साधन और साध्य (कुरूक्षेत्र से )


है वृथा धर्म का किसी समय
करना विग्रह के साथ ग्रथन, 
करुणा से कढ़ता धर्म विमल,
है मलिन पुत्र हिंसा का रण । 
जीवन के परम ध्येय (सुख) को
सारा समाज देखना यही है, 
कौन वहाँ अपनाता है,
तक किस प्रकार से जाता है।

है धर्म पहुँचना नहीं ; धर्म तो
जीवन भर चलने में है,
फैला कर पथ पर स्निग्ध ज्योति
दीपक - समान जलने में है। 
यदि कहें विजय, तो विजय प्राप्त
हो जाती परतापी को भी,
सत्य ही, पुत्र, दारा, धन, जन
मिल जाते हैं पापी को भी ।

इसलिए, ध्येय में नहीं, धर्म तो
सदा निहित साधन में है,
वह नहीं किसी भी प्रधन - कर्म, 
हिंसा, विग्रह या रण में है।
तब भी जो नर चाहते, धर्म 
समझे मनुष्य संहारों को,
गूँथना चाहते वे फूलों के
साथ तप्त अङ्गारों को ।

हो जिसे धर्म से प्रेम, कभी 
वह कुत्सित कर्म करेगा क्या ? 
बर्बर, कराल, दंष्ट्री बन कर
पर, हाय, मनुज के भाग्य अभी
मारेगा और मरेगा क्या ? 
तक भी खोटे के खोटे हैं,
हम बढ़े बहुत बाहर, भीतर 
लेकिन, छोटे के छोटे हैं।

संग्राम धर्मगुण का विशेष्य
किस तरह भला हो सकता है ?
कैसे मनुष्य अङ्गारों से
अपना प्रदाह धो सकता है ?
सर्पिणी - उदर से जो निकला,
पीयूष नहीं दे पायेगा,
निश्छल होकर संग्राम धर्म का
साथ न कभी निभायेगा ।

मानेगा यह दंष्ट्री कराल
विषधर भुजङ्ग किसका यन्त्रण ? 
पल - पल असि को कर धर्म सिक्त
नर कभी जीत पाया है रण ?
जो ज़हर हमें बरबस उभार
संग्राम - भूमि में लाता है,
सत्पथ से कर विचलित अधर्म
की ओर वही ले जाता है।

साधन को भूल सिद्धि पर जब
टकटकी हमारी लगती है, 
फिर विजय छोड़ भावना और
कोई न हृदय में जगती है। 
तब जो भी आते विघ्न - रूप,
हों धर्म, शील या सदाचार, 
एक ही सदृश हम करते हैं
सबके सिर पर पाद - प्रहार ।

उतनी भी पीड़ा हमें नहीं
होती है इन्हें कुचलने में,
जितनी होती है रोज कङ्कड़ों
के ऊपर हो चलने में । 
सत्य ही, ऊर्ध्व - लोचन कैसे
नीचे मिट्टी का ज्ञान करे ?
जब बड़ा लक्ष्य हो खींच रहा,
छोटी बातों का ध्यान करे ?

चलता हो अन्ध ऊर्ध्वलोचन,
जानता नहीं, क्या करता है; 
नीचे पथ में है कौन, पाँव
जिसके मस्तक पर धरता है।
काटता शत्रु को वह लेकिन,
साथ ही, धर्म कट जाता है, 
फाड़ता विपक्षी को, अन्तर
मानवता का फट जाता है।

वासना - वह्नि से जो निकला,
कैसे हो वह संयुग कोमल ?
देखने हमें देगा वह क्यों,
करुणा का पन्थ सुगम शीतल ?
जब लोभ सिद्धि का आँखों पर
माँड़ी बन कर छा जाता है,
तब वह मनुष्य से बड़े- बड़े
दुश्चिन्त्य कृत्य करवाता है।

फिर क्या विस्मय, कौरव - पाण्डव
भी नहीं धर्म के साथ रहे ?
जो रङ्ग युद्ध का है, उससे 
उनके भी अलग न हाथ रहे ।
दोनों ने कालिख छुयी, शीश
पर जय का तिलक लगाने को,
सत्पथ से दोनों डिगे, दौड़
कर विजय - विन्दु तक जाने को ।

                                         - रामधारी सिंह दिनकर

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