अहिंसा और शान्ति ( कुरूक्षेत्र से )

            [ भीष्म की उक्ति ]

समर निन्द्य है धर्मराज, पर, कहो शान्ति वह क्या है,
जो अनीति पर स्थित होकर भी बनी हुई सरला है ? 
सुख- समृद्धि का विपुल कोष संचित कर कल, बल, छल से, 
किसी क्षुधित का ग्रास छीन, धन लूट किसी निर्बल से,

सब समेट, प्रहरी बिठला कर कहती, 'कुछ मत बोलो,
शान्ति - सुधा बह रही, न इसमें गरल क्रान्ति का घोलो । हिलो - डुलो मत, हृदय - रक्त अपना मुझको पीने दो,
अचल रहे साम्राज्य शान्ति का, जियो और जीने दो।'

सच है, सत्ता सिमट - सिमट जिनके हाथों में आई, शान्तिभक्त वे साधु पुरुष क्यों चाहें कभी लड़ाई ?
सुख का सम्यक् - रूप विभाजन जहाँ नीति से, नय से - सम्भव नहीं; अशान्ति दबी हो जहाँ खड्ग के भय से ;

जहाँ पालते हों अनीति - पद्धति को सत्ताधारी, 
जहाँ सूत्रधर हों समाज के अन्यायी, अविचारी; 
नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के जहाँ न आदर पायें;
जहाँ सत्य कहनेवालों के शीश उतारे जायें;

जहाँ खड्ग - बल एकमात्र आधार बने शासन का ; 
दबे क्रोध से भभक रहा हो हृदय जहाँ जन-जन का ; 
सहते - सहते अनय जहाँ मर रहा मनुज का मन हो;
समझ कापुरुष अपने को धिक्कार रहा जन-जन हो;

अहङ्कार के साथ घृणा का जहाँ द्वन्द्व हो जारी; 
ऊपर शान्ति तलातल में हो छिटक रही चिनगारी ; 
दबे हुए आवेग वहाँ यदि उबल किसी दिन फूटें, 
संयम छोड़ काल बन मानव अन्यायी पर टूटें ;

कहो, कौन दायी होगा उस दारुण जगद्दहन का ? अहङ्कार या घृणा ? कौन दोषी होगा उस रण का ? 
तुम विषण्ण हो समझ, हुआ जगदाह तुम्हारे कर से, 
सोचो तो, क्या अग्नि समर की बरसी थी अम्बर से ?

अथवा अकस्मात्, मिट्टी से फूटी थी यह ज्वाला ? 
या मन्त्रों के बल से जन्मी थी यह शिखा कराला ? 
कुरुक्षेत्र के पूर्व नहीं क्या समर लगा था चलने ? 
प्रतिहिंसा का दीप भयानक हृदय - हृदय में बलने ?

शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का जब वर्जन करती है, तभी जान लो, किसी समर का वह सर्जन करती है। 
शान्ति नहीं तबतक जबतक सुख- भाग न नर का सम हो, नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो ।

ऐसी शान्ति राज्य करती है तन पर नहीं, हृदय पर, 
नर के ऊंचे विश्वासों पर श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर । 
न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है, जबतक न्याय न आता, जैसा भी हो, महल शान्ति का सुदृढ़ नहीं रह पाता ।

कृत्रिम शान्ति सशङ्क आप अपने से ही डरती है, 
खड्ग छोड़ विश्वास किसी का कभी नहीं करती है। 
और जिन्हें इस शान्ति - व्यवस्था में सुख - भोग सुलभ है, उनके लिए शान्ति ही जीवन - सार, सिद्धि दुर्लभ है। 

पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर, शोणित पीकर तन का, जीती है यह शान्ति, दाह समझो कुछ उनके मन का। स्वत्व माँगने से न मिलें, सङ्घात पाप हो जायें, 
बोलो धर्मराज, शोषित वे जिये या कि मिट जायें।

न्यायोचित अधिकार माँगने से न मिलें तो लड़के, 
तेजस्वी छीनते समर को जीत, या कि खुद मरके । 
किसने कहा, पाप है समुचित स्वत्व - प्राप्ति - हित लड़ना ?
उठा न्याय का खड्ग समर में अभय मारना - मरना ?

