परशुराम की प्रतीक्षा
खण्ड-1
गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ?
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?
उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,
तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;
सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,
निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;
गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,
तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;
सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,
प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को
जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,
(अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)
हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,
शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।
खण्ड-2
हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?
हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?
यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?
दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।
पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।
चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।
है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?
किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?
जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,
दैहिक बल को कहता यह देश गलत है।
नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।
ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।
जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है;
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।
वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।
तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।
असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।
तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,
किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।
पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?
तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,
है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।
जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,
शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,
कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।
कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,
सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।
हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?
हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।
खण्ड-3
किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?
किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?
दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;
यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।
वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,
हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को।
सामने देश माता का भव्य चरण है,
जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है,
काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,
पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।
फूटेगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से,
भर जायेगा नगराज रुण्ड-मुण्डों से।
माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी।
लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।
पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,
दो हवा, देश की आज जरा जलने दो।
जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,
भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;
देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !
असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !
बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,
धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे।
तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,
हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।
जो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं,
वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं,
कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे,
भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे।
गरजो, अम्बर को भरो रणोच्चारों से,
क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।
यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,
मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।
जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,
माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है।
अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,
जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।
कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,
हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,
अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,
जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।
गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,
गुलमर्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,
भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,
गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।
खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में,
जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में,
कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में,
चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में—
सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे !
नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !
झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को,
टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;
विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,
राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को;
वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को,
टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।
आजन्म सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था,
आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था,
हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं,
‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं;
साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को,
टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को।
खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?
अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?
बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ?
वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ?
जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे,
बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।
हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,
सारी लपटों का रंग लाल होता है।
जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं,
शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।
वास्तविक मर्म जीवन का जान गये हैं,
हम भलीभाँति अघ को पहचान गये हैं।
हम समझ गये हैं खूब धर्म के छल को,
बम की महिमा को और विनय के बल को।
हम मान गये, वे धीर नहीं उद्धत थे,
वे सही, और हम विनयी बहुत गलत थे।
जा कहो, करें अब क्षमा, नहीं रूठें वे;
बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।
साधना स्वयं शोणित कर धार रही है,
सतलुज को साबरमती पुकार रही है।
वे उठें, देश उनके पीछे हो लेगा,
हम कहते हैं, कोई न व्यंग्य बोलेगा।
है कौन मूढ़, जो पिटक आज खोलेगा ?
बोलेगा जय वह भी, न खड़ग जो लेगा ।
वे उठें, हाय, नाहक विलम्ब होता है,
अपनी भूलों के लिए देश रोता है ।
जिसका सारा इतिहास तप्त, जगमग है,
वीरता-वह्नि से भरी हुई रग-रग है,
जिसके इतने बेटे रण झेल चुके हैं,
शूली, किरीच, शोलों से खेल चुके हैं,
उस वीर जाति को बन्दी कौन करेगा ?
विकराल आग मुट्ठी में कौन धरेगा ?
केवल कृपाण को नहीं, त्याग-तप को भी,
टेरो, टरो साधना, यज्ञ, जप को भी ।
गरजो, तरंग से भरी आग भड़काओ,
हो जहाँ तपी, तप से तुम उन्हें जगाओ।
युग-युग से जो ऋद्धियाँ यहाँ उतरी हैं,
सिद्धियाँ धर्म की जो भी छिपी, धरी हैं,
उन सभी पावकों से प्रचण्डतम रण दो,
शर और शाप, दोनों को आमन्त्रण दो।
चिन्तको ! चिन्तन की तलवार गढ़ो रे ।
ऋषियो ! कृशानु-उद्दीपन मंत्र पढ़ो रे ।
योगियो ! जगो, जीवन की ओर बढ़ो रे ।
बन्दूकों पर अपना आलोक मढ़ो रे ।
है जहाँ कहीं भी तेज, हमें पाना है,
रण में समग्र भारत को ले जाना है ।
पर्वतपति को आमूल डोलना होगा,
शंकर को ध्वंसक नयन खोलना होगा।
असि पर अशोक को मुण्ड तोलना होगा,
गौतम को जयजयकार बोलना होगा।
यह नहीं शान्ति की गुफा, युध्द है, रण है,
तप नहीं, आज केवल तलवार शरण है ।
ललकार रहा भारत को स्वयं मरण है,
हम जीतेंगे यह समर, हमारा प्रण है ।
खण्ड-4
कुछ पता नहीं, हम कौन बीज बोते हैं,
है कौन स्वप्न, हम जिसे यहाँ ढोते हैं।
पर, हाँ, वसुधा दानी है, नहीं कृपण है,
देता मनुष्य जब भी उसको जल-कण है।
यह दान वृथा वह कभी नहीं लेती है,
बदले में कोई दूब हमें देती है।
पर, हमने तो सींचा है उसे लहू से,
चढ़ती उमंग की कलियों की खुशबू से।
क्या यह अपूर्व बलिदान पचा वह लेगी ?
