रामायण संबंधित रचना

वाच्यस्त्वया मद्वचनात् स राजा--
वहौ विशुद्धामति यत्समक्षम् । 
मां लोकवाद श्रवणादहासी: 
श्रुतस्य तत्विव सदृशं कुलस्य ?

लक्ष्मण! जरा उस राजा से कह देना कि मैंने तो तुम्हारी आँख के सामने ही आग में कूदकर अपनी विशुद्धता साबित कर दी थी। तिस पर भी लोगों के मुख से निकला मिथ्यावाद सुनकर ही तुमने मुझे छोड़ दिया। क्या यह बात तुम्हारे कुल के अनुरूप है? अथवा क्या यह तुम्हारी विद्वता या महत्ता को शोभा देनेवाली है?

सीता का यह संदेश कटु नहीं तो क्या मीठा है? 'राजा' मात्र कहकर उनके पास अपना संदेसा भेजा। यह उक्ति न किसी गँवार स्त्री की; किंतु महाब्रह्मज्ञानी राजा जनक की लड़की और मन्वादि महर्षियों के धर्मशास्त्रों का ज्ञान रखने वाली रानी की--

नृपस्य वर्णाश्रमपालनं यत्
स एव धर्मो मनुना प्रणीतः 

सीता की धर्मशास्त्रज्ञता का यह प्रमाण, वहीं, आगे चलकर, कुछ ही दूर पर, कवि ने दिया है। सीता-परित्याग के कारण वाल्मीकि के समान शांत, नीतिज्ञ और क्षमाशील तपस्वी तक ने–“अस्त्येव मन्युर्भरताग्रजे मे" कहकर रामचंद्र पर क्रोध प्रकट किया है। अतएव,शकुंतला की तरह, अपने परित्याग को अन्याय समझने वाली सीता का रामचंद्र के विषय में, कटुवाक्य कहना सर्वथा स्वाभाविक है। न यह पढ़ने-लिखने का परिणाम है न गँवारपन का, न अकुलीनता का।

✍️✍️✍️अज्ञात


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