राष्ट्रकवि_रामधारी_सिंह_दिनकर के जीवन का अनुभव और उनके काव्य दास्तां


मैंने जब कविता लिखना आरम्भ किया, उस समय छायावाद अपने परिपाक के पास पहुँच चुका था और साहित्य में समीक्षा की भारतीय शैली के साथ उसकी पाश्चात्य शैली का भी प्रचलन होने लगा था। प्रत्युत्, कहना चाहिए कि रस और अलङ्कार-शास्त्र पर अवलम्बित रहने की बात तब तक ढीली पड़ने लगी थी और कविगण अधिकाधिक पाश्चात्य समीक्षा के सिद्धान्त से प्रभाव ग्रहण करने लगे थे।

कला का प्रत्येक नया आन्दोलन कला-सम्बन्धी धारणाओं में परिवर्तन उपस्थित करता है और साहित्य में जब भी नये कवियों का उत्थान होता है तब उनके पीछे आनेवाली आलोचना भी नवीन हो उठती है। छायावाद के आविर्भाव के पूर्व हिन्दी में आलोचना की जो परिपाटी थी, छायावाद के आगमन के बाद वह बदलने लगी और कविताओं का अध्ययन उस पद्धति से किया जाने लगा जो पाश्चात्य आलोचना की पद्धति थी। वैसे तो पाश्चात्य समीक्षा पद्धतियों की चर्चा हिन्दी में द्विवेदी-युग में अथवा उससे कुछ पूर्व ही आरम्भ हो गयी थी, किन्तु, जिसे, सचमुच साथ होना कहते हैं, उस अर्थ में पाश्चात्य आलोचना द्विवेदी-युग के बाद ही हिन्दी कविता के साथ हुई।

इसी प्रकार, जो कविता द्विवेदी-युग के बाद प्रचलित हुई, वह हिन्दी के लिए नवीन तो थी, किन्तु उस दिशा में भी संकेत छायावाद-युग के पूर्व से ही मिलने लगे थे। ये संकेत मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, मुकुटधर पाण्डेय, जगमोहन सिंह और श्रीधर पाठक में ही नहीं, प्रत्युत्, कहीं-कहीं भारतेन्दु और उनसे भी पूर्व घनानन्द में मिलते हैं। किन्तु, इतना होने पर भी, छायावाद यदि पूर्वयुगों से भिन्न मालूम होता है तो इसका एक बड़ा कारण यह है कि भारतेन्दु के बाद हिन्दी कविता की भाषा बदल गयी। यदि घनानन्द ने खड़ी बोली में लिखा होता तो सरलता से वे छायावाद के पूर्व पुरुष मान लिये गये होते । किन्तु, यह नहीं हुआ। कुछ तो कविता की भाषा बदल जाने के कारण और कुछ पाश्चात्य प्रभावों के, प्रायः, सहसा ही पुंजीभूत हो उठने के कारण छायावाद-काल की कविता ने ऐसा रूप ले लिया जो उसे पूर्व-युगों से भिन्न कर देता है। फिर भी, जो नियम अन्य भाषाओं में घटित होनेवाली साहित्यिक क्रान्तियों पर लागू होते हैं, हिन्दी भाषा की साहित्यिक क्रान्तियाँ उनका सर्वथा अपवाद नहीं हैं।

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मैंने जब कविता लिखना आरम्भ किया, उस समय छायावाद अपने परिपाक के पास पहुँच चुका था और साहित्य में समीक्षा की भारतीय शैली के साथ उसकी पाश्चात्य शैली का भी प्रचलन होने लगा था। प्रत्युत्, कहना चाहिए कि रस और अलङ्कार-शास्त्र पर अवलम्बित रहने की बात तब तक ढीली पड़ने लगी थी और कविगण अधिकाधिक पाश्चात्य समीक्षा के सिद्धान्त से प्रभाव ग्रहण करने लगे थे।

कला का प्रत्येक नया आन्दोलन कला-सम्बन्धी धारणाओं में परिवर्तन उपस्थित करता है और साहित्य में जब भी नये कवियों का उत्थान होता है तब उनके पीछे आनेवाली आलोचना भी नवीन हो उठती है। छायावाद के आविर्भाव के पूर्व हिन्दी में आलोचना की जो परिपाटी थी, छायावाद के आगमन के बाद वह बदलने लगी और कविताओं का अध्ययन उस पद्धति से किया जाने लगा जो पाश्चात्य आलोचना की पद्धति थी। वैसे तो पाश्चात्य समीक्षा पद्धतियों की चर्चा हिन्दी में द्विवेदी-युग में अथवा उससे कुछ पूर्व ही आरम्भ हो गयी थी, किन्तु, जिसे, सचमुच साथ होना कहते हैं, उस अर्थ में पाश्चात्य आलोचना द्विवेदी-युग के बाद ही हिन्दी कविता के साथ हुई।

इसी प्रकार, जो कविता द्विवेदी-युग के बाद प्रचलित हुई, वह हिन्दी के लिए नवीन तो थी, किन्तु उस दिशा में भी संकेत छायावाद-युग के पूर्व से ही मिलने लगे थे। ये संकेत मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, मुकुटधर पाण्डेय, जगमोहन सिंह और श्रीधर पाठक में ही नहीं, प्रत्युत्, कहीं-कहीं भारतेन्दु और उनसे भी पूर्व घनानन्द में मिलते हैं। किन्तु, इतना होने पर भी, छायावाद यदि पूर्वयुगों से भिन्न मालूम होता है तो इसका एक बड़ा कारण यह है कि भारतेन्दु के बाद हिन्दी कविता की भाषा बदल गयी। यदि घनानन्द ने खड़ी बोली में लिखा होता तो सरलता से वे छायावाद के पूर्व पुरुष मान लिये गये होते । किन्तु, यह नहीं हुआ। कुछ तो कविता की भाषा बदल जाने के कारण और कुछ पाश्चात्य प्रभावों के, प्रायः, सहसा ही पुंजीभूत हो उठने के कारण छायावाद-काल की कविता ने ऐसा रूप ले लिया जो उसे पूर्व-युगों से भिन्न कर देता है। फिर भी, जो नियम अन्य भाषाओं में घटित होनेवाली साहित्यिक क्रान्तियों पर लागू होते हैं, हिन्दी भाषा की साहित्यिक क्रान्तियाँ उनका सर्वथा अपवाद नहीं हैं।

साहित्य में प्रत्येक युग अपने पूर्ववर्ती युग के अनुभवों से शिक्षा लेकर आगे बढ़ता है और समाप्त होते-होते आगामी युग के लिए अपने अनुभवों का निचोड़ छोड़ जाता है। एक युग से दूसरे युग का यह जो क्रिया या प्रतिक्रिया का सम्बन्ध है उसके उदाहरण अपने साहित्य में, कम-से-कम, रीतिकाल से स्पष्ट मिलने लगते हैं।

हिन्दी में रीतिकाल की जितनी निन्दा हुई है, उतनी किसी और काल की नहीं। फिर भी, यह ध्यान देने की बात है कि पाश्चात्य जगत् में कविता की जो कसौटी आज मान पा रही है, उस पर हिन्दी के सभी कालों को कसें, तो, कदाचित्, रीतिकाल अन्य सभी कालों से श्रेष्ठ सिद्ध हो जाएगा। क्योंकि हिन्दी का आदिकाल कला के लँगड़ाने का काल था और भक्तिकाल में, यद्यपि, विद्यापति, सूरदास, मीरा और तुलसीदास, सभी नियमों के अपवाद होने के कारण, आलोचना की नोंक से परे हो जाते हैं, किन्तु, शेष, कवियों के विषय में यह कहा जा सकता है कि उन्होंने कला नहीं, धर्म और सदाचार की सेवा की है। किन्तु इस कसौटी पर रीतिकाल का विरला ही कवि होगा जो खण्डित किया जा सके। आज की आलोचना की भाषा में यदि रीतिकालीन कवियों की काव्यसम्बन्धी धारणाओं को समेटा जाए तो सूत्र यह बनेगा कि कविता में वस्तु चाहिए, विचार नहीं तथा काव्य की शोभा के मुख्य कारण उसमें उठनेवाले चित्र होते हैं और ये चित्र शारीरिक होते हैं जिन्हें मन की आँखें स्पष्टता से देख सकें । यदि चित्रकारी कविता का अन्यतम गुण है तो यह मानने में तनिक भी कठिनाई नहीं रह जाती कि रीतिकाल हिन्दी कविता का अन्यतम काल था ।

आलोचकों का जो सम्प्रदाय चित्रकारी को कविता का सबसे बड़ा गुण मानता है, उसे रीतिकाल की निन्दा करने में कठिनाई होगी। इसी प्रकार, जो आलोचक यह मानते हैं कि कविता विचार नहीं, केवल भाव है, वे भी अपने सिद्धान्तों में परिवर्तन किये बिना, रीतिकालीन कविता की निन्दा करने में कठिनाई अनुभव करेंगे। किन्तु, हिन्दी में रीतिकाल की निन्दा हुई और इतनी हुई जितनी किसी और काल की नहीं हुई है। और यह निन्दा स्वामी दयानन्द के समय में आकर ही नहीं, प्रत्युत्, उससे पूर्व ही आरम्भ हो गयी थी। कदाचित् कवियों की संख्या वृद्धि से अथवा कविता के स्फीत (इंफ्लेटेड) हो जाने से "ठाकुर" अपने युग से अप्रसन्न हो गये और उन्होंने काव्य-रचना को सस्ता प्रयास मान कर कवियों की पंक्ति में दौड़ कर सम्मिलित होनेवाले लोगों को लक्ष्य करके कहा कि

डेल सों बनाय आय डालत सभा के बीच
लोगन कवित्त कीवो खेल करि जानो है ।

उसी काल के एक अन्य कवि अपने समकालीन कवियों से इसलिए अप्रसन्न हो उठे कि कविगण अपनी प्रतिभा का सारा चमत्कार नारी-मूर्ति की रचना में दिखा रहे थे। इस कवि ने कवियों को असत्यवादी कहा है और उनके इस दावे का मज़ाक़ उड़ाया है कि

हम सरस्वती के प्यारे बेटे हैं,

एती झूठी जुगुती बनावै औ' कहावै कवि,
ताहू पै कहै कि हमें सारदा को वर है ।

इन दो आलोचनाओं से इस बात का कुछ थोड़ा-सा आभास मिलता है कि रीतिकाल के अन्तिम चरण आकर कविगण स्वयं यह सोचने लगे थे कि कविता की स्थिति ठीक नहीं है, उसमें कुछ-न-कुछ सुधार या परिवर्तन होना चाहिए। और इन दो कवियों के असन्तोष का कारण यह नहीं दीखता कि कविता में चित्रों की भरमार हो गयी थी, प्रत्युत्, यह कि कविता के विषय सिमट कर नारी-अङ्गों पर आ टिके थे और दीर्घकाल तक एक ही प्रकार के रूपकों और उपमाओं के प्रयुक्त होने से काव्य में नवीनता बहुत कम रह गयी थी ।

