खिलेंगे किस दिन मेरे फूल ? (सामधेनी से)
अचेतन मृत्ति, अचेतन शिला।
(१)
रुक्ष दोनों के बाह्य स्वरूप,
दृश्य पट दोनों के श्रीहीन;
देखते एक तुम्हीं वह रूप
जो कि दोनों में व्याप्त, विलीन,
ब्रह्म में जीव, वारि में बूँद,
जलद में जैसे अगणित चित्र ।
(२)
ग्रहण करती निज सत्य - स्वरूप
तुम्हारे स्पर्श मात्र से धूल,
कभी बन जाती घट साकार,
कभी रंजित, सुवासमय फूल ।
और यह शिला - खण्ड निर्जीव,
शाप से पाता- सा उद्धार,
शिल्पि, हो जाता पाकर स्पर्श
एक पल में प्रतिमा साकार ।
तुम्हारी साँसों का यह खेल,
जलद में बनते अगणित चित्र ।
(३)
मृत्ति प्रस्तर, मेघों का पुंज
लिये मैं देख रहा हूँ राह,
कि शिल्पी आयेगा किस रोज़
पूर्ण करने को मेरी चाह ?
खिलेंगे किस दिन मेरे फूल ?
प्रकट होगी कब मूर्त्ति पवित्र ?
और मेरे नभ में किस रोज़
जलद विहरेंगे बनकर चित्र ?
शिल्पि, जो मुझ में व्याप्त, विलीन,
किरण वह कब होगी साकार ?
१९४५ ई०
रामधारी सिंह दिनकर
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