सिपाही (हुङ्कार से)
वनिता की ममता न हुई, सुत का न मुझे कुछ छोह हुआ,
ख्याति, सुयश, सम्मान, विभव का, त्योंही, कभी न मोह हुआ।
जीवन की क्या चहल - पहल है, इसे न मैंने पहचाना,
सेनापति के एक इशारे पर मिटना केवल जाना।
मसि की तो क्या बात ? गली की ठिकरी मुझे भुलाती है,
जीते जी लड़ मरूँ, मरे पर याद किसे फिर आती है ?
इतिहासों में अमर रहूँ, है ऐसी मृत्यु नहीं मेरी,
विश्व छोड़ जब चला, भुलाते लगती फिर किसको देरी ?
जग भूले, पर मुझे एक, बस, सेवा - धर्म निभाना है,
जिसकी है यह देह उसीमें इसे मिला मिट जाना है।
विजय - विटप को विकच देख जिस दिन तुम हृदय जुड़ाओगे,
फूलों में शोणित की लाली कभी समझ क्या पाओगे ?
वह लाली हर प्रात क्षितिज पर आकर तुम्हें जगायेगी,
सायंकाल नमन कर माँ को तिमिर- बीच खो जायेगी।
देव करेंगे विनय, किन्तु, क्या स्वर्ग - बीच रुक पाऊँगा ?
किसी रात चुपके उल्का बन कूद भूमि पर आऊँगा।
तुम न जान पाओगे, पर, मैं रोज खिलूँगा इधर - उधर,
कभी फूल की पंखुड़ियाँ बन, कभी एक पत्ती बनकर।
अपनी राह चली जायेगी वीरों की सेना रण में,
रह जाऊँगा मौन वृन्त पर सोच, न जानें, क्या मन में ?
तप्त वेग धमनी का बनकर कभी सङ्ग मैं हो लूँगा,
कभी चरण - तल की मिट्टी में छिपकर जय - जय बोलूँगा।
अगले युग की अनी कपिध्वज जिस दिन प्रलय मचायेगी,
मैं गरजूंगा ध्वजा - श्रृङ्ग पर, वह पहचान न पायेगी ।
'न्योछावर में एक फूल', पर, जग की ऐसी रीत कहाँ ?
एक पंक्ति मेरी सुधि में भी सस्ते इतने गीत कहाँ ?
* * * *
कविते ! देखो विजन विपिन में वन्य - कुसुम का मुरझाना ;
व्यर्थ न होगा इस समाधि पर दो आँसू- कण बरसाना ।
१९३६ ई०
-- रामधारी सिंह दिनकर
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