परिचय (हुङ्कार से)
सलिल-कण हूँ कि पारावार हूँ मैं ?
स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं।
बँधा हूँ, स्वप्न है, लघु वृत्त में हूँ,
नहीं तो व्योम का विस्तार हूँ मैं।
समाना चाहती जो बीन - उर में,
विकल वह शून्य की झङ्कार हूँ मैं।
भटकता, मैं खोजता हूँ ज्योति तम में,
सुना है, ज्योति का आगार हूँ मैं।
जिसे निशि खोजती तारे जला कर,
उसी का कर रहा अभिसार हूँ मैं।
जनम कर मर चुका सौ बार लेकिन,
अगम का पा सका क्या पार हूँ मैं ?
कली की पंखुड़ी पर ओस - कण में
रँगीले स्वप्न का संसार हूँ मैं ;
मुझे क्या आज ही या कल झडूं मैं ?
सुमन हूँ, एक लघु उपहार हूँ मैं।
जलन हूँ, दर्द हूँ, दिल की कसक हूँ,
किसी का हाय, खोया प्यार हूँ मैं।
गिरा हूँ भूमि पर नन्दन - विपिन से,
अमर - तरु का सुमन सुकुमार हूँ मैं।
मधुर जीवन हुआ कुछ प्राण ! जब से
लगा ढोने व्यथा का भार हूँ मैं ।
रुदन ही एक पथ प्रिय का, इसी से,
पिरोता आँसुओं का हार हूँ मैं।
मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का ?
चिता का धूलि कण हूँ, क्षार हूँ मैं।
पता मेरा तुम्हें मिट्टी कहेगी
समा जिस में चुका सौ बार हूँ मैं।
न देखे विश्व, पर, मुझ को घृणा से,
मनुज हूँ, सृष्टि का श्रृङ्गार हूँ मैं।
पुजारिन ! धूलि से मुझको उठा लो,
तुम्हारे देवता का हार हूँ मैं ।
सुनूं क्या सिन्धु! मैं गर्जन तुम्हारा ?
स्वयं युग - धर्म का हुङ्कार हूँ मैं।
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का,
प्रलय - गाण्डीव की टङ्कार हूँ मैं।
दबी- सी आग हूँ भीषण क्षुधा की,
दलित का मौन हाहाकार हूँ मैं ।
सजग संसार, तू निज को सँभाले,
प्रलय का क्षुब्ध पारावार हूँ मैं।
बँधा तूफ़ान हूँ, चलना मना है,
बँधी उद्दाम निर्झर - धार हूँ मैं ।
कहूँ क्या, कौन हूँ? क्या आग मेरी ?
बँधी है लेखनी, लाचार हूँ मैं।
१९३५ ई०
-- रामधारी सिंह दिनकर
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