क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल की दे वृथा दुहाई,
धर्मराज, व्यंजित करते तुम मानव की कदराई । 
हिंसा का आघात तपस्या ने कब, कहाँ सहा है ? 
देवों का दल सदा दानवों से हारता रहा है।

मनःशक्ति प्यारी थी तुमको यदि पौरुषज्वलन से, 
लोभ किया क्यों भरत - राज्य का ? फिर आये क्यों वन से ? 
पिया भीम ने गरल, लाक्षगृह जला, हुए वनवासी,
केशकर्षिता प्रिया सभा - सम्मुख कहलायी दासी ।

क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, सबका लिया सहारा,
पर, नर - व्याघ्र सुयोधन तुमसे कहो, कहाँ, कब हारा ? क्षमाशील हो रिपु- समक्ष तुम हुए विनत जितना ही, 
दुष्ट कौरवों ने तुमको कायर समझा उतना ही।

अत्याचार सहन करने का कुफल यही होता है, 
पौरुष का आतङ्क मनुज कोमल होकर खोता है। 
क्षमा शोभती उस भुजङ्ग को जिसके पास गरल हो, उसको क्या जो दन्तहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो ?

तीन दिवस तक पन्थ माँगते रघुपति सिन्धु - किनारे, 
बैठे पढ़ते रहे छन्द अनुनय के प्यारे प्यारे ।
उत्तर में जब एक नाद भी उठा नहीं सागर से, 
उठी अधीर धधक पौरुष की आग राम के शर से।

सिन्धु देह घर 'त्राहि - त्राहि करता आ गिरा शरण में, 
चरण पूज, दासता ग्रहण की, बँधा मूढ़ बन्धन में। 
सच पूछो तो शर में ही बसती है दीप्ति विनय की, 
सन्धि - वचन सम्पूज्य उसीका जिसमें शक्ति विजय की।

सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है, 
बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है। 
जहाँ नहीं सामर्थ्य शोध की, क्षमा वहाँ निष्फल है, 
गरल - घूँट पी जाने का मिस है, वाणी का छल है। 

फलक क्षमा का ओढ़ छिपाते जो अपनी कायरता, 
वे क्या जानें ज्वलित - प्राण नर की पौरुष - निर्भरता ? 
वे क्या जानें नर में वह क्या असहनशील अनल है, 
जो लगते ही स्पर्श हृदय से सिर तक उठता बल है ?

जिनकी भुजाओं की शिराएँ फड़की ही नहीं,
जिनके लहू में. नहीं वेग है अनल का; 
शिव का पदोदक ही पेय जिनका है रहा,
चक्खा ही जिन्होंने नहीं स्वाद हलाहल का ;
जिनके हृदय में कभी आग सुलगी ही नहीं, 
ठेस लगते ही अहङ्कार नहीं छलका;
जिनको सहारा नहीं भुज के  प्रताप का है, 
बैठते भरोसा किये वे ही आत्मबल का।

उसकी सहिष्णुता, क्षमा का हे महत्त्व ही क्या 
करना ही आता नहीं जिसको प्रहार है ? 
करुणा, क्षमा को छोड़ और क्या उपाय उसे 
ले न सकता जो वैरियों से प्रतीकार है ?  
सहता प्रहार  कोई विवश, कदर्य जीव
जिसकी नसों में नहीं पौरुष की धार है।
करुणा, क्षमा हैं, क्लीव जाति के कलङ्क घोर, 
क्षमता क्षमा की शूर - वीरों का सिंगार है।

प्रतिशोध से हैं होती शौर्य की शिखाएँ दीप्त, 
प्रतिशोध - हीनता नरों में महापाप है,
छोड़ प्रतिवैर पीते मूक अपमान वे ही
जिनमें न शेष शूरता का वह्नि- ताप है ;
चोट खा सहिष्णु व' रहेगा किस भाँति, तीर -
जिसके निषङ्ग में, करों में दृढ़ चाप है; 
जेता के विभूषण सहिष्णुता क्षमा हैं, किन्तु,
हारी हुई जाति की सहिष्णुताऽभिशाप है।

धर्म है हुताशन कोई क्यों प्रचण्ड - उठे तुरन्त, 
कोई क्यों प्रचण्ड - वेग वायु को बुलाता है ?
फूटेगा कराल कण्ठ ज्वालामुखियों का ध्रुव,
आनन पर बैठ विश्व धूम क्यों मचाता है?
फूँक से जलायेगा अवश्य जगती को व्याल,
कोई क्यों खरोंच मार उसको जगाता है ?
विद्युत् खगोल से अवश्य ही गिरेगी कोई,
दीप्त अभिमान को क्यों ठोकर लगाता है ?

युद्ध को बुलाता है अनीति- ध्वजधारी या कि
वह जो अनीति - भाल पे दे पाँव चलता ?

वह जो दबा है शोषणों के भीम शैल से या 
वह जो खड़ा है मग्न  - हँसता मचलता ? 
वह जो बना के शान्ति - व्यूह सुख लूटता या
वह जो अशान्त हो क्षुधानल से जलता ? 
कौन है बुलाता युद्ध ? जाल  जो बनाता ? 
या जो जाल तोड़ने को क्रुद्ध काल - सा निकलता ?