मात्र नारी- मूर्ति के चारों ओर चक्कर काटने में जो ग्लानि या कलङ्क है, उसका ज्ञान तो हिन्दी - कवियों को स्वामी दयानन्द के पवित्रतावादी आन्दोलन के बाद ही हुआ, किन्तु, उससे पूर्व भी वे कविता की प्रचलित धारा से असन्तुष्ट होने लगे थे। रीतिकाल की सबसे बड़ी आलोचना, कदाचित् यह है कि उसके ठीक बाद आनेवाले महाकवि भारतेन्दु ने अपना स्वर रीतिकाल से न मिला कर भक्तिकाल से मिलाया जो रीतिकाल के ठीक उस पार पड़ता है। रीतिकाल शुद्ध कला का काल था, उसमें विचारों की नहीं, केवल भावों की प्रधानता थी, वह अमिश्रित अथवा खाँटी कविता का काल था एवं उसके कवियों ने कारीगरी का इतना अच्छा उपयोग किया जितना और किसी काल के कवि नहीं कर पाये थे। आज की आलोचना के अनुसार, ये सारे गुण शुद्ध कविता के गुण हैं। फिर भी; ये गुण रीतिकाल को निन्दित होने से न बचा सके। इस स्थिति से दो शिक्षाएँ निकलती हैं। पहली तो यह कि साहित्य की धारा बराबर परिवर्तित होना चाहती है और दूसरी यह कि चित्र और भाव चाहे जितने भी बड़े गुण हों, किन्तु, विचारों का आधार लिये बिना, बहुधा, सुन्दर साहित्य भी निष्प्राण हो जाता है ।

रीतिकाल के ठीक बादवाले काल में हिन्दी भाषी क्षेत्रों में जो सबसे बड़ी सांस्कृतिक घटना घटी वह स्वामी दयानन्द का पवित्रतावादी प्रचार था। जब स्वामी जी का आविर्भाव हुआ, उसके पूर्व ही, यह देश दासता की जंजीरों में भलीभाँति कस चुका था और अब इस विवश देश को यूरोपीय सभ्यता अपने रस की सूई पर सूई दिये जा रही थी। स्वामी जी इस अन्याय का विरोध करने को आये थे, अतएव, उन्होंने भारतीय मानवता को वीरता और ब्रह्मचर्य का सन्देश दिया, संयम और सदाचार की शिक्षा दी, बुद्धिवाद और विवेक का उपदेश दिया। वे देश को पौराणिक संस्कार, रहस्यवाद, शृङ्गारिकता और रसिकता की छाया से निकाल कर बल और बुद्धिवाद की धूप में खड़ा करना चाहते थे। परिणाम यह हुआ कि ज्यों-ज्यों उनके उपदेश हिन्दी-भाषी जनता के हृदय में बसते गये, त्यों-त्यों, साहित्य का वह आदर्श निन्दित होता गया जिसे रीतिकाल के कवियों ने अपने सामने रखा था। भारतेन्दु ने रीतिकाल की निन्दा में कहीं कुछ कहा है या नहीं, इसका उदाहरण मुझे याद नहीं आता, किन्तु, पं० प्रतापनारायण मिश्र की 'केवल सुमुखि अलक उपमा लहि नाग-देवता तृप्यंताम्' में रीतिकालीन प्रवृत्ति पर स्पष्ट व्यंग्य है। एक समय पण्डित मदन मोहन मालवीय जी भी कविताएँ लिखते थे। एवं उनके भी एक सवैये में रीतिकालीन काव्य की प्रवृत्ति पर चोट है :----

भारत चारहुँ ओर दुखी दुख भोगत बीति गे वर्ष हजारन । ध्यान रतीक दियो चहिये दुख कौन उपाय सों होय निवारन ।
सो सब दूरि रहै 'मकरन्द' समै इन बातन में किहि कारन । होय सो होय इहाँ नहि भूलनौ राधिका रानी कदम्ब की डारन ।

कभी-कभी यह सोचने पर कि यदि भारत में यूरोप का आगमन न हुआ होता अथवा यदि स्वामी दयानन्द उस समय न आये होते जब उनका आगमन हुआ, तो रीतिकाल के बाद हिन्दी कविता किस ओर को जाती, मुझे ऐसा लगता है कि वह या तो उधर को जाती जिस ओर जाने का संकेत उसे घनानन्द ने दिया था; अथवा उस ओर को जिधर उसे भक्त भारतेन्दु ले जा रहे थे। और सच पूछिए तो भक्त भारतेन्दु और प्रेमी घनानन्द, ये एक ही दिशा की ओर इङ्गित करते हैं जो दिशा विचारों नहीं, भावों की दिशा है, जो दिशा प्रचार नहीं, मात्र आनन्द की दिशा है। देशभक्त भारतेन्दु की कविता में जो विचार उतरे हैं, वे भारत-यूरोप सङ्घर्ष के परिणाम हैं, वे इस नवीन प्रेरणा से उद्धृत विचार हैं कि जब देश अथवा मनुष्यता पर सङ्कट आया हो तब कवि को भी मात्र आनन्द-सृजन को छोड़ कर समाजोपयोगी ध्येयों की प्राप्ति में लग जाना चाहिए। शुद्ध कलावादियों की भाषा में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि रीतिकाल के बाद की हिन्दी कविता कला की पराजय और जीवन की जय की कविता है।

कला की पराजय और जीवन की जय के सबसे बड़े दृष्टान्त भारतेन्दु-युग के बाद द्विवेदी-युग में दिखायी पड़े। यह वह समय था जब स्वामी दयानन्द के उपदेश हिन्दी प्रान्तों में भलीभाँति घुल चुके थे और चिन्तक तथा साहित्यकार जीवन को उस स्वच्छ दर्पण में देखने के अभ्यासी हो चले थे जो दर्पण स्वामी जी के उपदेशों से तैयार किया जा सकता था। द्विवेदी-युगीन काव्य के लिए हिन्दी में 'इतिवृत्तात्मक' विशेषण चलता है। एक आलोचक ने इस युग की कविता को शुभ्रवसना संन्यासिनी भी कहा है । किन्तु, सच पूछिए तो द्विवेदी-युग के कवि संन्यासी नहीं, गृहस्थ थे। स्वामी विवेकानन्द के से कर्मठ वेदान्त और लोकमान्य तिलक के मुख से कर्मयोग-शास्त्र सुन लेने के मुख बाद वे गृहस्थ के सिवा और कुछ हो भी कैसे सकते थे ? द्विवेदी युगान कविता में वैराग्य की भावना नहीं है, न उसमें जीवन से भाग खड़ा होने का संकेत है। यही नहीं, प्रत्युत्, उसमें नारियों की भी निन्दा नहीं मिलती जो पहले के सभी वैरागी कवियों को विशेषता रही थी । इतिहास में देखा गया है कि जब भी समाज में वैरागियों और संन्यासियों का आदर बढ़ता है तब गृहस्थ और नारी जाति के आदर में उसी अनुपात में कमी आ जाती है। इसके विपरीत, जब भी प्रवृत्ति का उत्थान होता है तब गार्हस्थ्य और नारी जाति, दोनों का सम्मान पहले से अधिक हो जाता है । द्विवेदी-युग की कविता संन्यास नहीं, प्रवृत्ति और कर्मयोग की कविता है तथा वह नारियों के प्रति भी सम्मानशील है। उन्नीसवीं सदी में देश में सांस्कृतिक नवोत्थान की जो लहर उठी थी, उससे प्रेरित कविगण निवृत्ति और मायावाद भाग रहे थे और वे गृहस्थ (यानी कर्मठ मनुष्य) और नारी, दोनों के मूल्य को समाज में ऊँचा उठाना चाहते थे। रीतिकालीन कविता की उस समय जो निन्दा हुई उसका भी मुख्य कारण यह नहीं था कि उस काल के कवियों ने कविता के सामाजिक उद्देश्य की उपेक्षा की थी, प्रत्युत्, यह कि उन्होंने नारियों को केवल नायिका बना कर छोड़ दिया था और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, इस सिद्धान्त की उन्होंने पुष्टि कर दी थी कि नारी प्रेम-क्रीड़ा की सामग्री मात्र है ।

द्विवेदी-युग की कविता अपेक्षाकृत नीरस और रुक्ष है। इसका एक कारण तो यह है कि इस युग में भाषा तैयार नहीं थी, अतएव, कविगण उसकी संभावनाओं का यथेष्ट लाभ नहीं उठा सके। दूसरे द्विवेदी-काल को हम रीति-काल के विरुद्ध उठी हुई प्रतिक्रिया का भी काल कह सकते हैं। चूँकि रीतिकाल के कवियों ने नारी के कामिनी रूप पर अत्यधिक दृष्टि गड़ायी थी, इसलिए, द्विवेदी-युग के कवि नारी के कामिनी रूप से भाग चले। द्विवेदी-युग के कवियों में हम काम भावना को दमित देखते हैं। नर और नारी के भीतर जो पारस्परिक आकर्षण का तार है, कैसे कहा जाए कि वह तार द्विवेदी युग में टूट गया था ? किन्तु इस विषय में द्विवेदी-युगीन कवि अत्यन्त सावधान, में बल्कि, चौकन्ना मालूम होते हैं, मानों, हर समय वे सोच रहे हों कि स्वामी दयानन्द पास ही खड़े सब कुछ देख रहे हैं। इस संयम का परिणाम यह हुआ कि इस काल की रचनाओं में जो नारियाँ चित्रित की गयीं, वे या तो सती साध्वी देवियाँ हैं अथवा वर क्षत्राणियाँ जो अपनी निर्भीकता और तेज से नारी जाति में नूतन प्रेरणा भरती हैं। नारी का जो कामिनी रूप है, वह इस काल में जानबूझ कर उपेक्षित छोड़ दिया गया। किन्तु, इसे मैं संन्यास नहीं, गार्हस्थ्य का लक्षण मानता हूँ। गृहस्थ के घर में केवल पत्नी ही नहीं होती, माँ, चाची, बहन और बेटियाँ भी होती हैं। और इन सब के सामने बोलते हुए हम कभी भी ऐसी बातें नहीं बोलते जो एकान्त कक्ष में बोली जाने के योग्य हैं। द्विवेदी-युगीन कवियों ने एकान्त कक्ष की वार्ता को साहित्य में लाने से इनकार कर दिया । इसे कवि की दुर्बलता कहें तो कह सकते हैं, किन्तु, यह ध्यान रखना चाहिए कि अनेक बातों में पुरुष का इस प्रकार लज्जित होना उसके पौरुष का शृंगार है।
शील की दृष्टि से द्विवेदी-युगीन कवियों का चरित्र अत्यन्त प्रशंसनीय है। किन्तु, इस शील की अतिशयता के कारण कविता के साथ एक अन्याय हो गया। सारी कलाएँ नारी के कामिनी-रूप के इर्द-गिर्द चक्कर काटती आयी हैं और नारी की भाँवरी भरने का मोह वे आज भी नहीं छोड़ सकी हैं। कलाओं में, जो एक प्रकार की स्त्रैण कोमलता होती है वह, कदाचित्, इसी नारी-आराधना की देन है। द्विवेदी-युगीन कविता इस कोमल आकर्षण से वंचित हो गयी। किन्तु इससे भी एक और बड़ी बात है जिसके कारण इस युग की कविता में कवित्व की मात्रा क्षीण दीखती है। नारी के कामिनी रूप को छोड़कर कवि जब उसके सती-साध्वी अथवा वीर रूप की पूजा में लगे, तभी अप्रत्यक्ष रूप से उन्होंने यह मान लिया कि रीतिकालीन कविता के समान निरुपयोगी काव्य कोई काव्य नहीं है; श्रेष्ठ काव्य वह है जिसका कोई-न-कोई सामाजिक उपयोग हो, जो जीवन में पुण्य को बल और पाप को ह्रास देता हो । अर्थात् द्विवेदी-युगीन कवि कला को प्रचार का पर्याय माननेवाले निकले ।

