गीत- शिशु (रसवन्ती से)

आशीर्वचन कहो मङ्गमयि, गायन चले हृदय से, 
दुर्वासन अवनि ! किरण मृदु, उतरो नील निलय से। 
बड़े यत्न से जिन्हें छिपाया ये वे मुकुल हमारे, 
जो अब तक बच रहे किसी विध ध्वंसक इष्ट - प्रलय से।

ये अबोध कल्पक के शिशु क्या रीति जगत् की जानें, 
कुछ फूटे रोमांच - पुलक से, कुछ अस्फुट विस्मय से। 
निज मधु - चक्र निचोड़ लगन से पाला इन्हें हृदय ने, 
बड़े नाज़ से,बड़ी साध से, ममता, मोह, प्रणय से।

चुन अपरूप विभूति सृष्टि की मैंने रूप सँवारा, 
उडु से द्युति, गति बाल लहर से, सौरभ रुचिर मलय से। 
सोते - जगते मृदुल स्वप्न में सदा किलकते आये, 
नहीं उतारा कभी अङ्क से कठिन भूमि के भय से।

नन्हें अरुण चरण ये कोमल, क्षति की परुष प्रकृति है, 
मुझे सोच, पड़ जाय कहीं पाला न कुलिश निर्दय से। 
अर्जित किया ज्ञान कब इनने, जीवन - दुख कब झेला ? 
अभी अबुध ये खेल रहे थे रजकण के संचय से।

सीख न पाये रेणु - रत्न का भेद अभी ये भोले, 
मुट्ठी भर मिट्टी बदलेंगे कंचन - रचित वलय से । 
कुछ न सीख पाये, तो भी रुक सके न पुण्य - प्रहर में, 
घुटनों बल चल पड़े, पुकारा तुमने देवालय से।

रुन - झुन - झुन पैंजनी चरण में, केश कुटिल घुँघराले, 
नील नयन देखो माँ इनके दाँत धुले हैं पय से। 
देख रहे अति चकित रत्न - मणियों के हार तुम्हारे, 
विस्फारित निज नील नयन से, कौतुक - भरे हृदय से।

कुछ विस्मय, कुछ शील दृगों में, अभिलाषा कुछ मन में, 
पर, न खोल पाते मुख लज्जित प्रथम - प्रथम परिचय से। 
निपुण गायकों की रानी, इनकी भी एक कथा है, 
सुन लो, क्या कहने आये हैं, ये तुतली - सी लय से। 

छूकर भाल वरद कर से, मुख चूम विदा दो इनको, 
आशिष दो, ये सरल गीत - शिशु विचरें - अजर - अजय से।
दिशि - दिशि विविध प्रलोभन जग में, मुझे चाह बस इतनी,
 कभी निनादित द्वार तुम्हारा हो इनकी जय - जय से।

१९३९ ई०

-- रामधारी सिंह दिनकर

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