दुष्यंत कुमार के गज़ल

कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए, 
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।

यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।

न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे, 
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए।

खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख्वाब सही, 
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए।

वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, 
मैं बेकरार हूँ आवाज़ में असर के लिए।

तेरा निज़ाम है सिल दे जुबान शायर की, 
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए।

जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले, 
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।

                                                 

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