राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद

नाथ संभुधनु भंजनिहारा।   होइहि के एक दास तुम्हारा।आयेसु काह कहिअ किन मोही।   सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही ।। 
सेवकु सो जो करै सेवकाई।   अरिकरनी करि करिअ लराई।
 सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा।  सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।
 
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा।    न त मारे जैहहिं सब राजा।। सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने।  बोले परसुधरहि अवनामे।।
बहु धनुही तोरी लरिकाईं।   कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं।। 
येहि धनु पर ममता केहि हेतू।    सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥ 

रे नृपबालक कालबस  बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम त्रिपुरारिधनु बिदित सकल संसार ।।

लखन कहा हसि हमरे जाना।   सुनहु देव सब धनुष समाना॥ 
का छति लाभु जून धनु तोरें।   देखा राम नयन के भोरें। छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू।    मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू।।
बोले चितै परसु की ओरा।    रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा ।। 
बालकु बोलि बधौं नहि तोही।    केवल मुनि जड़ जानहि मोही।।
बाल ब्रह्मचारी अति कोही।   बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही ।। 
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही।   बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही ।। 
सहसबाहुभुज छेदनिहारा।   परसु बिलोकु महीपकुमारा।।

 मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी।   अहो मुनीसु महाभट मानी।। 
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु।   चहत उड़ावन फूँकि पहारू।। 
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं।   जे तरजनी देखि मरि जाहीं।। 
देखि कुठार सरासन बाना।    मैं कछु कहा सहित अभिमाना।। 
भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी।    जो कछु कहहु सहौं रिस रोकी।।
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई।   हमरे कुल इन्ह पर न सुराई ।।
बधें पापु अपकीरति हारें।    मारतहू पा परिअ तुम्हारें || 
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा।    ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा।।

जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर । 
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर।

कौसिक सुनहु मंद येहु बालकु।    कुटिलु कालबस निज कुल घालकु॥ 
भानुबंस राकेस कलंकू।    निपट निरंकुसु अबुधु असंकू ।। 
कालकवलु होइहि छन माहीं।    कहौं पुकारि खोरि मोहि नाहीं।। 
तुम्ह हटकहु जौ चहहु उबारा ।    कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा।। 
लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा।    तुम्हहि अछत को बरनै पारा।। 
अपने मुहु तुम्ह आपनि करनी।    बार अनेक भाँति बहु बरनी।। 
नहि संतोषु त पुनि कछु कहहू।    जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।। 
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा।     गारी देत न पावहु सोभा ।।

सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।।

तुम्ह तो कालू हाँक जनु लावा।    बार बार मोहि लागि बोलावा॥ 
सुनत लखन के बचन कठोरा।    परसु सुधारि धरेउ कर घोरा।। 
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू।    कटुबादी बालकु बधजोगू।।
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा।    अब येहु मरनिहार भा साँचा।। 
कौसिक कहा छमिअ अपराधू।    बाल दोष गुन गनहिं न साधू ।। 
खर कुठार मैं अकरुन कोही।    आगे अपराधी गुरुद्रोही ।। 
उतर देत छोड़ौं बिनु मारे।    केवल कौसिक सील तुम्हारे ।। 
न त येहि काटि कुठार कठोरे।    गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे।।

गाधिसूनु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ ।
अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ ।।

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा।    को नहि जान बिदित संसारा।। 
माता पितहि उरिन भये नीकें।    गुररिनु रहा सोचु बड़ जी कें॥ 
सो जनु हमरेहि माथें काढ़ा।    दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा।। 
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली।    तुरत देउँ मैं थैली खोली ।। 
सुनि कटु बचन कुठार सुधारा।    हाय हाय सब सभा पुकारा।।
भृगुबर परसु देखाबहु मोही।    बिप्र बिचारि बचौं नृपद्रोही।।
 मिले न कबहूँ सुभट रन गाढ़े।    द्विजदेवता घरहि के बाढ़े।। 
अनुचित कहि सबु लोगु पुकारे।    रघुपति सयनहि लखनु नेवारे ।। 

लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु । 
बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु ।।

                                                     लेखक:- तुलसीदास

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