उद्दाम राष्ट्र क्या हमें नहीं वह देगी ?
ना, यह अकाण्ड दुष्काण्ड नहीं होने का,
यह जगा देश अब और नहीं सोने का।
जब तक भीतर की गाँस नहीं कढ़ती है,
श्री नहीं पुन भारत-मुख पर चढ़ती है,
कैसे स्वदेश की रूह चैन पायेगी ?
किस नर-नारी को भला नींद आयेगी ?
कुछ सोच रहा है समय राह में थम कर,
है ठहर गया सहसा इतिहास सहम कर।
सदियों में शिव का अचल ध्यान डोला है,
तोपों के भीतर से भविष्य बोला है ।
चोटें पड़ती यदि रहीं, शिला टूटेगी,
भारत में कोई नयी धार फूटेगी ।
हम खड़े ध्वंस में जब भी कुछ गुनते हैं,
रथ के घर्घर का नाद कहीं सुनते हैं ।
जिसकी आशा से खड़ा व्यग्र जन-जन है,
यह उसी वीर का, स्यात् वज्र-स्यन्दन है ।
अम्बर में जो अप्रतिम क्रोध छाया है,
पावक जो हिम को फोड़ निकल आया है,
वह किसी भाँति भी वृथा नहीं जायेगा,
आयेगा, अपना महा वीर आयेगा ।
हाँ, वही, रूप प्रज्वलित विभासित नर का,
अंशावतार सम्मिलित विष्णु-शंकर का ।
हाँ, वही, दुरित से जो न सन्धि करता है,
जो सन्त धर्म के लिए खड़ग धरता है ।
हाँ, वही फूटता जो समष्टि के मन से,
संचित करता है तेज व्यग्र जन-जन से।
हाँ, वही, न्याय-वंचित की जो आशा है,
निर्धनों, दीन-दलितों की अभिलाषा है ।
विद्युत् बनकर जो चमक रहा चिन्तन में,
गुंजित जिसका निर्घोष लोक-गुंजन में,
जो पतन-पुंज पर पावक बरसाता है,
यह उसी वीर का रथ दौड़ा आता है ।
गाओ कवियो ! जयगान, कल्पना तानो,
आ रहा देवता जो, उसको पहचानो।
है एक हाथ में परशु, एक मे कुश है,
आ रहा नये भारत का भाग्यपुरुष है ।
अगार-हार अरपो, अर्चना करो रे ।
आँखो की ज्वालाएं मत देख डरो रे ।
यह असुर भाव का शत्रु, पुण्य-त्राता है,
भयभीत मनुज के लिए अभय-दाता है ।
यह वज्र वज्र के लिए, सुमो का सुम है,
यह और नहीं कोई, केवल हम-तुम है ।
यह नहीं जाति का, न तो गोत्र-बन्धन का,
आ रहा मित्र भारत-भर के जन-जन का ।
गांधी-गौतम का त्याग लिये आता है,
शंकर का शुद्ध विराग लिये आता है ।
सच है, आंखों में आग लिये आता है,
पर, यह स्वदेश का भाग जिये आता है ।
मत डरो, सन्त यह मुकुट नहीं मांगेगा,
धन के निमित्त यह धर्म नहीं त्यागेगा ।
तुम सोओगे, तब भी यह ऋषि जागेगा,
ठन गया युध्द तो बम-गोले दागेगा ।
जब किसी जाति का अहँ चोट खाता है,
पावक प्रचण्ड हो कर बाहर आता है ।
यह वही चोट खाये स्वदेश का बल है,
आहत भुजंग है, सुलगा हुआ अनल है ।
विक्रमी रूप नूतन अर्जुन-जेता का,
आ रहा स्वयं यह परशुराम त्रेता का।
यह उत्तेजित, साकार, क्रुद्ध भारत है,
यह और नहीं कोई, विशुद्ध भारत है ।
पापों पर बनकर प्रलय-वाण छूटेगा,
यह क्लीव धर्म पर बाज-सदृश टूटेगा ।
जो रुष्ट खड़ग से हैं, उनसे रूठेगा,
कृत्रिम विभाकरों का प्रकाश लूटेगा ।
वह गरुड़ देश का नाग-पाश काटेगा,
अरि-मुण्डों से खाइयाँ-खोह पाटेगा ।
विद्युतित जीभ से चाट भीति हर लेगा,
वह तुम्हें आप अपने समान कर लेगा।
