प्रीति (रसवन्ती से)

             (१)

प्रीति न अरुण साँझ के घन सखि !

पल - भर चमक बिखर जाते जो
मना कनक - गोधूलि लगन सखि !

प्रीति नील, गम्भीर गगन सखि !

चूम रहा जो विनत धरणि को 
निज सुख में नित मूक- मगन सखि !

             (२)

प्रीति न पूर्ण चन्द्र जगमग सखि !

जो होता नित क्षीण, एक दिन 
विभा सिक्त करके अग - जग सखि !

दूज कला यह लघु नभ- नग सखि ! -

शीत, स्निग्ध, नव रश्मि छिड़कती
बढ़ती ही जाती पग - पग सखि ! 

              (३)

मन की बात न श्रुति से कह सखि !

बोले प्रेम विकल होता है, 
अनबोले सारा दुख सह सखि !

कितना प्यार ? जान मत यह सखि !

सीमा, बन्ध, मृत्यु से आगे 
बसती कहीं प्रीति अहरह सखि !

              ( ४ )

तृणवत् धधक - धधक मत जल सखि !

ओदी आँच धुनी विरहिन की, 
नहीं लपट की चहल-पहल सखि !

अन्तर्दाह मधुर मङ्गल सखि ! 

प्रीति - स्वाद कुछ ज्ञात उसे, जो 
सुलग रहा तिल तिल, पल-पल सखि ! 

१९३६ ई०

-- रामधारी सिंह दिनकर

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