कर्ण- भीष्म-संवाद ( कुरुक्षेत्र से )


गिरि का उदग्र गौरवाधार 
गिर जाय शृङ्ग ज्यों महाकार, 
अथवा सूना कर आसमान 
ज्यों गिरे टूट रवि भासमान,
कौरव- दल का कर तेज हरण 
त्यों गिरे भीष्म आलोकवरण ।

कुरुकुल का दीपित ताज गिरा, 
थक कर बूढ़ा जब बाज़ गिरा, 
भूलुठित पितामह को विलोक, 
छा गया समर में महा शोक,
कुरुपति ही धैर्य न खोता था, 
अर्जुन का मन भी रोता था।

रो- धो कर तेज नया दमका, 
दूसरा सूर्य सिर पर चमका, 
कौरवी तेज दुर्जेय उठा, 
रण करने को राधेय उठा,
सबके रक्षक गुरु आर्य हुए, 
सेनानायक आचार्य हुए।

राधेय किन्तु जिनके कारण 
था अब तक किये मौन धारण, 
उनकी शुभ आशिष पाने को, 
अपना सद्धर्म निभाने को,
वह शर - शय्या की ओर चला, 
पग - पग हो विनय - विभोर चला।

छू भीष्मदेव चरण युगल,
बोला वाणी राधेय सरल,
हे तात ! आपका प्रोत्साहन 
पा सका नहीं जो लांछित जन,
यह वही सामने आया है, 
उपहार अश्रु का लाया है।

आज्ञा हो तो अब धनुष धरूँ ,
रण में चलकर कुछ काम करूँ , 
देखूँ, है कौन प्रलय उतरा,
जिससे डगमग हो रही धरा;
कुरुपति को विजय दिलाऊँ मैं, 
या स्वयं वीर - गति पाऊँ मैं ।

अनुचर के दोष क्षमा करिये,
मस्तक पर वरद पाणि धरिये, 
आख़िरी मिलन की वेला है,
मन लगता बड़ा अकेला है।
मद - मोह त्यांगने आया हूँ,
पद - धूलि माँगने आया हूँ।

भीष्म ने खोल निज सजल नयन, 
देखे कर्ण के आर्द्र लोचन, 
बढ़ खींच पास में ला करके, 
छाती से उसे लगा करके,
बोले - "क्या तत्त्व विशेष बचा !
बेटा, आँसू ही शेष बचा।

मैं रहा रोकता ही क्षण - क्षण,
पर, हाय, हठी यह दुर्योधन, 
अंकुश विवेक का सह न सका, 
मेरे कहने में रह न सका,
क्रोधान्य, भ्रान्त, मद में विभोर,
ले ही आया संग्राम घोर ।

अब कहो, आज क्या होता है ?
किसका समाज यह रोता है ?
किसका गौरव ? किसका सिँगार ? 
जल रहा पंक्ति के आर पार ?
किसका वन बाग़ उजड़ता है ? 
यह कौन मारता - मरता है ?

फूटता द्रोह - दव का पावक
बन जाता सकल समाज नरक, 
सबका वैभव, सबका सुहाग, 
जाती डकार यह कुटिल आग,
जब बन्धु विरोधी होते हैं, 
सारे कुलवासी रोते हैं।

इसलिए, पुत्र ! अब भी रुक कर, 
मन में सोचो, यह महासमर
किस ओर तुम्हें ले जायेगा ?
फल अलभ कौन दे पायेगा ?
मानवता ही मिट जायेगी, 
फिर विजय सिद्धि क्या लायेगी ?

ओ मेरे प्रतिद्वन्द्वी मानी ! 
निश्छल, पवित्र, गुणमय, ज्ञानी !
मेरे मुख से सुन परुष वचन,
तुम वृथा मलिन करते थे मन,
मैं नहीं निरा अवशंसी था,
मन ही मन बड़ा प्रशंसी था।

सो भी इसलिए कि दुर्योधन,
पा सदा तुम्हीं से आश्वासन,
मुझको न मानकर चलता था,
पग - पग पर रूठ मचलता था; 
अन्यथा पुत्र ! तुमसे बढ़कर,
मैं किसे मानता वीर प्रवर ?

पार्थोपम रथी धनुर्धारी,
केशव- समान रणभट भारी,
धर्मज्ञ, धीर, पावन - चरित्र, 
दीनों, दलितों के विहित मित्र ।
अर्जुन को मिले कृष्ण जैसे, 
तुम मिले कौरवों को वैसे ।

पर, हाय, वीरता का सम्बल, 
रह जायेगा धनु ही केवल ?
या शान्ति - हेतु शीतल, शुचि श्रम 
भी कभी करेंगे वीर परम ?
ज्वाला भी कभी बुझायेंगे ?
या लड़कर ही मर जायेंगे ?

चल सके सुयोधन पर यदि वश, 
बेटा ! लो जग में नया सुयश,
लड़ने से बढ़ यह काम करो,
आज ही बन्द संग्राम करो ।
तुम इसे रोक यदि पाओगे,
जन के त्राता कहलाओगे।

जा कहो वीर दुर्योधन से, 
कर दूर द्वेष - विष को मन से,
वह मिले पाण्डवों से जाकर,
मरने दे मुझे शान्ति पाकर;
मेरा अन्तिम वलिदान रहे,
सुख से सारी सन्तान रहे।"

"हे पुरुषसिंह !" कर्ण ने कहा,
'अब और पन्थ क्या शेष रहा ?
संकटापन जीवन - समान
है बीच सिन्धु में महायान,
इस पार शान्ति, उस पार विजय,
अब क्या हो भला नया निश्चय?