रह जायगा वह नहीं ज्ञान सिखला कर,
दूरस्थ गगन में इन्द्रधनुष दिखला कर ।
वह लक्ष्यविन्दु तक तुम को ले जायेगा,
उँगलियां थाम मंजिल तक पहुँचायेगा ।
हर धड़कन पर वह सजल मेघ सिहरेगा,
गत और अनागत बीच व्यग्र बिहरेगा ।
बरसेगा बन जलधार तृषित धानों पर,
बन तडिद्धार छूटेगा चट्टानों पर ।
जब वह आयेगा, द्विधा द्वन्द्व विनसेगा,
आलिंगन में अवनी को व्योम कसेगा ।
विज्ञान धर्म के धड़ से भिन्न न होगा,
भवितव्य भूत-गौरव से छिन्न न होगा।
जब वह आयेगा खल कुबुद्धि छोड़ेंगे,
सब साँप आप ही फण अपने तोड़ेंगे
विषवाह-अभ्र गांधी पर नहीं घिरेंगे,
शान्ति के नीड़ में गोले नहीं गिरेंगे।
खण्ड-5
(१)
सिखलायेगा वह, ऋत एक ही अनल है
जिन्दगी नहीं वह जहाँ नहीं हलचल है ।
जिनमें दाहकता नहीं, न तो गर्जन है,
सुख की तरंग का जहाँ अन्ध वर्जन है,
जो सत्य राख में सने, रुक्ष, रूठे हैं,
छोड़ो उनको, वे सही नहीं, झूठे हैं ।
(२)
वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो
चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे!
(३)
मत टिको मदिर, मधुमयी, शान्त छाया में,
भूलो मत उज्जवल, ध्येय मोह-माया में।
लौलुप्य-लालसा जहाँ, वहीं पर क्षय है;
आनंद नहीं, जीवन का लक्ष्य विजय है ।
जृम्भक, रहस्य-धूमिल मत ऋचा रचो रे !
सर्पित प्रसून के मद से बचो-बचो रे !
(४)
जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है
सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है
ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है
अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे
गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे!
(५)
भामा ह्रादिनी-तरंग, तडिन्माला है,
वह नहीं काम की लता, वीर बाला है,
आधी हालाहल-धार, अर्ध हाला है।
जब भी उठती हुंकार युद्ध-ज्वाला है,
चण्डिका कान्त को मुण्ड-माल देती है;
रथ के चक्के में भुजा डाल देती है।
(६)
खोजता पुरुष सौन्दर्य, त्रिया प्रतिभा को,
नारी चरित्र-बल को, नर मात्र त्वचा को।
श्री नहीं पाणि जिसके सिर पर धरती है,
भामिनी हृदय से उसे नहीं वरती है।
पाओ रमणी का हृदय विजय अपनाकर,
या बसो वहाँ बन कसक वीर-गति पा कर।
(७)
जिसकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है
भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है
है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है
वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है
उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है
तलवार प्रेम से और तेज होती है!
(८)
पी जिसे उमड़ता अनल, भुजा भरती है,
वह शक्ति सूर्य की किरणों में झरती है ।
मरु के प्रदाह में छिपा हुआ जो रस है,
तूफान-अन्धड़ों में जो अमृत-कलस है,
उस तपन-तत्व से ह्रदय-प्राण सींचो रे !
खींचो, भीतर आंधियाँ और खींचो रे !
