सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

फूटे हैं आमों में बौर 
भौर वन-वन टूटे हैं। 
होली मची ठौर-ठौर, 
सभी बंधन छूटे हैं।

फागुन के रंग राग, 
बाग वन फाग मचा है. 
भर गये मोती के झाग, 
जनों के मन लूटे हैं।

माथे अबीर से लाल, 
गाल सेंदुर के देखे,
आँखें हुई हैं गुलाल, 
गेरू के ढेले कूटे हैं।


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