जय मिले बिना विश्राम नहीं, 
इस समय सन्धि का नाम नहीं,
आशिष दीजिये विजय कर रण, 
फिर देख सकूँ ये भव्य चरण;
जलयान सिन्धु से तार सकूँ, 
सबको मैं पार उतार सकूँ ।

कलतक था पथ शान्ति का सुगम,
पर, हुआ आज वह अति दुर्गम,
अब उसे देख ललचाना क्या ?
पीछे को पाँव हटाना क्या ?
जय को कर लक्ष्य चलेंगे हम,
अरि - दल का गर्व दलेंगे हम।

हे महाभाग, कुछ दिन जीकर,
देखिये और यह महासमर, 
मुझको भी प्रलय मचाना है,
कुछ खेल नया दिखलाना है;
इस दम तो मुख मोड़िये नहीं, 
मेरी हिम्मत तोड़िये नहीं।

करने दीजिये स्वव्रत पालन, 
अपने महान प्रतिभट से रण, 
अर्जुन का शीश उड़ाना है,
कुरुपति का हृदय जुड़ाना है,
करने को पिता ! अमर मुझको,
है बुला रहा सङ्गर मुझको।"

गाङ्गेय निराशा में भर कर,
बोले - "तब हे नरवीर प्रवर !
जो भला लगे वह काम करो,
जाओ, रण में लड़ नाम करो,
भगवान शमित विष तूर्ण करें, 
अपनी इच्छाएँ पूर्ण करें।"

भीष्म का चरण- वन्दन करके,
ऊपर सूर्य को नमन करके,
देवता वज्र - धनु - धारी - सा,
केसरी अभय मगचारी- सा,
राधेय समर की ओर चला,
करता गर्जन घनघोर चला;

पाकर प्रसन्न आलोक नया, 
कौरव - सेना का शोक गया, 
आशा की नवल तरङ्ग उठी,
जन - जन में नयी उमङ्ग उठी,
मानों, बाणों का छोड़ शयन,
आ गये स्वयं गङ्गानन्दन ।

सेना समग्र हुङ्कार उठी, 
'जय जय राधेय !' पुकार उठी,
उल्लास मुक्त हो छहर उठा, 
रण- जलधि घोष में घहर उठा,
बज उठी समर - भेरी भीषण,
हो गया शुरू संग्राम गहन ।

सागर - सा गर्जित, क्षुभित घोर, 
विकराल दण्डधर - सा कठोर,
अरिदल पर कुपित कर्ण टूटा,
धनु पर चढ़ महामरण छूटा, 
ऐसी पहली ही आग चली,
पाण्डव की सेना भाग चली ।

झंझा की घोर झकोर चली, 
डालों को तोड़ - मरोड़ चली,
पेड़ों की जड़ टूटने लगी,
हिम्मत सबकी छूटने लगी,
ऐसा प्रचण्ड तूफ़ान उठा,
पर्वत का भी हिल प्राण उठा।

प्लावन का पा दुर्जय प्रहार 
जिस तरह काँपती है कगार,
या चक्रवात में यथा कीर्ण
उड़ने लगते पत्ते विशीर्ण,
त्यों उठा काँप थर - थर अरिदल,
मच गयी बड़ी भीषण हलचल।

सब रथी व्यग्र बिललाते थे,
कोलाहल रोक न पाते थे;
सेना को यों बेहाल देख, 
सामने उपस्थित काल देख,
गरजे अधीर हो मधुसूदन,
बोले पार्थ से निगूढ़ वचन ।

"दे अचिर सैन्य को अभयदान,
अर्जुन ! अर्जुन ! हो सावधान।
नहीं जानता है यह क्या,
करता न शत्रु पर कर्ण दया ?
दाहक प्रचण्ड इसका बल है,
यह मनुज नहीं, कालानल है ।

बड़वानल, यम या कालपवन,
करते जब कभी कोप भीषण, 
सारा सर्वस्व न लेते हैं,
उच्छिष्ट छोड़ कुछ देते हैं।
पर, इसे क्रोध जब आता है,
कुछ भी न शेष रह पाता है।

बाणों का अप्रतिहत प्रहार, 
अप्रतिम तेज, पौरुष अपार,
त्यों गर्जन पर गर्जन निर्भय,
आ गया स्वयं सामने प्रलय,
तू इसे रोक भी पायेगा ?
या खड़ा मूक रह जायेगा ?

यह महामत्त मानव - कुंजर,
कैसे अशङ्क हो रहा विचर, 
कर को जिस ओर बढ़ाता है, 
पथ उधर स्वयं बन जाता है,
तू नहीं शरासन तानेगा,
अंकुश किसका यह मानेगा ?

अर्जुन ! विलम्ब पातक होगा, 
शैथिल्य प्राण घातक होगा,
उठ, जाग वीर ! मूढ़ता छोड़,
धर धनुष - बाण अपना कठोर ।
तू नहीं जोश में आयेगा, 
आज ही समर चुक जायेगा।"

केशव का सिंह दहाड़ उठा, 
मानों, चिंग्घार पहाड़ उठा,
बाणों की फिर लग गयी झड़ी,
भागती फौज हो गयी खड़ी ।
जूझने लगे कौन्तेय - कर्ण,
ज्यों लड़ें परस्पर दो सुपर्ण ।

एक ही वृन्त के दो कुड्मल, एक ही कुक्षि के दो कुमार, एक ही वंश के दो भूषण, विभ्राट वीर पर्वताकार, 
बेधने परस्पर लगे सहज - सोदर शरीर में प्रखर बाण, 
दोनों की किंशुक देह हुई, दोनों के पावक हुए प्राण ।

रामधारी सिंह दिनकर

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