(९)
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये
मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है
मरता है जो एक ही बार मरता है
तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे!
(१०)
स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है
बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है
नत हुए बिना जो अशनि-घात सहती है,
स्वाधीन जगत् में वहीं जाति रहती है ।
वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे
जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे!
(११)
दासत्व जहाँ है, वहीं स्तब्ध जीवन है,
स्वातंत्र्य निरन्तर समर, सनातन रण है ।
स्वातंत्र्य समस्या नहीं आज या कल की,
जागर्ति तीव्र वह घड़ी-घड़ी, पल-पल की।
पहरे पर चारों ओर सतर्क लगो रे !
धर धनुष-बाण उद्यत दिन-रात जगो रे !
(१२)
आंधियाँ नहीं, जिसमें उमंग भरती हैं,
छातियाँ जहाँ संगीनों से डरती हैं ।
शोणित के बदले जहाँ अश्रु बहता है,
वह देश कभी स्वाधीन नहीं रहता है ।
पकड़ो अयाल, अन्धड पर उछल चढ़ो रे ।
किरिचों पर अपने तन का चाम मढ़ो रे ।
(१३)
जब कभी अहम पर नियति चोट देती है
कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है
वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है
चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे!
(१४)
धन धाम, ज्ञान-विज्ञान मात्र सम्बल है
बस एक मात्र बलिदान जाति का बल है ।
सिर देने से जो लोग नहीं डरते हैं,
वे ही प्रभजनो पर शासन करते हैं ।
जब पड़े विपद, अपनी उमंग जांचो रे ।
विकराल काल के फण पर चढ़ नाचो रे ।
(१५)
हैं खड़े हिंस्र वृक-व्याघ्र, खड़ा पशुबल है,
ऊँची मनुष्यता का पथ नहीं सरल है ।
ये हिंस्र साधु पर भी न तरस खाते हैं,
कंठी-माला के सहित चबा जाते हैं ।
जो वीर काट कर इन्हें पार जायेगा,
उत्तुंग श्रृंग पर वही पहुँच पायेगा ।
(१६)
जो पुरुष भूल शायक, कुठार को असि को,
पूजता मात्र चिन्तन, विचार को, मसि को,
सत्य का नहीं बहुमान किया करता है,
केवल सपनों का ध्यान किया करता है,
बस में उसके यह लोक न रह जायेगा ।
है हवा स्वप्न, कर में वह क्यों आयेगा ?
(१७)
उपशम को ही जो जाति धर्म कहती है,
शम, दम, विराग को श्रेष्ठ कर्म कहती है,
धृति को प्रहार, शान्ति को वर्म कहती है,
अक्रोध, विनय को विजय-मर्म कहती है,
अपमान कौन, वह जिसको नहीं सहेगी?
सबको असीस सब का बन दास रहेगी ।
(१८)
यह कठिन शाप सुकुमार धर्म-साधन का,
रण-विमुख, शान्त जीवन के आराधन का,
जातियाँ पावकों से बच कर चलती हैं,
निर्वीर्य कल्पनाएँ रच कर चलती हैं ।
वृन्तो पर जलते सूर्य छोड़ देती हैं,
चुन-चुन कर केवल चाँद तोड़ लेती हैं ।
(१९)
दो उन्हें राम, तो मात्र नाम वे लेंगी,
विक्रमी शरासन से न काम वे लेंगी,
नवनीत बना देतीं भट अवतारी को,
मोहन मुरलीधर पाचजन्य-धारी को ।
पावक को बुझा तुषार बना देती हैं,
गांधी को शीतल क्षार बना देती हैं ।
(२०)
है सही बना पहले पृथ्वी से जल था,
पर, बहुत पूर्व उससे बन चुका अनल था।
जब प्रथम-प्रथम हो उठा तत्तव चंचल था,
प्रेरणा-स्रोत पर विनय नहीं थी, बल था।
है अनल ब्रह्म, पावक-तरंग जीवन है,
अब समझा, क्यों उजाला अभंग जीवन है ?
