सवैया
पाँयनि नूपुर मंजु बजैं, कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई ।साँवरे अंग लसै पट पीत, हिये हुलसै बनमाल सुहाई ।
माथे किरीट बड़े दृग चंचल, मंद हँसी मुखचंद जुन्हाई ।
जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर, श्रीब्रजदूलह 'देव' सहाई ।।
कवित्त
डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के,
सुमन झिंगूला सोहै तन छबि भारी दै।
पवन झूलावै, केकी-कीर बतरावैं 'देव',
कोकिल हलावै-हुलसावै कर तारी दै।।
पूरित पराग सों उतारो करै राई नोन,
कंजकली नायिका लतान सिर सारी दै।
मदन महीप जू को बालक बसंत ताहि,
प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै।।
कवित्त
फटिक सिलानि सौं सुधार्यौ सुधा मंदिर,
उदधि दधि को सो अधिकाइ उमगे अमंद।
बाहर ते भीतर लौं भीति न दिखैए 'देव',
दूध को सो फेन फैल्यो आँगन फरसबंद ।
तारा सी तरुनि तामें ठाढ़ी झिलमिली होति,
मोतिन की जोति मिल्यो मल्लिका को मकरंद ।
आरसी से अंबर में आभा सी उजारी लगै,
प्यारी राधिका को प्रतिबिंब सो लगत चंद।।
लेखक:- देव
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