पाण्डवों को प्राणदान ( कुरूक्षेत्र से )
गरजा अशङ्क हो कर्ण, शल्य !
देखो कि आज क्या करता हूँ,
कौन्तेय - कृष्ण, दोनों को ही
जीवित किस तरह पकड़ता हूँ।
बस, आज शाम तक यहीं सुयोधन
का जय - तिलक सजा करके,
लौटेंगे हम दुन्दुभि अवश्य
जय की रण - बीच बजा करके।
इतने में, कुटिल नियति - प्रेरित
पड़ गये सामने धर्मराज,
टूटा कृतान्त - सा कर्ण, कोक
पर पड़े टूट जिस तरह बाज़।
लेकिन, दोनों का विषम युद्ध
क्षण भर भी नहीं ठहर पाया,
सह सकी न गहरी चोट युधिष्ठिर
की मुनि - कल्प मृदुल काया ।
भागे वे रण को छोड़, कर्ण ने
झपट दौड़ कर गहा ग्रीव ;
कौतुक से बोला, "महाराज !
तुम तो निकले कोमल अतीव ।
हाँ, भीरु नहीं, कोमल कहकर
ही जान बचाये देता हूँ,
आगे की ख़ातिर एक युक्ति
भी सरल बताये देता हूँ।
हैं विप्र आप, सेविये धर्म
तरु - तले कहीं निर्जन वन में,
क्या काम साधुओं का, कहिये,
इस महाघोर घातक रण में ?
मत कभी क्षात्रता के धोखे
रण का प्रदाह झेला करिये,
जाइये, नहीं फिर कभी गरुड़
की झपटों से खेला करिये ।”
भागे विपन्न हो समर छोड़
ग्लानि में निमज्जित धर्मराज,
सोचते, "कहेगा क्या मन में
जानें, यह शूरों का समाज ।
प्राण ही हरण करके रहने
क्यों नहीं हमारा मान दिया ?
आमरण ग्लानि सहने को ही
पापी ने जीवन - दान दिया।"
समझे न हाय ! कौन्तेय, कर्ण ने
छोड़ दिये किस लिए प्राण,
गरदन पर आकर लौट गयी
सहसा क्यों विजयी की कृपाण ?
लेकिन, अदृश्य ने लिखा, कर्ण ने
वचन धर्म का पाल दिया,
खड्ग का छीन कर ग्रास, उसे
माँ के अंचल में डाल दिया।
कितना पवित्र यह शील ! कर्ण
जब तक भी रहा खड़ा रण में,
चेतनामयी माँ की प्रतिमा
घूमती रही तब तक मन में ।
सहदेव, युधिष्ठिर, नकुल, भीम को
बार - बार बस में लाकर,
कर दिया मुक्त हँस कर उसने
भीतर से कुछ इङ्गित पाकर।
देखता रहा सब शल्य, किन्तु,
जब इसी तरह भागे पवितन,
बोला होकर वह चकित कर्ण की
ओर देख यह परुष वचन,
"रे सूतपुत्र ! किस लिए विकट
यह कालपृष्ठ धनु धरता है ?
मारना नहीं है तो फिर क्यों
वीरों को घेर पकड़ता है ?
संग्राम विजय तू इसी तरह
सन्ध्या तक आज करेगा क्या ?
मारेगा अरियों को कि उन्हें
दे जीवन स्वयं मरेगा क्या ?
रण का विचित्र यह खेल
मुझे तो समझ नहीं कुछ पड़ता है,
कायर ! अवश्य कर याद पार्थ की
तू मन - ही - मन डरता है।"
हँस कर बोला राधेय, "शल्य !
पार्थ की भीति उसको होगी
क्षयमाण, क्षणिक, भंगुर शरीर
पर मृषा प्रीति जिसको होगी।
इस चार दिनों के जीवन को
मैं तो कुछ नहीं समझता हूँ,
करता हूँ वही सदा जिसको
भीतर से सही समझता हूँ ।
पर, ग्रास छीन अतिशय बुभुक्षु
अपने इन बाणों के मुख से,
होकर प्रसन्न हँस देता हूँ
चंचल किस अन्तर के सुख से ;
वह कथा नहीं अन्तःपुर की
बाहर मुख से कहने की है,
यह व्यथा धर्म के वर - समान
सुख - सहित मौन सहने की है।
सब आँख मूँद कर लड़ते हैं
जय इसी लोक में पाने को,
पर, कर्ण जूझता है कोई
ऊँचा सद्धर्म निभाने को।
सबके समेत पङ्किल सर में
मेरे भी चरण पड़ेंगे क्या ?
ये लोभ मृत्तिकामय जग के
आत्मा का तेज हरेंगे क्या ?
यह देह टूटनेवाली है, इस
मिट्टी का कब तक प्रमाण ?
मृत्तिका छोड़ ऊपर नभ में
भी तो ले जाना है विमान।
कुछ जुटा रहा सामान खमण्डल
में सोपान बनाने को,
ये चार फूल फेंके मैने
ऊपर की राह सजाने को।
ये चार फूल हैं मोल किन्हीं
कातर नयनों के पानी के
ये चार फूल प्रच्छन्न दान
हैं किसी महाबल दानी के ।
ये चार फूल, मेरा अदृष्ट था
हुआ कभी जिनका कामी,
ये चार फूल पाकर प्रसन्न
हँसते होंगे अन्तर्यामी ।
समझोगे नहीं शल्य ! इसको,
यह करतब नादानों का है,
यह खेल जीत से बड़े किसी
मक्सद के दीवानों का है।
जानते स्वाद इसका वे ही
जो सुरा स्वप्न की पीते हैं,
दुनिया में रहकर भी दुनिया
से अलग खड़े जो जीते हैं।"
- रामधारी सिंह दिनकर
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