पातकी न होता है प्रबुद्ध दलितों का खड्ग, 
पातकी बताना उसे दर्शन की भ्रान्ति है; 
शोषण की श्रृंखला के हेतु बनती जो शान्ति,
युद्ध है, यथार्थ में, व' भीषण अशान्ति है;
सहना उसे हो मौन हार मनुजत्व की है, 
ईश की अवज्ञा घोर, पौरुष की श्रान्ति है; 
पातक मनुष्य का है, मरण मनुष्यता का,
ऐसी श्रृंखला में धर्म विप्लव है, क्रान्ति है।

भूल रहे हो धर्मराज, तुम अभी हिंस्र भूतल है, 
खड़ा चतुर्दिक, अहङ्कार है, खड़ा चतुर्दिक्, छल है।
मैं भी हूँ सोचता, जगत से कैसे उठे जिघांसा, 
किस प्रकार फैले पृथिवी पर करुणा, प्रेम, अहिंसा ।

जियें मनुज किस भाँति परस्पर होकर भाई- भाई, 
कैसे रुके प्रदाह क्रोध का, कैसे रुके लड़ाई। 
पृथ्वी हो साम्राज्य स्नेह का, जीवन स्निग्ध, सरल हो,
मनुज - प्रकृति से विदा सदा को दाहक द्वेष- गरल हो ।

बहे प्रेम की धार, मनुज को वह अनवरत भिगोंये, 
एक दूसरे के उर में नर बीज प्रेम के बोये ।

किन्तु, हाय, आधे पथ तक ही पहुंच सका यह जग है, अभी शान्ति का स्वप्न दूर नभ में करता जगमग है।

भूले - भटके ही, पृथ्वी पर वह आदर्श उतरता, 
किसी युधिष्ठिर के प्राणों में ही स्वरूप है धरता। 
किन्तु, द्वेष के शिला - दुर्ग से बार - बार टकरा के, 
रुद्ध मनुज के मनोदेश के लौह-द्वार को पा के;

घृणा, कलह, विद्वेष, विविध तापों से आकुल होकर,
हो जाता उड्डीन एक - दो का ही हृदय भिगो कर । 
क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन अगणित अभी यहाँ हैं,
बढ़े शान्ति की लता हाय, वे पोषक द्रव्य कहाँ है ?

शान्ति- बीन तब तक बजती है नहीं सुनिश्चित सुर में, 
स्वर की शुद्ध प्रतिध्वनि जब तक उठे नहीं उर - उर में। 
यह न बाह्य उपकरण, भार बन जो आवे ऊपर से, 
आत्मा की यह ज्योति, फूटती सदा विमल अन्तर से ।

शान्ति नाम उस रुचिर सरणि का, जिसे प्रेम पहचाने,
खड्ग - भीत तन ही न, मनुज का मन भी जिसको माने । शिवा - शान्ति की मूर्ति नहीं बनती कुलाल के गृह में ;
सदा जन्म लेती वह नर के मनःप्रान्त निस्पृह में।

गरल - द्रोह - विस्फोट - हेतु का करके सफल निवारण,
मनुज - प्रकृति ही करती शीतल रूप शान्ति का धारण। जब होती अवतीर्ण शान्ति यह, भय न शेष रह जाता, शङ्का – तिमिर- ग्रस्त फिर कोई नहीं देश रह जाता।

शान्ति ! सुशीतल शान्ति ! कहाँ वह समता देनेवाली ? देखो, आज विषमता की ही वह करती रखवाली।

आनन सरल, वचन मधुमय है, तन पर शुभ्र वसन है, 
बचो युधिष्ठिर! इस नागिन का विष से भरा दशन है।

यह रखती परिपूर्ण नृपों से जरासन्ध की कारा, 
शोणित कभी, कभी पीती है तप्त अश्रु की धारा। 
कुरुक्षेत्र में जली चिता जिसकी, वह शान्ति नहीं थी ; अर्जुन की धन्वा चढ़ बोली, वह दुष्क्रान्ति नहीं थी।

थी परस्वग्रासिनी भुजङ्गिनि, वह जो जली समर में, असहनशील शौर्य था, जो बल उठा पार्थ के शर में । 
नहीं हुआ स्वीकार शान्ति को जीना जब कुछ देकर,
टूटा पुरुष काल - सा उस पर प्राण हाथ में लेकर ।

पापी कौन ? मनुज से उसका न्याय चुरानेवाला ? 
याकि न्याय खोजते विघ्न का शीश उड़ानेवाला ?

                                           -  रामधारी सिंह दिनकर

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