शेष गान (रसवन्ती से)

सङ्गिनि, जी भर गा न सका मैं।
    
           (१)

गायन एक व्याज इस मन का,
मूल ध्येय दर्शन जीवन का,
रँगता रहा गुलाब, पटी पर अपना चित्र उठा न सका मैं।

         (२)

इन गीतों में रश्मि अरुण है,
बाल ऊर्म्मि, दिनमान तरुण है, 
बँधे अमित अपरूप रूप, गीतों में स्वयं समा न सका मैं।

           (३)

बँधे सिमट कुछ भाव प्रणय के,
कुछ भय, कुछ विश्वास हृदय के, 
पर, इन से जो परे तत्व वर्गों में उसे बिठा न सका मैं।

         (४)

घूम चुकी कल्पना गगन में,
विजन विपिन, नन्दन - कानन में,
अग-जग घूम थका, लेकिन, अपने घर अब तक आ न सका मैं ।

          (५)

गाता गीत विजय - मद - माता, 
मैं अपने तक पहुँच न पाता,
स्मृति - पूजन में कभी देवता को दो फूल चढ़ा न सका मैं।

         (६)

परिधि - परिधि मैं घूम रहा हूँ 
गन्ध - मात्र से झूम रहा हूँ,
जो अपीत रस - पात्र अचुम्बित, उस पर अधर लगा न सका मैं । 

            (७)

सम्मुख एक ज्योति झिलमिल है, 
हँसता एक कुसुम खिलखिल है,
देख - देख मैं चित्र बनाता, फिर भी चित्र बना न सका मैं ।

        (८)

पट पर पट मैं खींच हटाता,
फिर भी कुछ अदृश्य रह जाता,
यह मायामय भेद कौन ? मन को अबतक समझा न सका मैं ।

                (९)

पल - पल दूर देश है कोई, 
अन्तिम गान शेष है कोई,
छाया देख रहा जिसकी, काया का परिचय पा न सका मैं ।

            ( १० )

उड़े जा रहे पंख पसारे, 
गीत व्योम के कूल - किनारे,
उस अगीत की ओर जिसे प्राणों से कभी लगा न सका मैं ।

               (११)

जिस दिन वह स्वर में आयेगा, 
शेष न फिर कुछ रह जायेगा,
कह कर उसे कहूँगा वह जो अबतक कभी सुना न सका मैं ।

१९३९ ई०
रामधारी सिंह दिनकर

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