यह दंतुरित मुसकान

तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान 
मृतक में भी डाल देगी जान
धूलि-धूसर तुम्हारे ये गात...

छोड़कर तालाब मेरी झोंपड़ी में खिल रहे जलजात 
परस पाकर तुम्हारा ही प्राण, 
पिघलकर जल बन गया होगा कठिन पाषाण
छू गया तुमसे कि झरने लग पड़े शेफालिका के फूल
बाँस था कि बबूल ?
तुम मुझे पाए नहीं पहचान ?
देखते ही रहोगे अनिमेष!
थक गए हो? 
आँख लूँ मैं फेर ?
क्या हुआ यदि हो सके परिचित न पहली बार? 
यदि तुम्हारी माँ न माध्यम बनी होती आज 
मैं न सकता देख
मैं न पाता जान
तुम्हारी यह दंतुरित मुसकान 
धन्य तुम, माँ भी तुम्हारी धन्य!
चिर प्रवासी मैं इतर, मैं अन्य! 
इस अतिथि से प्रिय तुम्हारा क्या रहा संपर्क
उँगलियाँ माँ की कराती रही हैं मधुपर्क 
देखते तुम इधर कनखी मार
और होतीं जब कि आँखें चार 
तब तुम्हारी दंतुरित मुसकान
मुझे लगती बड़ी ही छविमान!

            

                                                  लेखक :- नागार्जुन

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

रामधारी सिंह दिनकर कविताएं संग्रह

मेसोपोटामिया सभ्यता का इतिहास (लेखन कला और शहरी जीवन 11th class)

आंकड़ों का सारणीकरण तथा सारणी के अंग Part 2 (आंकड़ों का प्रस्तुतीकरण) 11th class Economics