पीपल



कानन का यह तरुवर पीपल 
युग-युग से जम में अचल, अटल
ऊपर विस्तृत नम नील नील नीचे वसुधा में नदी, झील,
जामुन, तमाल, इमली, करील 
जल से ऊपर उठता मृणाल फुनगी पर खिलता कमल लाल
तिर-तिर करते क्रीडा मराल 
ऊंचे टीले से सुधा पर झरती है निर्झरिणी झरझर
हो जाती बूँद-बूँद झर कर

निर्झर के पास खड़ा पीपल सुनता रहता कलकल - छलछल
पल्लव हिलते धालढल - धालढल
पीपल के पढ़े गोल-गोल
कुछ कहते रहते डोल- डोल
जब-जब आता पंछी तरु पर जब जब आता पंछी उड़कर जब-जब खाता फल चुन-चुनकर
पड़ती जब पावस की फुहार बजते जब पंछी के सितार 
बहने लगती शीतल बयार

तब - तब कोमल पल्लव हिल-डुल गाते ससर, मर्मर मंजुल लख-लख, सुन-सुन विह्वल बुलबुल
बुलबुल गाती रहती चह - चह सरिता गाती रहती बह - बह

पसे हिलते रहते रह - रह
जितने भी हैं इसमें कोटर
सब पंछी गिलहरियों के घर 
संध्या को अब दिन जाता ढल सूरज चलते है अस्ताचल 
कर में समेट किरणें उज्ज्वल

हो जाता है सुनसान लोक चल पड़ते घर को चील, कोक आंधियाली संध्या को लोक
भर जाता है कोटर-कोटर बस जाते हैं पत्तों के घर 
घर-घर में आती नींद उतर
निद्रा ही में होता प्रभात, कट जाती है इस तरह रात
फिर वही बात रे वहीं बात
इस वसुधा का यह वन्य प्रान्त 
है दूर, अलग, एकान्त, शान्त

है खड़े जहाँ पर शाल, बाँस, चौपाये चरते नरम घास 
निर्झर, सरिता के आस-पास
रजनी भर रो-रोकर चकोर कर देता है रे रोज भोर 
नाचा करते हैं जहाँ मोर
है वहाँ वल्लरी का बन्धन बन्धन क्या, वह तो आलिंगन 
आलिंगन भी चिर-आलिंगन
बुझती पथिकों की जहाँ प्यास निद्रा लग जाती अनायास 
है वहीं सदा इसका निवास

कवि :- गोपाल सिंह 'नेपाली'

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