कवितावली (उत्तर कांड से)

किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाट, 
चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी।
पेटको पढ़त, गुन  गढ़त, चढ़त गिरि, 
अटत गहन-गन अहन अखेटकी।। 
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि, 
पेट ही को पचत,  बेचत बेटा-बेटकी।
'तुलसी' बुझाइ एक राम घनस्याम ही तें,
आगि बड़वागितें बड़ी है आगि पेटकी।।

खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि, 
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी ।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों 'कहाँ जाई. का करी?'
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअतं, 
साँकरे सबै पै, राम! रावरें कृपा करी । 
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु !
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी ।।

धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ। काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ।। 
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ।  
माँगि कै खैबो, मसीत को सोइबो, लैबोको एक न दैबको दोऊ।

लेखक :-- तुलसीदास

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