किन्तु, रसिक तो कविता को प्रचार नहीं मानते। वे कविता के समीप जाते ही इसलिए है कि कविता उन्हें आनन्द देती है, उनकी शिराओं को झंकृत करती है, उन्हें परिचित विश्व से निकाल कर अपरिचित लोक में ले जाती है तथा क्षण भर को पृथ्वी से मुक्त करके उन्हें परियों और देवताओं के देश में पहुँचा देती है। और यही वह कार्य था जिसे करने में द्विवेदीयुगीन कविता अक्षम और असमर्थ रही। अतएव, जनरुचि ने माँग की कि कविता स्थूल को छोड़ कर सूक्ष्म रूप धारण करे तथा उड़ने में वह इतनी समर्थ हो कि उसके साथ पाठक भी कल्पना- लोक में विचरण कर सकें।

द्विवेदी-युग के बाद, हिन्दी में छायावाद नाम से जो आन्दोलन उठा, वह, मुख्यतः द्विवेदी-युगीन काव्य की कल्पनाहीनता के विरुद्ध विद्रोह था। किन्तु उसके और भी पहलू थे। मेरा अनुमान है कि छायावाद के समान कोई आन्दोलन रीतिकाल के अन्तिम चरणों में ही समय के गर्भ में आ चुका था। साहित्य में कोई भी धारा बहुत दिनों तक नहीं ठहरती । कारण, एक शैली के बहुत काल तक प्रचलित रहने से अभिव्यक्ति में एकरसता आ जाती है, एक ही प्रकार के शब्द बार बार प्रयुक्त होने से अपना जादू खो बैठते हैं और लीक इतनी पिटी-पिटायी और परिचित हो जाती है कि उस पर चलनेवाला कोई भी कवि इस विश्वास से नहीं बोल पाता कि वह कोई नयी बात बोल रहा है। रीतिकाल की दुहराहट से उसी काल के अन्तिम चरण के कवि अधोर हो उठे थे और तभी बोधा और घनानन्द ने सवैयों के ही भीतर से कुछ ऐसे स्वर निकाले जो रीतिकाल के लिए बिलकुल नवीन लगते हैं। यह लक्षण कहीं-कहीं भारतेन्दु में भी मिलता है। जब वे कहते हैं, "स्रवनन पूरो होय मधुर सुर अंजन है दोउ नैन तब वे अपनी रीति की पृष्ठभूमि को भूल कर एक नयी शैली का संकेत देते हैं। ऐसा लगता है कि यदि हिन्दी कविता की भाषा ब्रजभाषा से बदल कर खड़ीबोली न हो गयी होती तो छायावाद के समान कोई रोमांटिक आन्दोलन ब्रजभाषा में ही आया होता और हिन्दी कविता उस भङ्गिमा को प्रचुर मात्रा में उपस्थित करती जो बोधा, घनानन्द और भारतेन्दु में संकेतित हुई थी।

किन्तु, रीतियुग के अन्तिम कवियों का यह संकेत, बजभाषा के साथ बिलकुल अवरुद्ध भी नहीं हुआ। जब खड़ीबोली कविता की भाषा बन गयी तब भी वह संकेत कविता के भीतर चलता रहा जिसके प्रमाण, पण्डित रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, श्रीधरपाठक, जगमोहन सिंह (श्यामा- स्वप्न के लेखक), मैथिलीशरण गुप्त और रामनरेश त्रिपाठी की कुछ पंक्तियाँ हैं। किन्तु, अनेक कारणों से, ठीक इसी समय, हिन्दी कविता में महाक्रान्ति घटित हो गयी जिसके परिणामस्वरूप कविता की शैली और भाव, दोनों परिवर्तित हो गये और इस सत्वरता के साथ परिवर्तित हो गये कि इस आन्दोलन को लोगों ने आकस्मिक मान लिया ।

किन्तु, क्या छायावादी आन्दोलन आकस्मिक था ? छायावाद के अग्रणी कवियों ने अपने निबन्धों तथा भूमिकाओं में बार-बार यह बात कही है कि छायावाद के मूल भावों का सम्बन्ध उपनिषदों के भावों से है। जब यह आन्दोलन जीवित था तब अनेक बार छायावादियों ने कबीर, मीरा, रसखान, घनानन्द और बोधा का नाम लेकर यह दिखाने का प्रयास किया था कि यह आन्दोलन हिन्दी कविता की श्रृंखला के साथ है। किन्तु, सब कुछ होने पर भी जनता का यह भ्रम बना ही रहा कि यदि बँगला में रवीन्द्रनाथ की प्रसिद्धि न हुई होती तो हिन्दी में यह नया आन्दोलन नहीं आता।

हिन्दी का छायावादी आन्दोलन रवीन्द्रनाथ की प्रसिद्धि से प्रेरित था या हिन्दी कविता का स्वाभाविक विकास, इस गुत्थी को सुलझाना आसान नहीं है। परिवर्तन जब मन्द-मन्द चलता है तब वह केवल परिवर्तन कहलाता है, किन्तु, जब उसकी गति बहुत तीव्र हो जाती है तब उसे क्रान्ति कहते हैं। घनानन्द, बोधा, भारतेन्दु, श्रीधरपाठक, जगमोहन सिंह, मैथिलीशरण गुप्त और रामनरेश त्रिपाठी में परिवर्तन की प्रक्रिया तीव्र नहीं थी। तीव्र वह तब हो गयी जब प्रसाद जी ने "प्रेमपथिक" की रचना की और माखनलाल जी की आरम्भिक कविताएँ प्रकाश में आने लगीं। किन्तु, इन दो कवियों पर रवीन्द्रनाथ का कोई भी प्रभाव नहीं है। अतएव, यह स्थापना ठीक नहीं दीखती कि हिन्दी का छायावादी आन्दोलन रवीन्द्र की प्रेरणा से आया था। किन्तु, छायावाद के अन्य दो अग्रणी कवियों, निराला और पन्त पर रवीन्द्रनाथ के प्रभाव स्पष्ट मिलते हैं, यद्यपि, महादेवी वर्मा फिर इस प्रभाव के क्षेत्र से बाहर चली जाती हैं। मिला-जुला कर यह कहना अधिक युक्तियुक्त लगता है कि नये आन्दोलन की तैयारी हिन्दी - कविता के भीतर आप-से-आप होती आ रही थी तथा प्रसाद जी और माखनलाल जी की रचनाओं तक वह हिन्दी की पूर्वागत धारा के समीप थी। हाँ, जब निराला और पन्त आये, उनके साथ कुछ रावीन्द्रिक प्रभाव भी हिन्दी कविता में सम्मिलित हो गया।

यह भी विचारणीय है कि यद्यपि, सांस्कृतिक नवोत्थान की गूँज हिन्दी-प्रान्तों में स्वामी दयानन्द के समय से ही फैल रही थी, किन्तु, अँगरेजी शिक्षा का परिपाक हिन्दी प्रान्तों में बीसवीं सदी में ही सम्भव हुआ। शिक्षा की दृष्टि से हिन्दी प्रान्त बङ्गाल, मद्रास और मुंबई से पीछे रहे थे। इसके सिवा, हिन्दी प्रान्तों में नवोत्थान के नेता के रूप में सबसे पहले स्वामी दयानन्द आये, जिनका उद्देश्य यूरोप का अवरोध और पौराणिक हिन्दुत्व एवं ईसाइयत और इस्लाम, सबका विरोध था। स्मरण रहे कि पौराणिक हिन्दुत्व धर्म की कवित्वपूर्ण व्याख्या है एवं ईसाइयत और इस्लाम में भी जो भक्ति और रहस्यवाद के तत्त्व हैं वे कवित्व को प्रेरित करनेवाले हैं। किन्तु जब हिन्दी प्रान्त स्वामी जी के उपदेशों के प्रभाव में आये तब साहित्य के अतीन्द्रिय संस्कार, जो कल्पना को विचरण का अवकाश देते हैं, दबने लगे। स्वामी जी के उपदेशों का काव्यमय रूप पं० नाथूराम शर्मा शङ्कर की रचनाओं में प्रकट हुआ। किन्तु, हिन्दी के सबसे बड़े कवि, श्रीमैथिलीशरण गुप्त, यद्यपि, सनातन धर्मावलम्बी हैं, किन्तु, स्वामी जी के उपदेशों के संस्कारगत प्रभावों से वे भी न बच सके। 'साकेत' के राम स्वामी दयानन्द के "कृण्वन्तो विश्वमार्यम्" का नारा लगाते हैं और गुप्त जी का अधिकांश साहित्य उस संयम को ध्यान में रख कर विरचित लगता है जिसका उपदेश स्वामी दयानन्द ने दिया था। इसके विपरीत, बङ्गाल में नवोत्थान का रूप ब्रह्म समाज था जिसके भीतर ईसाई भक्ति और हिन्दू वेदान्त, दोनों का मिश्रण हुआ था। साथ ही, ब्रह्म समाज यूरोपीय संस्कारों का अवरोध न करके उन्हें हिन्दुत्व में पचाना चाहता था। उसके भीतर भक्ति का गहरा पुट था और रहस्यवाद की प्रेरणा भी कोई आश्चर्य नहीं कि उसके कवि रवीन्द्रनाथ हुए।

