नेता ( नीम के पत्ते से )

नेता ! नेता ! नेता !
क्या चाहिए तुझे रे मूरख ! 
सखा ? बन्धु ? सहचर ? अनुरागी ?
या जो तुझको नचा - नचा मारे

वह हृदय - विजेता ? 
नेता ! नेता ! नेता !

मरे हुओं की याद भले कर, 
किस्मत से फरियाद भले कर,
मगर, राम या कृष्ण लौट कर 
फिर न तुझे मिलनेवाले हैं।
टूट चुकी है कड़ी;
एक तू ही उसको पहने बैठा है।
पूजा के ये फूल फेंक दे, 
अब देवता नहीं होते हैं।
बीत चुके हैं सतयुग द्वापर,
बीत नेता ! चुका है त्रेता। 
नेता ! नेता ! नेता !

नेता का अब नाम नहीं ले, 
अन्धेपन से काम नहीं ले,
हवा देश की बदल गयी है; 
चाँद और सूरज, ये भी अब 
छिपकर नोट जमा करते हैं।
और जानता नहीं अभागे,

मन्दिर का देवता चोर - बाज़ारी में पकड़ा जाता है ? 
फूल इसे पहनायेगा तू ?
अपना हाथ घिनायेगा तू ?

उठ मन्दिर के दरवाज़े से,
ज़ोर लगा खेतों में अपने ; 
नेता नहीं, भुजा करती है
सत्य सदा जीवन के सपने ।
पूजे अगर खेत के ढेले
तो सचमुच, कुछ पा जायेगा,
भीख यांकि वरदान माँगता
पड़ा रहा तो पछतायेगा ।

इन ढेलों को तोड़,
भाग्य इनसे तेरा जगनेवाला है ।
नेताओं का मोह मूढ़ !
केवल तुझको ठगनेवाला है।
लगा जोर अपने भविष्य का बन तू आप प्रणेता । 
नेता ! नेता ! नेता !
                                           - रामधारी सिंह दिनकर

१९५२ ई०

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