना,

हे सजीले हरे सावन, 
हे कि मेरे पुण्य पावन, 
तुम बरस लो वे न बरसें, 
पाँचवें को वे न तरसें।

                                       लेखक:- भवानी प्रसाद मिश्र

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