स्वामी जी द्वारा प्रवर्तित पवित्रतावादी आन्दोलन यदि समय पाकर शिथिल न हो गया होता तो हिन्दी में छायावादी आन्दोलन उस जोर से आता या नहीं, इसे सन्दिग्ध मानना चाहिए। किन्तु, शिथिल होने पर भी, छायावाद काल में यह आन्दोलन कभी भी इतना शिथिल न हुआ कि कविगण उसके आतङ्क को बिलकुल भूल जाएँ। यह बात छायावादी कवियों की नारी भावना में खुलती है। रवीन्द्रनाथ में, फिर भी, कलाकारों का यह नैसर्गिक साहस विद्यमान था कि वे "विजयिनी' जैसी उल्लङ्ग शृङ्गार की कविता लिखें अथवा "स्तन' शीर्षक देकर पद्यों की रचना कर दें। किन्तु, छायावादी कवि अपनी वासना की अभिव्यक्ति खुल कर नहीं कर सके। जिस भय से द्विवेदी-युग के कवि कामिनी नारी का ध्यान करने से घबराते थे, उसी भय के मारे छायावादी कवि भी प्रत्यक्ष नारी के बदले "जुही की कली" अथवा "विहङ्गिनियों का आश्रय लेकर अपने भावों का रेचन करते रहे। छायावाद-काल की नारी-भावना कुण्ठित सी लगती है। यौन-वासना द्विवेदी-युग से दमित चली आ रही थी। छायावाद काल में आकर वह फूटी तो अवश्य, किन्तु, इस प्रकार नहीं, जिसे हम स्वाभाविक कह सकें। छायावादियों की वासना उन्हें कुरेदती भी है और अपनी अधीनता में भी ले जाती है, किन्तु ये कवि बराबर यह कहते रहते हैं कि हमारी वासना, वासना भले ही हो, किन्तु हम ने उसे गड़ा में नहला दिया है।

द्विवेदी-युग के बाद हिन्दी कविता में जो नया आन्दोलन आया उसका परिचय देने के लिए छायावाद और रहस्यवाद, इन दो नामों का उल्लेख किया जाता है; किन्तु, दो नामों की आवश्यकता, कदाचित्, नहीं होनी चाहिए। यह आन्दोलन, रूप और स्वभाव में अँगरेजी के रोमांटिक आन्दोलन के समान था और रोमांटिक कविता में रहस्यवादी तत्त्व रहते ही आये हैं। कठिनाई यह है कि भारतीय भाषाओं में अब तक भी कोई ऐसा शब्द प्रचलित नहीं हो सका जो रोमांटिसिज्म के पूरे अर्थ का द्योतन कर सके। छायावाद का लक्षण बताते हुए प्रसाद जी ने एक स्थान पर लिखा है कि "मोती के भीतर छाया की जैसी तरलता होती है वैसी ही कान्ति की तरलता अङ्ग में लावण्य कही जाती है;" तथा "कवि की वाणी में यह प्रतीयमान छाया युवती के लज्जा भूषण की तरह होती है।" किन्तु, ये उपमाएँ तो संस्कृत काव्यशास्त्र में ध्वनि का मर्म समझाने को प्रयुक्त हुई हैं। अतएव, इस व्याख्या से इतना ही स्पष्ट होता है कि छायावाद में ध्वनि की प्रधानता थी। इस सीमा को स्वयं प्रसाद जी भी जानते थे, इसलिए, इतने से ही संतुष्ट नहीं रह कर उन्होंने यह भी कहा है कि "बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी, तब हिन्दी में उसे छायावाद के नाम से अभिहित किया गया" तथा "ये नवीन भाव आन्तरिक स्पर्श से पुलकित थे. ..बाह्य उपाधि से हट कर आन्तर हेतु की ओर कवि-कर्म प्रेरित हुआ।" इस पिछली सूक्ति से यह प्रत्यक्ष होता है कि छायावादी काव्य में वस्तुओं का बाह्य वर्णन न होकर उनका आन्तरिक रूप ही वर्णित या चित्रित किया जाता था। इसके सिवा, छायावाद का एक लक्षण प्रसाद जी ने उसकी वेदनाप्रियता को भी माना है।

किन्तु, सही होते हुए भी, इन लक्षणों को मैं छायावाद के परिचय के लिए यथेष्ट नहीं मानता। वास्तव में, छायावाद की विशेषता ध्वनि और वेदना -प्रियता नहीं, प्रत्युत्, भावुकता और कल्पना की अतिशयता तथा परिचित से दूर जाकर अपिरिचित में विचरण करने का मोह था। ध्वनि तो सभी श्रेष्ठ कविताओं का गुण है और वेदना विरह-वर्णनों में भी प्रमुख रही है। इसी प्रकार, वस्तुओं की आन्तरिकता का स्पर्श किये बिना कोई भी श्रेष्ठ कविता नहीं लिखी जाती ये लक्षण छायावाद पर घटित अवश्य होते हैं, किन्तु, इन्हें हम उसकी प्रमुख विशेषता नहीं मान सकते। अथवा यह कहना चाहिए कि

वस्तुओं की आन्तरिकता में प्रविष्ट होने की छायावाद में जो उत्कट चाह थी उसी के फलस्वरूप उसका कल्पना - पक्ष अत्यन्त विकसित हो गया।

छायावादी या रोमांटिक मनोदशा अत्यन्त तीव्र चेतना से उत्पन्न होती है और कल्पना की तीक्ष्णता के साथ इस मनोदशा का ऐसा मेल होता है कि अधिकांश रोमांटिक कवियों पर यह आक्षेप है कि वे सत्य से दूर भागते फिरते थे। रोमांटिक भावधारा का चरम विकास अँगरेज कवि शेली में हुआ, किन्तु, शेली की ही कविताओं के उद्धरण देकर आलोचकों ने रोमांटिसिज्म के अवगुण भी दिखाये हैं। जो अव्यावहारिक है, जो अपने आप पर नियन्त्रण नहीं रख सकता, जिसका बुद्धि-पक्ष उसके भावुकता - पक्ष से दुर्बल और क्षीण है तथा जो सामान्य तर्क - बुद्धि का अनादर करके भावनाओं के प्रवाह में बह जाता है, उसे हिन्दी में लोग, एक समय, छायावादी कहा करते थे और अँगरेजी में भी यदि ऐसे व्यक्तियों को रोमांटिक कहा जाए तो इस शब्द का बहुत ग़लत प्रयोग नहीं होगा। रोमांस का एक अर्थ प्रेम लीला भी होता है, किन्तु, यहाँ भी अधिक स्थलों पर, रोमांस त्याज्य गुण है। जो राजनीतिज्ञ परिणाम पर ध्यान दिये बिना जनता को अन्धी क्रान्ति की ओर झोंकते हैं, साहित्य में उन्हें भी रोमांटिक कहने का रिवाज़ है। अर्थात् रोमांटिक विशेषण हम उस व्यक्ति के लिए रखते हैं जो बुद्धि से अधिक भावना के अधीन होता है।

जीवन का रोमांटिक दृष्टिकोण यह है कि मनुष्य अनिवार्य रूप से उन शक्तियों का आगार है जिनसे नूतन सृष्टियाँ रची जाती हैं, अतएव, उसकी प्रत्येक इच्छा को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मिलनी ही चाहिए । क्रान्तियों का जन्म मनुष्य के इसी आत्मविश्वास से होता है, अतएव, सभी क्रान्तियाँ स्वभाव से रोमांटिक होती हैं। और इसी लिए, साहित्य का प्रत्येक रोमांटिक आन्दोलन स्वयं वायवीयता में मग्न रहने पर भी, क्रान्तिकारी आन्दोलनों के प्रति सहानुभूतिशील रहता आया है। अँगरेजी के रोमांटिक कवि फ्रांसीसी राज्यक्रान्ति के प्रति सहानुभूतिशील थे एवं हिन्दी के छायावादी कवि भी भारतवर्ष में क्रान्ति की तैयारी को बड़े ही उत्साह से देखते थे। बुद्धिवाद और रोमांटिसिज्म में भेद यह है कि बुद्धिवादी व्यक्ति की दृष्टि में वे बातें आती हैं जो आवश्यक हैं और सम्भव भी किन्तु रोमांटिक व्यक्ति आदर्शवादी होता है। वह सम्भावनाओं को देख कर नहीं चलता। जो बातें उसे अच्छी लगती हैं अथवा जिन्हें वह वांछनीय समझता है उनकी सम्भावना - असम्भावना पर विचार किये बिना ही वह उनका प्रचार करने लगता है। जीवन का जो सुप्रतिष्ठ क्लासिक रूप है उसकी बौद्धिक एवं नैतिक सुरक्षा का भार बुद्धिवाद पर होता है। इसके विपरीत, रोमांटिक भावना विद्रोहिणी होती है और वह स्थापित समाज की आत्मरक्षा - परक दकियानूस प्रवृत्तियों को तोड़ कर नया समाज लाना चाहती है। जहाँ हो, वहाँ अड़े रहो, यह समाज के क्लासिक पक्ष का स्वभाव है। समाज को खींच कर आगे ले जाना, यह काम रोमांटिक नवयुवक करते हैं। इस सङ्घर्ष में कुछ तो क्लासिक पक्ष की जकड़बन्दी दूर होती है और कुछ भावनावादियों पर बुद्धिवाद का प्रभाव पड़ता है। इसी तरह, समाज प्रगति करता है और इसी न्याय से साहित्य में भी प्रगति आती है। समाज को आगे बढ़ने की उत्तेजना रोमांटिक भावों से मिलती है, किन्तु, आगे बढ़ने में दुर्घटना का जो भय है उसे बुद्धिवाद दूर करता है ।

मनुष्य के भीतर दो प्रकार की शक्तियाँ हैं। एक शक्ति वह है जो हमें घृणा और क्रोध करने को उत्तेजित करती है, प्रेम और दया करने की प्रेरणा देती है। इसी शक्ति से सम्बन्धित वे भाव (साहित्य के स्थायी भाव) हैं जिन्हें साहित्य और कलाएँ अपना आधार मानती हैं। किन्तु, इसी के साथ मनुष्य के भीतर एक दूसरी शक्ति भी है जिससे हम सोचने और विचारने की योग्यता पाते हैं, जिससे हम यह निश्चय करते हैं कि कौन काम करने के योग्य है और कौन नहीं, कौन बात बोलने के योग्य है और कौन नहीं। बहुत- -से भाव मनुष्य में भी होते हैं और पशुओं में भी। किन्तु, मनुष्य पशुओं से इसलिए भिन्न है कि वह भावों का बुद्धि से नियन्त्रण कर सकता है। जिसे हम बुद्धिवाद या रेशनलिज्म कहते हैं वह और कुछ नहीं, भावों को बुद्धिपूर्वक सम अवस्था में रखने का ही नाम है। और जिसे हम संस्कृति कहते हैं, वह भी भावों के नियन्त्रण अथवा परिष्कार से उत्पन्न होती है। क्रोध करना प्रकृति है, किन्तु उसे वश में रखना संस्कृति का द्योतक है। काम की प्रेरणा प्रकृति है, किन्तु, बुद्धिपूर्वक उसे मर्यादा में रखना संस्कृति का लक्षण है ।

