श्रमिकों की पीड़ाएँ
छोड़-छाड़ कर इधर-उधर की,
साहित्यिक-क्रीड़ाएँ मैं
लिखता हूँ कुछ थोड़ी सी ही,
श्रमिकों की पीड़ाएँ मैं
जिनसे सब आराम उठाते,
वे आराम न पाते हैं
माल-मलाई ठलुआ खाते,
पर वे सादा खाते हैं
जिनसे श्रम संचालित होता,
वे सब कठिनाई झेलें
वे ही लोग विमान बनाते,
उनसे ही बनतींं रेलें
सब निर्माण वही करते हैं,
उनसे महल खड़े होते
जिनसे बड़े,बड़े बनते हैं,
सबसे वही बड़े होते
उपयोगी वस्तुएँ बनाते,
वे ही मिलें चलाते हैं
सच मानो तुम सभी प्रगति का,
पहिया वही घुमाते हैं
विश्व आपदा में घिर बैठा,
आ पहुँचा जब कोरोना
बंद हो गए श्रम के साधन,
बंद कमाई का होना
रुके आय के स्रोत सभी के,
खाली हुई जमा पूँजी
श्रमिकों को रोटी के लाले,
त्राहि-त्राहि सब में गूँजी
लगे लौटने घर अपने को,
लेकिन घर से दूरी है
वाहनहीन,स्वयं पैदल ही,
घर जाना मजबूरी है
कठिन काम उनका है लेकिन,
सच्चे सीधे-सादे हैं
अपने ऊपर बहुत भरोसा,
पक्के बहुत इरादे हैं
मिले बहुत आश्वासन उनको,
कहाँ हुए पूरे सारे
लंबी दूरी तय करनी है,
फिरते हैं मारे- मारे
बहुत जनों ने चलते-चलते,
अपने प्राण गँवाए हैं
अंतिम साँस राह में ले ली,
घर तक पहुँच न पाए हैं
जीवन श्रम में ही काटा था,
श्रम की साध अभागी थी
हाहाकार मचा तब जाकर,
सोयी सत्ता जागी थी
जैसे-तैसे किए बाद में,
कुछ प्रबंध सरकारों ने
उनमें भी व्यवधान किए हैं,
कोरोना-बीमारों ने
आना-जाना बंद हुआ है,
दुनिया आनी-जानी है
जितनी लिख दूँ उतनी कम है,
श्रम की कठिन कहानी है
लेखक :- डॉ० रामप्रकाश 'पथिक'
कासगंज
टिप्पणियाँ