(२१)
भव को न अग्नि करने को क्षार बनी थी,
रखने को, बस उज्जवल आचार बनी थी ।
शिव नहीं, शक्ति सृजन-आधार बनी थी,
जब बनी सृष्टि, पहले तलवार बनी थी ।
वह कालकण्ठ स्रज नहीं, न कुंकुम-रज है ।
सत्य ही कहा गुरु ने, अकाल असि-ध्वज है ।
(२२)
स्वर में पावक यदि नहीं वृथा वन्दन है,
वीरता नहीं, तो सभी विनय क्रन्दन है।
सिर पर जिसके असिघात, रक्त-चन्दन है,
भ्रामरी उसी का करती अभिनन्दन है ।
दानवी रक्त से सभी पाप धुलते हैं,
ऊँची मनुष्यता के पथ भी खुलते हैं।
(२३)
सत्य है, धर्म का परम रूप लव-कुश हैं,
अत्यय-अधम पर परशु मात्र अंकुश हैं,
पर, जब कुठार की धार क्षीण होती है,
स्वयमेव धर्म की श्री मलीन होती है ।
हो धर्म ध्येय, तो भजो प्रथम बाँहों को ।
तोलो अपना बल-वीर्य, नहीं आहों को।
(२४)
है दुखी मेष, क्यों लहू शेर चखते हैं,
नाहक इतने क्यों दाँत तेज रखते हैं ।
पर, शेर द्रवित हो दशन तोड़ क्यों लेंगे ?
मेषों के हित व्याघ्रता छोड़ क्यों देंगे ?
एक ही पन्थ, तुम भी आघात हनो रे ।
मेषत्व छोड मेषो ! तुम व्याघ्र बनो रे ।
(२५)
जो अड़े, शेर उस नर से डर जाता है
है विदित, व्याघ्र को व्याघ्र नहीं खाता है ।
सच पूछो तो अब भी सच यही वचन है,
सभ्यता क्षीण, बलवान हिंस्र कानन है ।
एक ही पन्थ अब भी जग में जीने का,
अभ्यास करो छागियो ! रक्त पीने का।
(२६)
जब शान्तिवादियों ने कपोत छोड़े थे,
किसने आशा से नहीं हाथ जोड़े थे?
पर, हाय, धर्म यह भी धोखा है, छल है,
उजले कबूतरों में भी छिपा अनल है ।
पंजों में इनके धार धरी होती है,
कइयों में तो बारूद भरी होती है।
(२७)
जो पुण्य-पुण्य बक रहे, उन्हें बकने दो,
जैसे सदियां थक चुकी, उन्हें थकने दो।
पर, देख चुके हम तो सब पुण्य कमा कर,
सौभाग्य, मान, गौरव, अभिमान गंवा कर ।
वे पियें शीत, तुम आतप-घाम पियो रे ।
वे जपें नाम, तुम बन कर राम जियो रे ।
(२८)
है जिन्हें दाँत, उनसे अदन्त कहते हैं,
यानी शूरों को देख सन्त कहते हैं,
"तुम तुड़ा दाँत क्यों नहीं पुण्य पाते हो ?
यानी तुम भी क्यों भेड़ न बन जाते हो ?"
पर कौन शेर भेड़ों की बात सुनेगा
जिन्दगी छोड़ मरने की राह चुनेगा ?
(२९)
सुर नहीं शान्ति आंसू बिखेर लायेंगे,
मग नहीं युध्द का शमन शर लायेंगे ।
विनयी न विनय को लगा टेर लायेंगे
लायेंगे तो वह दिन दिलेर लायेंगे ।
बोलती बन्द होगी पशु की जब भय से,
उतरेगी भू पर शान्ति छूट संशय से ।
(३०)
वे देश शान्ति के सब से शत्रु प्रबल हैं,
जो बहुत बड़े होने पर भी दुर्बल हैं,
हैं जिनके उदर विशाल, बाँह छोटी हैं,
भोथरे दाँत, पर, जीभ बहुत मोटी हैं ।
औरों के पाले जो अलज्ज पलते हैं,
अथवा शेरों पर लदे हुए चलते हैं ।
(३१)
सिंहों पर अपना अतुल भार मत डालो,
हाथियो ! स्वयं अपना तुम बोझ सँभालो ।
यदि लदे फिरे, यों ही, तो पछताओगे,
शव मात्र आप अपना तुम रह जाओगे ।
यह नहीं मात्र अपकीर्ति, अनय की अति है ।
जानें, कैसे सहती यह दृश्य प्रकृति है !
