दाह__की__कोयल (रसवन्ती से)

दाह के आकाश में पर खोल,
कौन तुम बोली पिकी के बोल ?

                 (१)

दर्द में भीगी हुई - सी तान, 
होश में आता हुआ - सा गान;
याद आयो आयु की बरसात, 
फिर गयी दुग में उजेली रात; 
कपिता उजली कली का वृन्त, 
फिर गया दृग में समग्र बसन्त ।

मुँद गयी पलकें खुले जब कान, 
सज गया हरियालियों का ध्यान; 
मुँद गयीं पलकें कि जागी पीर, 
पीर, बिलुड़ी चीज़ की तस्वीर। 
प्राण की सुधि - ग्रन्थि भूली खोल, 
कौन तुम बोली पिकी के बोल ?

               (२)

दूर छूटी छाँहवाली डाल, 
दूर छूटी तरु - द्रुमों  की माल;
दूर छूटा पत्तियों का देश, 
तलहटी का दूर रम्य प्रदेश; 
बसु जाने न जल का नाद, 
कब मिली कलियाँ, नहीं कुछ याद।
ओस - तृण को आज सिर्फ़ बिसूर 
चल रहा मैं बाग - वन से दूर। 
शीश पर जलता हुआ दिनमान, 
और नीचे तप्त रेगिस्तान । 
छाँह-सी - मरु पन्थ में तब डोल, 
कौन तुम बोली पिकी के बोल ?

                   (३)

बालुओं का दाह मेरे ईश !  
औ' गुमरते दर्द की यह टीस ! 
सोचता विस्मित खड़ा मैं मौन, 
खोजती आयी मुझे तुम कौन ? 
कौन तुम, ओ कोमले अनजान ? 
कौन तुम, किस रोज़ की पहचान ?

हाँ, ज़रा - सी याद भूली बात, 
दूध की धोयी उजेली रात ; 
जब किरन - हिडोर पर सामोद 
स्यात् झूली बैठ मेरी गोद । 
या कहीं ऊषा गली में प्रान ! 
घूमते तुम से हुई पहचान।

तारकों में या नियति की बात 
पढ़ रहा था जबकि पिछली रात, 
तुम मिली ओढ़े सुवर्ण - दुकूल 
भोर में चुनते विभा के फूल । 
भूमि में, नभ में कहीं ओ प्रान ! 
याद है, तुमसे हुई पहचान।

            ( ४ )

याद है, तुम तो सुधा की धार, 
याद है, तुम चाँदनी सुकुमार । 
याद है, तुम तो हृदय की पीर,
याद है, तुम स्वप्न की तस्वीर । 
याद है, तुम तो कमल की नाल, 
मंजरी के पासवाली नर्म कोंपल लाल । 
इन्द्र की धनुषी, सजल रङ्गीन, 
खोजती किसको दहकती वायु में उड्डीन ?
दाह के आकाश में पर खोल 
बोलने आयी पिकी के बोल ।

                       (५)

चिलचिलाती धूप का यह देश, 
कल्पने ! कोमल तुम्हारा वेश
लाल चिनगारी यहाँ  की धूल, 
एक गुच्छा तुम जुही के फूल । 
दाह में यह ब्याह का सङ्गीत ! 
भूल क्या सकती न पिछली प्रीत ? 
पड़ चुका है आग में संसार, 
आज तुम असमय पधारी, क्या करूँ सत्कार ? 
मेरी बावली मेहमान !
शेष जो अब भी उसे निज को समर्पित जान 
लूह में आशा हरी सुकुमार,
दाह के आकाश में मन्दाकिनी की धार; 
धूप में उड़ती हुई शबनम अरी अनमोल ! 
कौन तुम बोली पिकी के बोल ?

ससराम, १९३८ ई०
-- रामधारी सिंह दिनकर

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