नील कुसुम ( नील - कुसुम से )
"है यहाँ तिमिर, आगे भी ऐसा ही तम है,
तुम नील कुसुम के लिए कहाँ तक जाओगे ?
जो गया, आज तक नहीं कभी वह लौट सका,
नादान मर्द ! क्यों अपनी जान गँवाओगे ?
प्रेमिका ? अरे, उन शोख़ बुतों का क्या कहना !
वे तो यों ही उन्माद जगाया करती हैं ;
पुतली से लेतीं बाँध प्राण की डोर प्रथम,
पीछे चुम्बन पर क़ैद लगाया करती हैं।
इनमें से किसने कहा, चाँद से कम लूँगी ?
पर, चाँद तोड़ कर कौन मही पर लाया है ?
किसके मन की कल्पना गोद में बैठ सकी ?
किसका जहाज फिर देश लौट कर आया है ?"
ओ नीतिकार ! तुम झूठ नहीं कहते होगे,
बेकार मगर, पगलों को ज्ञान सिखाना है,
मरने का होगा ख़ौफ़, मौत की छाती में
जिसको अपनी ज़िन्दगी ढूँढ़ने जाना है ?
औ' सुना कहाँ तुमने कि ज़िन्दगी कहते हैं,
सपनों ने देखा जिसे, उसे पा जाने को ?
इच्छाओं की मूर्त्तियाँ घूमतीं जो मन में,
उनको उतार मिट्टी पर गले लगाने को ?
ज़िन्दगी, आह ! वह एक झलक रङ्गीनी की, नङ्गी उँगली जिसको न कभी छू पाती है, हम जभी हाँफते हुए चोटियों पर चढ़ते, वह खोल पंख चोटियाँ छोड़ उड़ जाती है।
रङ्गीनी की वह एक झलक, जिसके पीछे
है मची हुई आपा - आपी मस्तानों में,
वह एक दीप जिसके पीछे हैं डूब रहीं
दीवानों की किश्तियाँ कठिन तूफ़ानों में।
डूबती हुई किश्तियाँ ! और यह किलकारी !
ओ नीतिकार ! क्या मौत इसी को कहते हैं ?
है यही ख़ौफ़, जिससे डरकर जीनेवाले
पानी से अपना पाँव समेटे रहते हैं ?
ज़िन्दगी गोद में उठा - उठा हलराती है
आशाओं की भीषिका झेलनेवालों को ;
औ' बड़े शौक़ से मौत पिलाती है जीवन
अपनी छाती से लिपट खेलनेवालों को।
तुम लाशें गिनते रहे खोजनेवालों की,
लेकिन, उनकी असलियत नहीं पहचान सके;
मुरदों में केवल यही ज़िन्दगीवाले थे
जो फूल उतारे बिना लौट कर आ न सके।
हो जहाँ कहीं भी नील कुसुम की फुलवारी,
मैं एक फूल तो किसी तरह ले जाऊँगा,
जूड़े में जब तक भेंट नहीं यह बाँध सकूँ,
किस तरह प्राण की मणि को गले लगाऊँगा ?
- रामधारी सिंह दिनकर
१९५० ई०
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