इस बड़ी पृष्ठभूमि पर रख कर देखने से रोमांटिक भावदशा की दुर्बलताएँ कुछ अधिक स्पष्ट हो जाती हैं और तब यह भी समझ में आने लगता है कि सभ्यता की प्रगति के साथ ऐसी भावुक मुद्रा का अनादर क्यों बढ़ता जा रहा है और क्यों आज के चिन्तक तथा समीक्षाकार रोमांटिक मूल्यों को प्रोत्साहित करने के पक्ष में नहीं हैं। सभ्यता का कल्याण इस बात में है कि मनुष्य प्रत्येक क्षेत्र में सन्तुलित रहने का प्रयत्न करे। किन्तु छायावाद या रोमांटिसिज्म संतुलन की स्थिति में कम रह पाता है। उत्साह की बात आने पर रोमांटिक कवि अन्धी वीरता अथवा अन्धी क्रान्ति पर पहुँच जाता है तथा पस्ती की मनोदशा में वह निराशा को सौन्दर्यपूर्ण, आँसू को श्रेष्ठ सर्वस्व और मृत्यु को अपना उद्धारक मान लेता है।

साहित्य में भावुकता के इस आतिशय्य से और भी दुष्परिणाम निकलते हैं। उदाहरणार्थ, अत्यन्त भावुक कवि अपने वर्ण्य विषय पर पूरा अधिकार नहीं रख सकता, न उसे यही ध्यान रहता है कि जो कुछ वह लिख रहा है वह कितने लोगों की अनुभूति से मेल खाएगा । साधारणीकरण की प्रक्रिया भी कवि की साधना का बड़ा क्षेत्र है, किन्तु, कितने ही भावुक कवि इस साधना में केवल इसलिए असफल रह जाते हैं कि वे दूसरों की पहुँच के भीतर आने को झुक नहीं सकते। भावुक व्यक्ति का एक दूसरा दोष यह होता है कि वह अपना देवता आप बनना चाहता है और वैयक्तिकता के इस मोह में उसकी प्रतिभा केवल धुआँ उठा कर रह जाती है, उससे प्रकाश नहीं फूट पाता।

यूरोप की रोमांटिक कविताओं का मनोविज्ञान की दृष्टि से जो अध्ययन किया गया, उसका परिणाम अधिकांश रोमांटिक कवियों के विपरीत निकला है । मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि अधिकांश रोमांटिक कवि स्नायविक दुर्बलता से पीड़ित (न्यूरोटिक) थे। उनमें प्रतिभा अवश्य थी, किन्तु, प्रतिभा के उन्मेष में वे जिन विचारों अथवा भावों की अनुभूति प्राप्त करते थे, उसे ठीक से लिखने की धीरता या शक्ति उनमें नहीं थी । वे सृष्टि के रहस्यों के भीतर प्रवेश करके उनकी सम्यक् व्याख्या करने अथवा उन्हें ठीक से समझने में भी असमर्थ थे। यही कारण है कि दर्शन के धरातल का स्पर्श करते ही वे रहस्यवादी बन जाते थे, क्योंकि, इसी धूमिल पद्धति से वे अपनी दुर्बलताओं को छिपा सकते थे या अपने आपको यह सन्तोष दे सकते थे कि सृष्टि के रहस्यों का साक्षात्कार उन्होंने कर लिया है। यौन भावनाओं के सम्बन्ध में भी मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि इनमें से अधिकांश कवि अतृप्त वासना से पीड़ित थे। किन्तु, अपनी इस पराजय को छिपाने के लिए उन्होंने प्लेटोनिक प्रेम का यह आदर्श ग्रहण कर लिया कि नारी की शोभा छूने नहीं देखने की वस्तु है, भोग नहीं, पूजा की सामग्री है।

कविता की रोमांटिक पद्धति अनिवार्य रूप से खोखली होती है, ऐसा मनोवैज्ञानिक भी नहीं मानते, क्योंकि शेक्सपियर आदि की पद्धति भी बहुत दूर तक रोमांटिक थी, किन्तु, रोमांटिक होते हुए भी उन्होंने जो कहना चाहा उसे ठीक से कह दिया है और सृष्टि के रहस्य जहाँ तक उनकी दृष्टि में आये, वहाँ तक उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति भी उन्होंने प्रभावोत्पादक ढंग से की है। और ये कार्य उन्होंने ठीक उसी सुस्पष्टता और निश्चिन्तता से किये हैं जैसे कोई भी वस्तुवादी कलाकार कर सकता था। रोमांटिक पद्धति दूषित वहाँ हो जाती है जहाँ कवि में रहस्यों के भीतर घुसने की शक्ति का अभाव होता है अथवा जहाँ कवि कथ्य विषय को अपनी पहुँच से परे देखकर (अधिकांश कवि तो यह भी नहीं जान पाते कि कथ्य उनकी पहुँच से परे है या नहीं) बाहर-बाहर ही भावनाओं की घटा बाँध कर कविता समाप्त कर देता है।

रोमांटिसिज्म कविता का सर्वाधिक काव्यात्मक तत्त्व है और कविता यदि विज्ञान का प्रतिलोम है तो रोमांटिक कविता विज्ञान का सब से बड़ा प्रतिलोम समझी जानी चाहिए। रोमांटिसिज्म के स्पर्श से क्लासिक कवि भी पहले से कुछ बड़ा कवि हो जाता है और संयमशील महाकवियों में तो रोमांटिक प्रवृत्तियाँ ऐसा चमत्कार उत्पन्न करती हैं जैसा कभी-कभी ही देखने में आता है। रवीन्द्रनाथ और गेटे रोमांटिक थे, किन्तु, संयमशील होने के कारण, इन कवियों ने रोमांटिसिज्म के दोषों को अपने पास फटकने तक न दिया। किन्तु, शेक्सपियर, रवीन्द्रनाथ, गेटे और वर्डस्वर्थ, ये अपवाद ही अपवाद हैं। अपेक्षाकृत छोटे कवि तो रोमांटिक प्रवृत्तियों की अधीनता में जाते ही अतिरंजन के शिकार हो जाते हैं और जो उन्हें कहना है उसे छोड़ कर वे ऐसी बातें बोलने लगते हैं जिनका कथ्य मूल से कोई सम्बन्ध नहीं होता। इसीलिए, ऐसा दीखता है कि अधिकांश रोमांटिक कविताओं का सौन्दर्य प्रतिभा के रंगीन धुएँ का सौन्दर्य है, उनके भीतर अंगारे नहीं हैं।

किन्तु, इतना होने पर भी भावुकता साहित्यकार का बहुत बड़ा गुण है, बल्कि, कहना चाहिए कि उचित मात्रा में इस गुण के बिना कोई भी व्यक्ति कवि नहीं हो सकता। जिस व्यक्ति में उत्साह नहीं जगता, दया, प्रेम और घृणा नहीं होती, वह और चाहे जो कुछ हो, कवि नहीं है। कवि मानवता का वह चेतन यन्त्र है जिस पर प्रत्येक भावना अपनी तरङ्ग उत्पन्न करती है, जैसे भूकम्प - मापक - यन्त्र में पृथ्वी के अङ्ग में कहीं के भी उठनेवाली सिहरन आप-से-आप अंकित हो जाती है। सच पूछिए तो हम कवि उसी मात्रा में होते हैं जिस मात्रा में हम भावुक होते हैं और कवि हम तभी तक रहते हैं जबतक भावुकता हममें शेष रहती है। और केवल कवि ही नहीं, पाठक भी सहृदय, भावुक या रसज्ञ होते हैं। साहित्य की सारी पूँजी भावों को लेकर है। यदि भावुकता का सरोवर सूख गया तो कवि और पाठक, दोनों साहित्य के लिए बेकार हैं। परन्तु, भावुकता भावुकता में भेद है। एक भावुकता वह है जो अमर्यादित होने के कारण सस्ती और अर्थहीन हो जाती है, जैसे उस व्यक्ति का रोना जिसे चींटी ने काटा हो, मगर, जो इस प्रकार रो रहा है, मानों, उसे साँप ने डस लिया हो; अथवा मुस्लिम बन्धुओं का यह क्रोध कि 'रिलीजस लीडर्स' किताब को लेकर दो देशों अथवा दो सम्प्रदायों के बीच युद्ध छिड़ जाना चाहिए। और वह भी भावुकता ही है जिसकी प्रेरणा से तुलसीदास ने रामायण लिखी अथवा गाँधीजी ने अपना जीवन अपने देश के लिए अर्पित कर दिया। भावुक केवल रोमांटिक कवि ही नहीं होते, भावुकता, क्लासिक कवियों का भी गुण है। और क्लासिक कवि चूँकि, साधारणत: संयमशील होता है, इसलिए, जब भी उसकी भावुकता संयम का बाँध तोड़ कर ज़रा उभर आती है तब भावुकता का यह उभार उस कवि को और भी आकर्षक बना देता है। इसी प्रकार, रोमांटिक कवि जब, आशा के विपरीत, भावुकता पर लगाम कसता है, तब वह भी पहले की अपेक्षा कुछ और गौरवपूर्ण हो जाता है। इलियट ने ठीक ही रोमांटिसिज्म और क्लासिसिज्म को साहित्य की राजनीति कहा है, क्योंकि प्रत्येक सफल रोमांटिक कवि (जैसे वर्डस्वर्थ) किसी-न-किसी मात्रा में क्लासिक भी होता है और प्रत्येक क्लासिक कवि (जैसे सूरदास,तुलसीदास आदि) अनेक बार रोमांटिक हो उठता है। सम अवस्था अथवा मध्यम मार्ग की जैसे सर्वत्र महिमा देखी जाती है, वैसे ही, उसका साहित्य में भी महत्त्व है। निरी बुद्धि से कविता नहीं बनती, किन्तु, कोरी भावुकता भी कविता के लिए अपर्याप्त है। अनुभूति के समय भावुकता, किन्तु, रचना के समय बुद्धि का सहयोग, यही वह मार्ग है जिससे ऊँचे साहित्य का सृजन हो सकता है।

सुश्रृंखलता, सुसम्बद्धता पूर्वापर सम्बन्धों का निर्वाह, अभिव्यक्ति की स्वच्छता और सुस्पष्टता एवं कथन में अधीरता तथा अशान्ति का अभाव, ये क्लासिक शैली के लक्षण होते हैं। किन्तु, इनमें से कोई भी गुण ऐसा नहीं है जिसके आने से रोमांटिक कविता दूषित हो जाए। यह और बात है कि रोमांटिक कवि इनमें से अनेक गुणों का निर्वाह करने में असमर्थ रह जाता है।

