बूढ़ी पृथ्वी का दुख



क्या तुमने कभी सुना है।
सपनों में चमकती कुल्हाड़ियों के भय से
पेड़ों की चीत्कार?

कुल्हाड़ियों के वार सहते
किसी पेड़ को हिलती टहनियों में
दिखाई पड़े हैं तुम्हें
बचाव के लिए पुकारते हजारों-हजार हाथ

क्या होती है, तुम्हारे भीतर धमस 
कटकर गिरता है जब कोई पेड़ भरती पर?

सुना है कभी
रात के सन्नाटे में अंधरे से मुँह ढांप 
किस कदर रोती हैं नदियाँ ?

इस घाट अपने कपड़े और मवेशियाँ धोते 
सोचा है कभी कि उस घाट 
पी रहा होगा कोई प्यासा पानी
या कोई स्त्री चढ़ा रही होगी किसी देवता की अध्य?

कभी महसूस किया कि किस कदर दहलता है।
मौन समाधि लिये बैठा पहाड़ का सीना
विस्फोट से टूटकर जब छिटकता दूर तक कोई पत्थर ?
सुनाई पड़ी है कभी भरी दुपहरिया में 
हथौड़ों की चोट से टूटकर बिखरते पत्थरों की चीख?

खून की उल्टियाँ करते
देखा है कभी हवा को, अपने घर के पिछवाड़े?

थोड़ा-सा वक्त चुराकर बतियाया है कभी 
कभी शिकायत न करनेवाली 
गुमसुम बूढ़ी पृथ्वी से उसका दुख?

अगर नहीं, तो क्षमा करना! 
मुझे तुम्हारे आदमी होने पर सन्देह है !!

कवि :-  निर्मला पुतुल

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