आओ, मिलकर बचाएँ

अपनी बस्तियों को 
नंगी होने से 
शहर की आबो-हवा से बचाएँ उसे

बचाएँ डूबने से 
पूरी की पूरी बस्ती को 
हड़िया में

अपने चेहरे पर 
सन्थाल परगना की माटी का रंग 
भाषा में झारखंडीपन

ठंडी होती दिनचर्या में 
जीवन की गर्माहट 
मन का हरापन 
भोलापन दिल का 
अक्खड़पन, जुझारूपन भी

भीतर की आग 
धनुष की डोरी 
तीर का नुकीलापन 
कुल्हाड़ी की धार 
जंगल की ताजा हवा 
नदियों की निर्मलता 
पहाड़ों का मौन 
गीतों की धुन 
मिट्टी का सोंधापन 
फसलों की लहलहाहट

नाचने के लिए खुला आँगन 
गाने के लिए गीत 
हँसने के लिए थोड़ी-सी खिलखिलाहट 
रोने के लिए मुट्ठी भर एकान्त

बच्चों के लिए मैदान 
पशुओं के लिए हरी-हरी घास 
बूढ़ों के लिए पहाड़ों की शान्ति

और इस अविश्वास-भरे दौर में
थोड़ा-सा विश्वास
थोड़ी-सी उम्मीद
थोड़े-से सपने

आओ मिलकर बचाएँ 
कि इस दौर में भी बचाने को 
बहुत कुछ बचा है, 
अब भी हमारे पास !

                                             लेखक:- निर्मला पुतुल

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