बहुत-सी अन्य भाषाओं के रोमांटिक आन्दोलनों के समान, हिन्दी के छायावादी आन्दोलन में भी दो प्रवृत्तियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय थीं। एक तो सृष्टि के रहस्यों को समझने की उत्सुकता या जिज्ञासा जो इस आन्दोलन का बौद्धिक पक्ष थी; दूसरी, ऊँची से ऊँची सुन्दरता को देखने की कामना या चाह जिससे छायावादी आन्दोलन का रागात्मक पक्ष विकसित हुआ। द्विवेदीयुगीन और रीतिकालीन कवि वस्तुओं के सतही रूप तक ही गये थे। छायावादियों की विशेषता यह रही कि उन्होंने प्रत्येक रचना में सतह से नीचे उतरने का प्रयास किया। और, चूँकि उन्होंने वस्तुओं के भीतर जाने की कोशिश की इसलिए, उन्हें ऐसी अनन्त सुन्दरताओं के दर्शन भी हुए जो हिन्दी के लिए अछूती थीं। छायावादियों में वस्तुओं को नये क्षितिजों से देखने की जो जिज्ञासा थी, चीजों के भीतर डूब कर उनके सूक्ष्म रहस्यों को समझने का जो कुतूहल और औत्सुक्य था उससे कल्पना को प्रसरित होने की प्रेरणा मिली और हिन्दी - कविता में प्राय:, विद्यापति, तुलसी और सूरदास के बाद, पहले-पहल, यह सिद्धान्त वेग से उभरा कि कल्पना की प्रचुरता के बिना कोई भी कविता नहीं लिखी जा सकती। और छायावादियों ने सौन्दर्य की उपलब्धि के लिए जो अद्भुत प्रयास किया, उससे भी हिन्दी में पहले-पहल इस सिद्धान्त का संकेत मिला कि कविता का उद्देश्य ज्ञान - दान अथवा समाज सुधार नहीं, केवल सौन्दर्य की सृष्टि है।

सामने के आवरण को हटा कर उसके पीछे छिपे हुए सत्यों को जानने की उत्सुकता और कल्पना के सहारे भाँति-भाँति की सुन्दरताओं को देखने की चाह, ये दो बातें हिन्दी के छायावादी आन्दोलन की दो प्रमुख विशिष्टताएँ थीं। किन्तु यह आन्दोलन केवल यहीं तक सीमित नहीं था। इसके और भी अनेक पहलू थे जिनका सम्यक् विवेचन एक छोटे से निबन्ध में अशक्य है।
यह आन्दोलन किसी एक कारण का परिणाम नहीं था। द्विवेदी-युग को समीप देख कर हम आसानी से कह देते हैं कि छायावाद द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मक काव्य के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप आया था। किन्तु, गहराई से देखने पर यह स्पष्ट दिखायी पड़ेगा कि छायावादी आन्दोलन का मूल इतना समीप नहीं था। मूलतः यह भारत के उस सांस्कृतिक नवोत्थान का परिणाम था जिसका प्रवर्तन राजा राममोहन राय ने किया था और जिसके व्याख्याता केशवचन्द्र सेन, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, श्रीमती एनीबेसेंट, लोकमान्य तिलक और महात्मा गाँधी हुए हैं। कविता का यह प्रयास उस नयी मानवता की अभिव्यक्ति का प्रयास था जिसका जन्म भारत-यूरोप सम्पर्क से हुआ था और जो अँगरेजी शिक्षा के कारण स्वाधीनता, उदारता, वैज्ञानिकता और बुद्धिवाद विषयक यूरोपीय विचारधाराओं की सहज उत्तराधिकारिणी हो गयी थी। द्विवेदी-युग तक को हिन्दी - कविता उस भारतीय मानवता की कविता है जो यूरोप से परिचित नहीं थी अथवा यदि थी तो स्वामी दयानन्द के नेतृत्व में वह यूरोप से बचने के प्रयास में थी। किन्तु, छायावाद की कविता उस भारतीय मनुष्य की कविता है जिसकी आत्मरक्षा की चिन्ता दूर हो गयी है और जो स्वेच्छया यूरोप के गुणों का प्रसन्नता से वरण कर रहा है। जब सांस्कृतिक नवोत्थान का समय आता है, जातियों के कुछ पुराने सत्य दुबारे जन्म लेते हैं। उन्नीसवीं सदी के हिन्दू नवोत्थान के क्रम में भी वेदों और उपनिषदों के सत्यों ने दुबारा जन्म ग्रहण किया और नवोत्थान के नेताओं ने यह घोषणा की कि हम इन प्राचीन सत्यों को साथ रखते हुए यूरोप के उपयोगी ज्ञान का सत्कार करेंगे । हिन्दू नवोत्थान का ध्येय प्राचीन भारत से नवीन यूरोप की एकता की साधना था और यह ध्येय छायावादी काव्य पर भी पूर्ण रूप से चरितार्थ होता है। प्रसाद, निराला, पन्त और महादेवी की कविताओं की रीढ़ भारत के प्राचीन सत्यों की अनुभूति है। केवल अभिव्यक्ति की शैली उन्होंने यूरोप की अपनायी है। और यूरोपीय शैली को अपनाने में भी वे इतने भारतीय रहे हैं कि हम आसानी से उनकी शैली को भारतीय शैली का विकास कह सकते हैं।

वास्तव में, यूरोप से नये ज्ञान के आगमन के साथ भारत की चेतना में एक प्रकार का भूकम्प सा आ गया और भारतीय मनुष्य के भीतर अनेक प्रकार की जिज्ञासाएँ एक साथ जग पड़ीं, अनेक प्रकार की सुन्दरताओं को देखने की कामना स्फुरित हो उठी, परिचित से निकल कर अपरिचित भूमि में विचरण करने का उत्साह उमड़ पड़ा और रूढ़ियों एवं शास्त्राज्ञाओं को तोड़ कर भारतीय मानव पहले-पहल उन लोकों की ओर पाँव बढ़ाने लगा जिनकी ओर जाने की उसे पहले इजाज़त नहीं थी। ये सारी जिज्ञासाएँ, ये सारी उममें और ये सारे उत्साह, जिनकी जड़ें उन्नीसवीं सदी के मध्य तक पहुँचती हैं, छायावाद को सम्भव बनाने के लिए, शनैः शनैः, काम करती आ रही थीं और जब छायावाद का आविर्भाव हुआ, उसने अपने ढङ्ग पर इन सारी प्रवृत्तियों को अभिव्यक्ति दी । 

छायावाद में रहस्यवादी तत्त्व कितना था, इस बात को लेकर कभी-कभी विचिकित्सा की जाती है। एक बात सत्य है कि छायावादियों में कोई भी कवि वैसा नहीं था, जैसे पहले के रहस्यवादी कवि कबीर, दादू, रैदास और मीरा या जायसी हुए थे, अर्थात्, छायावादियों में से किसी भी कवि का जीवन धर्म अथवा परोक्ष सत्ता से एकात्म होने के ध्येय पर अर्पित नहीं था। फिर भी, छायावाद के भीतर रहस्यवादी तत्त्व जब-तब काफी उभरा जिसका कारण यह है कि रोमांटिक भावधारा जब भी दर्शन के पास पहुँचती है, उसे दर्शन का रहस्यवादी पक्ष ही रुचिकर प्रतीत होता है। फिर भी, महादेवी को छोड़कर बाकी कवियों में रहस्यवाद का रूप परम्परा से बहुत भिन्न होकर आया है और मुख्यतः उसके दो रूप हैं। एक तो यह कि प्रकृति का जो रूप खुल कर बाहर आ गया है और हमारे चर्म-चक्षु के सम्मुख विद्यमान है, कवि अचरज की भाषा में उसकी व्याख्या करता है। दूसरा यह कि प्रकृति का जो रूप दृश्य के परे अगोचर और अदृष्ट है, उसके समक्ष कवि अगाध विस्मय से अभिभूत हो जाता है। विस्मय की इन दोनों प्रकार की अनुभूतियों के लिए हिन्दी में सर्वात्मवादी अनुभूति यह नाम चलता है। किन्तु, यह सर्वात्मवादी अनुभूति है क्या चीज़ ? स्पष्ट ही, छायावाद में जो बौद्धिक जिज्ञासा का भाव था, यह रहस्यवादी अनुभूति भी उसी जिज्ञासा का पहलू है। कवि जानना चाहता है कि यह दृश्य जगत् कहाँ से उछल कर आँखों के सामने आ गया अथवा जो अदृश्य और अगोचर है, उसका क्या रहस्य है। किन्तु, इस भेद को वह जान नहीं पाता। उसकी बुद्धि प्रकृति के रूपों से टकरा कर लौट आती है और परम्परा से उसने जो सुन रखा है, उसी बात को दुहराकर वह सन्तोष कर लेता है कि माया ब्रह्म का प्रसार है, कि हम जो कुछ देख रहे हैं, उसके भीतर और उसके परे कोई अज्ञात चेतन शक्ति व्याप्त है। किन्तु ऐसी अनुभूतियों में नवीनता कहाँ है ? यदि विश्व की समस्त रहस्यात्मक अनुभूति को सामने रख कर सोचें तो कहना पड़ेगा कि छायावादी कवियों ने रहस्यवादी अनुभूतियों की लड़ी में एक भी नयी कड़ी नहीं जोड़ी। प्रशंसनीय वे इसलिए हैं कि अदृष्ट और अगोचर को समझने की उन्होंने चेष्टा की। और निन्दनीय वे इसलिए नहीं हैं कि इस चेष्टा में सफलता केवल साधकों को मिलती है, उन्हें नहीं जो परम ज्ञान का मूल्य चुकाने को तैयार नहीं हैं। 

नकली रहस्यवादियों से मुझे भय लगता है, फिर भी, एक बात है जो नकली रहस्यवाद के भी पक्ष में पड़ती है। कवि योगी या रहस्यवादी हो या नहीं, किन्तु, आदर्शवादी होने के कारण वह विश्व की आधिभौतिक व्याख्याओं को स्वीकार नहीं कर सकता। यही असन्तोष उसे रहस्यवाद की ओर प्रेरित करता है और जब भी वह विश्व की आध्यात्मिक व्याख्या के लिए प्रयास करता है, तब मनुष्य की वह प्रवृत्ति कुछ ऊपर आ जाती है जो युगों से विश्व-प्रपंच के आध्यात्मिक समाधान की खोज में है। ब्लेक, ए० ई० और वर्डस्वर्थ भी योगी नहीं थे, न इलियट योगी हैं। किन्तु, इनकी कविताओं के भीतर जहाँ भी अदृश्य वास्तविकता को छूने का प्रयास है, वहाँ मानवात्मा के उस आध्यात्मिक स्वरूप पर श्रद्धा होती है जो आधिभौतिकता के घमासान में भी जीवित और चेतन है।

सृष्टि के अन्दर जो गहन रहस्य हैं उनके भीतर दार्शनिक और कलाकार, दोनों, प्रवेश करते हैं और दार्शनिक का भी साधने यहाँ बुद्धि से अधिक सम्बुद्धि (इनटुइशन) होती है जो, मुख्यतः, कला का साधन है। वस्तुओं के आन्तरिक रूपों को उभार कर ऊपर लाने में ही कला दृश्य और अदृश्य के बीच के प्राचीरों को भङ्ग करती है और इसी क्रम से वह सान्त में अनन्त की झाँकी दिखलाती है एवं बन्धन और मुक्ति के भेदों का नाश करती है। कला चेतन और अचेतन, दोनों के मिश्रण से उत्पन्न स्थिति का नाम है एवं वह प्रकृति और मानवात्मा के बीच सेतु का निर्माण करती है ।