(३२)
उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है
सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है
विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है
जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है
सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा
पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा!
(३३)
जीवन गति है वह नित अरुद्ध चलता है,
पहला प्रमाण पावक का वह जलता है।
सिखला निरोध-निर्ज्वलन धर्म छलता है,
जीवन तरंग गर्जन है चंचलता है।
धधको अभंग, पल-विपल अरुद्ध जलो रे,
धारा रोके यदि राह विरुद्ध चलो रे।
(३४)
जीवन अपनी ज्वाला से आप ज्वलित है,
अपनी तरंग से आप समुद्वेलित है ।
तुम वृथा ज्योति के लिए कहाँ जाओगे ?
है जहाँ आग, आलोक वहीं पाओगे ।
क्या हुआ, पत्र यदि मृदुल, सुरम्य कली है ?
सब मृषा, तना तरु का यदि नहीं बली है ।
(३५)
धन से मनुष्य का पाप उभर आता है,
निर्धन जीवन यदि हुआ, बिखर जाता है।
कहते हैं जिसको सुयश-कीर्ति, सो क्या है?
कानों की यदि गुदगुदी नहीं, तो क्या है?
यश-अयश-चिन्तना भूल स्थान पकड़ो रे!
यश नहीं, मात्र जीवन के लिये लड़ो रे!
(३६)
कुछ समझ नहीं पड़ता, रहस्य यह क्या है !
जानें, भारत में बहती कौन हवा है !
गमले में हैं जो खड़े, सुरम्य-सुदल हैं,
मिट्टी पर के ही पेड़ दीन-दुर्बल हैं ।
जब तक है यह वैषम्य, समाज सड़ेगा,
किस तरह एक हो कर यह देश लड़ेगा ।
(३७)
सब से पहले यह दुरित-मूल काटो रे !
समतल पीटो, खाइयाँ-खड्ड पाटो रे !
बहुपाद वटों की शिरा-सोर छाँटो रे !
जो मिले अमृत, सब को समान बाँटो रे !
वैषम्य घोर जब तक यह शेष रहेगा,
दुर्बल का ही दुर्बल यह देश रहेगा ।
(३८)
यह बड़े भाग्य की बात ! सिन्धु चंचल है,
मथ रहा आज फिर उसे मन्दराचल है।
छोड़ता व्यग्र फूत्कार सर्प पल-पल है,
गर्जित तरंग, प्रज्वलित वाडवानल है ।
लो कढ़ा जहर ! संसार जला जाता है ।
ठहरो, ठहरो, पीयूष अभी आता है ।
(३९)
पर, सावधान ! जा कहो उन्हें समझा कर,
सुर पुनः भाग जाये मत सुधा चुरा कर ।
जो कढ़ा अमृत, सम-अंश बाँट हम लेंगे,
इस बार जहर का भाग उन्हें भी देंगे ।
वैषम्य शेष यदि रहा, क्षान्ति डोलेगी,
इस रण पर चढ़ कर महा क्रान्ति बोलेगी ।
(४०)
झंझा-झकोर पर चढो, मस्त झूलो रे ।
वृन्तों पर बन पावक-प्रसून फूलो रे ।
दायें-बायें का द्वन्द्व आज भूलो रे ।
सामने पड़े जो शत्रु, शूल हूलो रे ।
वृक हो कि व्याल, जो भी विरुध्द आयेगा,
भारत से जीवित लौट नहीं पायेगा ।
(४१)
निजर पिनाक हर का टंकार उठा है,
हिमवन्त हाथ में ले अंगार उठा है,
ताण्डवी तेज फिर से हुंकार उठा है,
लोहित में था जो गिरा, कुठार उठा है ।
संसार धर्म की नयी आग देखेगा,
मानव का करतब पुन नाग देखेगा।
(४२)
माँगो, माँगो वरदान धाम चारों से,
मन्दिरों, मस्जिदों, गिरजों, गुरुद्वारों से ।
जय कहो वीर विक्रम की, शिवा बली की,
उस धर्मखड़ग, ईश्वर के सिंह, अली की।
जब मिले काल, "जय महाकाल !" बोलो रे ।
सत् श्री अकाल ! सत् श्री अकाल ! बोलो रे ।
(७-१-१९६३)
लेखक :- रामधारी सिंह दिनकर
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