लक्ष्मण-मूर्च्छा और राम का विलाप दोहा

तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत । 
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ हनुमंत ।। 
भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार । 
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार।।

उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी ।।अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायऊ ।। 
सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभाऊ ।। 
मम हित लागि तजेहु पितु माता । सहेहु बिपिन हिम आतप बाता।।

सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।।
जौं जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पितु वचन मनतेउँ नहि ओहू।।
सुत बित नारि भवन परिवारा। होहि जाहि जग बारहिं बारा।। 
अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।।
जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना।। 
अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जौं जड़ दैव जिआवै मोही।। 
जैहउँ अवध कवन मुहुँ लाई। नारि हेतु प्रिय भाइ गँवाई ।।
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं॥ 
अब अपलोकु सोकु सुत तोरा । सहिहि निठुर कठोर उर मोरा।। 
निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा ।।सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब विधि सुखद परम हित जानी।। 
उतरु काह दैहउँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई। बहु बिधि सोचत सोच बिमोचन। स्रवत सलिल राजिव दल लोचन।। 
उमा एक अखंड रघुराई नर गति भगत कृपाल देखाई ||

                       सोरठा

प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर 
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना मँह बीर रस।।

हरषि राम भेटेठ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना।। तुरत बैद तब कीन्हि उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई।। हृदयँ लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता।। कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा। जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा।। 
यह बृतांत दसानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ।। 
ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा।।
जागा निसिचर देखिअ कैसा । मानहुँ कालु देह धरि बैसा।।कुंभकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई ।। 
कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी।।
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महा महा जोधा संघारे।।
दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी।।
अपर महोदर आदिक बीरा । परे समर महि सब रनधीरा।।

                       दोहा

सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान। 
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान ।।

 लेखक :-- तुलसीदास

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