द्विवेदी-युगीन कविता अधिकतर दैनिक जीवन में आनेवाले विषयों को लेकर लिखी गयी थी। दैनिक जीवन के विषय उपयोगी तो होते हैं, किन्तु, अति परिचय के कारण उनमें आकर्षण का अभाव होता है और जीवन की रुक्षता को भुलाने के बदले कवि और पाठक को वे उसकी और भी याद दिलाते हैं। छायावादी कवि अछूते सौन्दर्य और मादक नवीनता की खोज में थे, अतएव, वे दैनिक जीवन से भाग कर परियों के देश में पहुँच गये । परियों के देश का निर्माण कवियों का प्रिय कार्य रहा है; प्रत्युत्, यह कहना चाहिए कि परी-लोक की सफल रचना करनेवाले कवि अत्यल्प विरोधों के साथ श्रेष्ठ कवि माने जाते रहे हैं। छायावाद चूँकि कविता का अत्यन्त काव्यात्मक आन्दोलन था, इसलिए, इस काल्पनिक जगत् की रचना करने में उसने भी यथेष्ट सफलता प्राप्त की। पन्त जी का "लायी हूँ फूलों का हास" नामक गीत इस विषय की श्रेष्ठतम रचना है और मेरा अनुमान है कि पन्त जी के और चाहे जो भी गीत मुरझा जायँ, उनके वे गीत और कविताएँ मुरझानेवाली नहीं हैं जिनमें स्वप्न, नक्षत्र, चन्द्रमा, प्रेम, अनङ्ग, लहर, नदी, विहङ्ग आदि मनुष्य के सबसे प्यारे देवी - देवता बन कर आये हैं। छायावाद ने काव्य - सम्बन्धी जिस धारणा को सबसे अधिक पुष्ट किया वह यह मानी जाएगी कि कविता स्वप्न है, कविता परियों की कहानी है, कविता रहस्य की वाणी है, कविता परिचित विश्व से बहुत दूर निकल जानेवाले कवि की आवाज है तथा जो व्यक्ति कविता के स्पर्श मात्र से, स्वतः, यह नहीं समझ सकता कि कविता क्या है, उसे किसी भी प्रकार यह समझना कठिन है कि कविता अमुक वस्तु होती है।

छायावाद की रहस्य-भावना छायावादियों की बौद्धिक जिज्ञासा का परिणाम थी। किन्तु, उनकी इस बौद्धिक शक्ति का जितना परिचय छन्दों के नये विधान, शब्दों के नवीन चयन और भाषा के नूतन शृङ्गार में मिला उतना और कहीं नहीं। छायावाद-युग की सबसे बड़ी देन यह रही कि उसके यन्त्र-गृह में, एक समय कर्कश समझी जानेवाली, खड़ीबोली गल कर मोम हो गयी। कितने आश्चर्य की बात है कि पण्डित सुमित्रानन्दन पन्त को उत्तराधिकार तो श्री मैथिलीशरण जी गुप्त की भाषा का मिला था, किन्तु, अपने लिए उन्होंने 'पल्लव' की भाषा तैयार कर । छायावाद-काल में भाषा ने जो रूप धारण किया उसी का यह परिणाम हुआ कि खड़ीबोली में भी कविता कविता-सी लगने लगी। यह ठीक है कि पन्त और निराला ने कविता की जो भाषा प्रस्तुत की, वह ठीक उसी रूप में, आगे के कवियों को स्वीकृत नहीं हुई, किन्तु, मेरी या बच्चन की कविताओं की भाषा भी छायावादी युग के प्रयोगों से शिक्षा लेकर तैयार हुई है। और इस युग ने छन्दों में तो इतनी विविधता उत्पन्न की कि, सचमुच ही, हिन्दी - कविता की वीणा सहस्र तारोंवाली हो गयी ।

छायावाद के दो अन्य लक्षण भी उल्लेखनीय हैं। एक तो अतीत की ओर आसक्ति से देखने की प्रवृत्ति और दूसरा, जीवन के सरल रूप पर लौट चलने का भाव। भारत में अतीत की ओर देखने का एक प्रबल कारण तो यह भी था कि यह जाति दासता के पाश में आबद्ध थी और वह अतीत - स्मरण के द्वारा अपने गौरव को जगा रही थी। किन्तु, इसके सिवा, छायावाद को अतीत की ओर देखने में एक प्रकार का सुख भी मिलता था जिसका राजनीति से कोई सम्बन्ध न था। रोमांटिक आन्दोलन का मूलाधार भावुकता है और भावुकता जब वर्तमान से असन्तुष्ट हो जाती है तब, स्वभावतः वह अतीत की ओर लालसा से दौड़ती है क्योंकि दूर के ढोल सुहावने होते हैं। और सरल जीवन पर लौट चलने का मोह भी यह बतलाता है कि कवियों को सभ्यता की कर्कशता से चोट लगी होगी। यों, सरल जीवन की महिमा भारत में सदैव प्रसिद्ध रही थी। कुछ यह कारण भी हो सकता है कि थुरो, एमर्सन, व्हिटमैन, वर्डस्वर्थ और कालरिज ने सरल जीवन के आदर्श को जो उत्थान दिया था, काल-क्रम में, उसका प्रभाव यहाँ भारतवर्ष में भी पड़ा।

कविता में प्रगीतों का जो महत्त्व है, वह किसी और काव्य का नहीं। काव्य के अन्य रूपों में कुछ भूसे और छिलके भी होते हैं। किन्तु, प्रगीत का काम केवल बीज से चलता है और बीज का भी उसमें वही अंश प्रधान होता है जिसमें उत्पन्न करने की शक्ति है। प्रगीत काव्य का निचुड़ा हुआ रस होता है और छायावाद, मुख्यतः, प्रगीतों का अन्दोलन था। छायावाद - काल में हिन्दी के कुछ अद्भुत गीत लिखे गये जो हिन्दी के सभी गीतों में मिश्रित कर दिये जाएँ तब भी अपनी ज्योतिर्मयता के कारण वे अलग पहचान लिये जायेंगे। इससे भी बड़ी बात यह हुई कि छायावादी प्रयोगों ने गीतों की विशाल भूमि का द्वार उन्मुक्त कर दिया। छायावाद के बाद हिन्दी में जितने भी प्रकार की कविताएँ लिखी गयी हैं, उनमें गीतों की संख्या सब से विशाल है और इनमें से कितने ही गीत ऐसे हैं जो अपनी झंकार से हमारे पूरे जीवन को झंकृत कर देते हैं।    

     यह आन्दोलन विचित्र जादूगर बन कर आया था। जिधर को भी इसने एक मुट्ठी गुलाल फेंक दी, उधर का क्षितिज लाल हो गया। हिन्दी की राष्ट्रीय कविताएँ जो अब तक उपदेशों और प्रवचनों का नीरस भार ढोती आयी थीं, इसी काल में आकर अनुभूतियों के सच्चे आलोक से जगमगा उठी और सीधे उपदेशों का आश्रय बनना छोड़कर उन्होंने अनुभूति के जोर से जनता का हृदय हिलाना शुरू कर दिया। राष्ट्रीय कविताएँ भी प्रचार न होकर अनुभूतियों का जीवित कोष होती हैं, यह बात माखनलाल, नवीन और सुभद्राकुमारी चौहान की रचनाओं को देखकर अनायास स्पष्ट हो जाती है। छायावाद अपना काम बड़ी उमङ्गों के साथ कर रहा था, किन्तु, सुशिक्षित जनता के बोच भी उसकी कविताओं का कोई विशेष प्रचार न था, हाँ, भावुक किशोर छात्र उन्हें अवश्य पढ़ते थे। ऐसे समय में छायावाद-कालीन राष्ट्रीय कविताओं ने बड़ा काम किया, क्योंकि, मुख्यतः, उन्हीं को लेकर जनता और समकालीन काव्य के बीच सम्बन्ध का तार
अनुस्यूत रहा।
     छायावाद के आगमन से पूर्व ही प्रसिद्ध होनेवाले कवियों में एक मैथिलीशरण जो गुप्त ही ऐसे निकले जिन पर नये आन्दोलन का यत्किंचित् प्रभाव पड़ा और इस प्रभाव से उनकी कविताओं में भी नया रङ्ग दमकने लगा। 'द्वापर', 'यशोधरा', 'साकेत का नवम सर्ग' और 'झंकार' के कुछ गीत उन्होंने छायावाद-युग में ही लिखे थे। उनके अनुज श्री सियारामशरण जी गुप्त ने भी छायावाद से प्रेरणा ग्रहण की तथा अपनी प्रवृत्ति ने के अनुसार उन्होंने इस प्रेरणा की अभिव्यक्ति क्लासिक पद्धति से की। छायावाद-युगीन हिन्दी कविताओं में श्री सियारामशरण की कविताओं का, किसी-न-किसी दिन, अद्भुत मूल्य आँका जाएगा, क्योंकि इस काल में वे एक ऐसे कवि हुए हैं जिसने प्रवाह में अपने को बहने नहीं दिया, जिसने भावुकता को दबा कर उससे अपनी क्लासिक शक्ति की वृद्धि की क्लासिक उन्हें मैं इसलिए मानता हूँ कि उनकी शैली और भङ्गिमा में उद्वेग का कहीं नाम भी नहीं है।
       छायावादी आन्दोलन ने हिन्दी में बड़ा काम किया, किन्तु उसको अपनी उपलब्धियों का भविष्य में क्या महत्त्व होनेवाला है ? जब यह आन्दोलन जीवित था. उसकी रचनाओं को पढ़ने की थोड़ी-बहुत उत्सुकता, सब में नहीं, तो छात्रों के एक अल्प भाग में अवश्य थी। किन्तु, पाठ्यक्रमों को बाद दे दें तो अब उन कविताओं को पढ़ने की इच्छा बहुत कम दिखायी देती है। और ये बहुत कम लोग भी वे हैं जो कारण-विशेष से हिन्दी कविताओं से परिचित होना चाहते हैं, इसलिए नहीं कि
छायावादी कविताएँ उन्हें अपने आकर्षण से खींचती हैं। खड़ीबोली के कवियों में अब तक केवल श्री मैथिलीशरण जी गुप्त ही हैं जिनके बारे में यह कहा जा सकता है कि जनता उन्हें पढ़ना चाहती है और यदि पाठ्यक्रमों से निकाल भी दी जाएँ तो उनकी कितनी ही पुस्तकें जनता में, फिर भी, चलती रहेंगी। किन्तु, यही बात 'कामायनी' के बारे में नहीं कही जा सकती। और तो और, जो छात्र 'कामायनी' पढ़कर कॉलेजों से निकल जाते हैं उन्हें भी अवकाश के समय 'कामायनी' उलटने की इच्छा नहीं होती। फिर भी, देश में जहाँ तहाँ ऐसे मनीषी हैं जो 'कामायनी' को आनन्द के लिए पढ़ते हैं। किन्तु, उनकी संख्या अत्यन्त अल्प है।

