विपथगा

 झन-झन-झन-झन-झन - झनन-झनन, 
झन-झन-झन-झन-झन - झनन-झनन ।

मेरी पायल झनकार रही तलवारों की झनकारों में, 
अपनी आगमनी बजा रही मैं आप क्रुद्ध हुङ्कारों में, 
मैं अहङ्कार - सी कड़क ठठा हँसती विद्युत् की धारों में, 
बन काल - हुताशन खेल रही पगली मैं फूट पहाड़ों में
अँगड़ाई में भूचाल, साँस में लङ्का के उनचास पवन ।

झन-झन-झन-झन-झन - झनन-झनन ।

मेरे मस्तक के आतपत्र खर काल - सर्पिणी के शत फन, मुझ चिर - कुमारिका के ललाट में नित्य नवीन रुधिर - चन्दन, 
आँजा करती हूँ चिता- धूम का दृग में अन्ध तिमिर - अंजन, 
संहार - लपट का चीर पहन नाचा करती मैं छूम - छनन ।

झन-झन-झन-झन-झन - झनन-झनन ।

पायल की पहली झमक, सृष्टि में कोलाहल छा जाता है, 
पड़ते जिस ओर चरण मेरे, भूगोल उधर दब जाता है, 
लहराती लपट दिशाओं में, खलभल खगोल अकुलाता है, 
परकटे विहग - सा निरवलम्ब गिर स्वर्ग - नरक जल जाता है, 
गिरते दहाड़ कर शैल - शृङ्ग मैं जिधर फेरती हूँ चितवन ।

झन-झन-झन-झन-झन झनन-झनन

रस्सों से कसे जवान पाप- प्रतिकार न जब कर पाते हैं, 
बहनों की लुटती लाज देखकर काँप-काँप रह जाते हैं,

शस्त्रों के भय से जब निरस्त्र आँसू भी नहीं बहाते हैं, 
पी अपमानों के गरल - घूँट शासित जब ओठ चबाते हैं, 
जिस दिन रह जाता क्रोध मौन, मेरा वह भीषण जन्म - लगन ।

झन-झन-झन-झन-झन - झनन-झनन

पौरुष को बेड़ी डाल पाप का अभय रास जब होता है, 
ले जगदीश्वर का नाम खड्ग कोई दिल्लीश्वर धोता है, 
धन के विलास का बोझ दुखी- दुर्बल दरिद्र जब ढोता है, 
दुनिया को भूखों मार भूप जब सुखी महल में सोता है, 
सहती सब कुछ मन मार प्रजा, कसमस करता मेरा यौवन ।

झन-झन-झन-झन-झन - झनन-झनन

श्वानों को मिलते दूध - वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं, 
माँ की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं, 
युवती के लज्जा- वसन बेच जब व्याज चुकाये जाते हैं, 
मालिक जब तेल - फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते हैं, 
पापी महलों का अहङ्कार देता मुझको तब आमन्त्रण ।

झन-झन-झन-झन-झन - झनन-झनन

डरपोक हुकूमत जुल्मों से लोहा जब नहीं बजाती है, हिम्मतवाले कुछ कहते हैं, तब जीभ तराशी जाती है, 
उलटी चालें ये देख देश में हैरत- सी छा जाती है, 
भट्ठी की ओदी आँच छिपी तब और अधिक धुँधुँआती है; सहसा चिंग्घार खड़ी होती दुर्गा मैं करने दस्यु - दलन ।

झन-झन-झन-झन-झन - झनन-झनन

चढ़कर जुनून - सी चलती हूँ मृत्युंजय वीर कुमारों पर, आतङ्क फैल जाता कानूनी पार्लमेंट, सरकारों पर,

'नीरो' के जाते प्राण सूख मेरे कठोर हुङ्कारों पर, 
कर अट्टहास इठलाती हूँ जारों के हाहाकारों पर, 
झंझा - सी पकड़ झकोर हिला देती दम्भी के सिंहासन ।

झन - झन - झन - झन - झन - झन - झनन ।

मैं निस्तेजों का तेज, युगों के मूक मौन की बानी हूँ, 
दिल - जले शासितों के दिल की मैं जलती हुई कहानी हूँ, 
सदियों की ज़ब्ती तोड़ जगी, मैं उस ज्वाला की रानी हूँ, 
मैं ज़हर उगलती फिरती हूँ, मैं विष से भरी जवानी हूँ, 
भूखी बाघिन की घात क्रूर, आहत भुजङ्गिनी का दंसन ।

झन - झन - झन - झन - झन - झन - झनन ।

जब हुई हुकूमत आँखों पर, जनमी चुपके मैं आहों में, 
कोड़ों की खाकर मार पली पीड़ित की दबी कराहों में, 
सोने- सी निखर जवान हुई तप कड़े दमन के दाहों में, 
ले जान हथेली पर निकली मैं मर - मिटने की चाहों में, 
मेरे चरणों में खोज रहे भय - कम्पित तीनों लोक शरण।

झन - झन - झन - झन - झन - झन - झनन ।

असि की नोकों से मुकुट जीत अपने सिर उसे सजाती हूँ,
 ईश्वर का आसन छीन कूद मैं आप खड़ी हो जाती हूँ, 
थर-थर करते कानून-न्याय इङ्गित पर जिन्हें नचाती हूँ, 
भयभीत पातकी धर्मों से अपने पग मैं धुलवाती हूँ, 
सिर झुका घमण्डी सरकारें करती मेरा अर्चन - पूजन। 

झन - झन - झन - झन - झन - झन - झनन ।

मुझ विपथगामिनी को न ज्ञात किस रोज़ किधर से आऊँगी,
मिट्टी से किस दिन जाग क्रुद्ध अम्बर में आग लगाऊँगी,
आँखें अपनी कर बन्द देश में जब भूकम्प मचाऊँगी, 
किसका टूटेगा शृङ्ग, न जानें, किसका महल गिराऊँगी निर्बन्ध, 
क्रूर, निर्मोह सदा मेरा कराल नर्तन - गर्जन ।

झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन ।

अबकी अगस्त की बारी है, पापों के पारावार ! सजग, 
बैठे, 'विसूवियस' के मुख पर, भोले, अबोध संसार ! सजग, 
रेशों का रक्त कृशानु हुआ, ओ ज़ुल्मी की तलवार ! सजग, 
दुनिया के नीरो ! सावधान ! दुनिया के पापी जार ! सजग ।
 जानें, किस दिन फुङ्कार उठें पद - दलित काल - सर्पों के फन ।

झन-झन-झन - झन-  झन - झनन-झनन ।

सहीराम,१९३८ ई०

-- रामधारी सिंह दिनकर

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