       'परिमल' तो, खैर, कभी पाठ्यपुस्तक रहा ही नहीं, न सौ पचास उदीयमान कवियों को छोड़ कर और कोई उसे पढ़ने जाता है। हाँ, जब हम छायावादी युग की कृतियों पर विचार करते हैं तब प्रत्येक बार "राम की शक्ति-पूजा" हमारे सामने आती है और इसमें कोई सन्देह नहीं कि सम्पूर्ण छायावाद-युग की श्रेष्ठतम कृति के रूप में इस रचना का उल्लेख अत्यन्त समीचीन है। किन्तु, छायावाद-युग में छायावाद के एक अग्रणी कवि द्वारा विरचित होने पर भी यह कविता छायावाद की कृति नहीं है। वह तो शुद्ध क्लासिक पद्धति की रचना है। इसी प्रकार, छायावाद-युगीन जो भी कविताएँ उस काल की सफल कृतियों के रूप में समादृत चली जा रही हैं (जैसे पन्त जी का नौका विहार, एक तारा, अप्सरा, मौन निमन्त्रण, लायी हूँ फूलों का हास आदि कविताएँ तथा महादेवी जी के नीरजा के पद और निराला जी की सरोज स्मृति, मैं अकेला, शिवाजी का पत्र आदि) वे ठीक वे ही रचनाएँ हैं जिनमें अभिव्यक्ति की स्वच्छता और सुस्पष्टता तथा पूर्वापर सम्बन्धों का अच्छा निर्वाह है अर्थात् जिन कविताओं को लिखते समय कवि ने क्लासिक शक्ति का सहारा लिया था। उस समय भावुकता के अन्धे तूफान में जो असंख्य कविताएँ लिखी गयीं उनमें बहुत ही थोड़ी रचनाएँ आज जीवित कही जा सकती हैं और आशा यह है कि इन्हीं थोड़ी रचनाओं में से कुछ को काल सौ दो सौ वर्ष आगे ले जाएगा। बौद्धिक दृष्टि से भारत अभी भी विश्व का पिछड़ा हुआ भाग है, किन्तु, इस देश में भी दिनोंदिन बौद्धिक शक्तियाँ विकास पर हैं तथा ज्यों-ज्यों हमारी बौद्धिकता में वृद्धि होती है, निरी भावुकता हँसी की वस्तु बनती जा रही है। यह ठीक है कि सम्बुद्धिवादियों की कल्पना के अनुसार, मानवता बुद्धि के धरातल से ऊपर उठकर किसी अन्य धरातल पर पाँव रखनेवाली है। किन्तु यह धरातल भावुकता या चेतना की सनसनाहट का धरातल नहीं होगा। बुद्धि से ऊपर उठने पर मनुष्य, कदाचित् (से सम्बुद्धि के स्तर पर जानेवाला है और सम्बुद्धि का अर्थ बुद्धि की दुर्बलता नहीं, अपितु, उसकी अत्यन्त समाधिस्थ एवं केन्द्रित प्रक्रिया है।
     

  जब प्रगतिवादी आन्दोलन का आरम्भ हुआ, आलोचकों ने छायावाद को पलायनवाद कहना आरम्भ किया और छायावाद को यह गाली उन्होंने इस सन्तोष के साथ
दी, मानों, पलायनवादी कहने से बढ़कर साहित्यकार की और कोई निन्दा नहीं हो सकती। और हमलोग भी, जिनकी आँखें अभी-अभी खुली थीं, और जो पूरे मन से प्रगतिवादी धारा के साथ थे, मन ही मन, इस आलोचना से प्रसन्न होते थे। किन्तु, आज मुझे स्पष्ट दिखायी देता है कि प्रगतिवादियों ने उस समय छायावाद की असली कमजोरी को नहीं समझा। पलायनवाद से केवल इतना ही सूचित होता है कि समाज के सामने जो समस्याएँ थीं, छायावादियों ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया और एकान्त में वे अपनी कल्पना के साथ सुहाग मनाते रहे। किन्तु, यह तो कविता का भाव-पक्ष है और कवि के लिए भावों की सूची निर्धारित करने का अधिकार दूसरों को तो क्या, स्वयं कवि को भी प्राप्त नहीं होता। कवि जिन संस्कारों में पल कर युवा होता है, जिस वातावरण में साँस लेकर बढ़ता है, वह वातावरण और वे संस्कार उसके भावों और सन्देशों का आप-से-आप निश्चयन कर देते हैं। प्रत्येक कवि अपनी भाव-दिशा और सन्देश को पूर्व निर्धारित पाता है और वह प्रयास करने पर भी उनसे भाग नहीं सकता। कौन कवि किन भावों से प्रेरित होकर लिख रहा है, कला में इस प्रश्न का स्थान हमेशा गौण रहता आया है। मुख्य प्रश्न तो यही हो सकता है कि कवि के भीतर जो भाव उठते हैं उन्हें वह पूरी सामर्थ्य के साथ लिख पाता है या नहीं। कवि में केवल प्रेरणा की गुदगुदी ही नहीं, उसे सम्यक् रूपेण चित्रित करने की शक्ति भी चाहिए। इनमें से पहला गुण भावुकता से उत्पन्न होता है, किन्तु, दूसरे गुण का आधार बौद्धिक विदग्धता और साधनाओं द्वारा अर्जित कठोर शक्ति है। छायावाद की असली दुर्बलता इसी दूसरे पक्ष की दुर्बलता थी। छायावादी कवि अपनी प्रेरणा को ठीक से पहचानने में असमर्थ थे और इससे भी बड़ी असमर्थता उनकी यह थी कि अनुभूति और प्रेरणा का जो स्वरूप उनकी समझ में आया भी, उसे वे प्रभुत्व में लाकर पूरी विदग्धता से नहीं लिख सके।

        हिन्दी के आलोचक अभी भी इस खोज में तल्लीन है कि किस कवि के भाव मानवतावादी क्रान्तिवादी, प्रगतिवादी प्रतिक्रियावादी अथवा विनाशवादी हैं। मेरे देखने में अब तक ऐसी आलोचनाएँ बहुत कम आयी हैं जिनमें विषयों को छोड़कर काव्य की शैली पर विचार किया गया हो। भावों का काव्य की गरिमा बढ़ाने में बड़ा हाथ होता है, जिसके प्रमाण तुलसीदास जी की रामायण और इक़बाल तथा इलियट की कविताएँ हैं। किन्तु, काव्य ऊँचे भावों के बिना भी अत्यन्त महान् हो सकता है, जिसके उदाहरणों में बिहारी सतसई, मियाँ नज़ीर अकबराबादी को कविता और कीट्स के 'सेंट एगनेस ईव' की गणना की जा सकती है। कविता का महत्त्व ज्ञान-दान में नहीं, सौन्दर्य की सृष्टि में है। ज्ञान देनेवाली विद्याएँ साहित्य से बाहर भी मौजूद है जो इतना ज्ञान देती हैं जितना किसी भी कविता के लिए अदेय है। और जब कविता में ऊँचे विचारों का प्राधान्य हो, तब भी कवि की गरिमा के कारण वे विचार नहीं, वह काव्यात्मक प्रणाली होगी जिससे विचारों का भाव पक्ष उभार पाता है। यह दुर्भाग्य की बात है कि हमारे आलोचक आज भी अपनी जेब के नब्बे प्रतिशत अङ्क भावों की ऊँचाई के लिए ही देते हैं। किन्तु यह स्थिति अब समाप्त होने ही वाली है। हमारी भाषा में भी वे सत्समालोचक उत्पन्न होकर रहेंगे जो कवि को दण्डित या पुरस्कृत करने के लिए भावों की उपयोगिता और अनुपयोगिता पर न जाकर, परिश्रमपूर्वक यह देखने की चेष्टा करेंगे कि कवि को जो कुछ कहना था उसे उसका सम्यक् ज्ञान था या नहीं तथा यदि ज्ञान था तो उस भाव को उसने पूरी समर्थता के साथ लिखा है या नहीं। आश्चर्य की बात है कि, प्रायः सभी आलोचक कविता को कला का पर्याय मानते हैं, किन्तु, आलोचना के समय वे काव्य की शैली को छोड़कर उसमें वर्णित भावों से उलझकर अपना कर्तव्य समाप्त कर देते हैं। कोई विस्मय नहीं, यदि हिन्दी का आलोचना-पक्ष आज भी उसके अन्य कितने ही पक्षों से अधिक कमजोर है।

रीति-युग से लेकर छायावाद-काल तक की हिन्दी कविता की प्रगति का यह संक्षिप्त विवरण उपस्थित करने के बाद, अब वह प्रसङ्ग आता है जब मुझे आत्मकथा की शैली का सहारा लेना चाहिए।

जहाँ तक कविता का सम्बन्ध है, मैने प्रेमपूर्वक पहले-पहल तुलसीकृत रामायण ही पढ़ी थी। मेरे बचपन में रामायण का हमारे गाँव में अच्छा प्रचार था। शाम होते ही मेरे दरवाज़े पर श्रोता आ जुटते, मैं लालटेन या दिये के पास बैठ कर रामायण का सस्वर पाठ करता और भाई साहब उसका अर्थ कहते जाते। यह सिलसिला कई साल तक चला और इस कार्य को मैंने कभी भी बोझ नहीं समझा। रामायण का गान करने में मुझे स्वयं आनन्द आता था और चूँकि मेरे गान को गाँव के लोग प्रसन्न होकर थे, इससे रामायण का पाठ मुझे और भी आनन्ददायी लगता था। किन्तु, रामायण पढ़ते समय कभी भी मुझे तुलसीदास बनने की इच्छा हुई हो, ऐसा याद नहीं आता है। उस समय रामायण में मेरी दिलचस्पी बहुत कुछ वैसी ही रही होगी जैसी कि गाँववालों की होती है। तुलसीदास पूज्य थे, मनुष्यों के बीच देवता के समान थे, वे कवि नहीं, सन्त थे, फिर मैं उनका अनुकरण करने का साहस कैसे करता ?

जहाँ तक याद है, कविता लिखने की प्रेरणा मुझमें नाटक और रामलीला देखकर उत्पन्न हुई। जब भी मैं नाटकवालों के मुख से कोई गीत सुनता, दूसरे दिन उसी धुन में एक नया गीत बना लेता। यह भी प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के ही आस-पास की बात है जब मैं आठ-दस साल का रहा होऊँगा। तब सन् १९२० ई० में कानुपर के 'प्रताप' में "एक भारतीय आत्मा" की वह कविता छपी जिसे उन्होंने लोकमान्य तिलक की मृत्यु पर लिखा था। इस कविता का मुझ पर अत्यन्त प्रभाव पड़ा। वह कविता तो मुझे दूसरे ही दिन कण्ठ हो गयी, अब मैं पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ ढूँढ-ढूँढ कर पढ़ने लगा। यह देश में असहयोग का जमाना था और जो भी पत्र-पत्रिका मेरे हाथ लगती, उसमें पढ़ने को कोई-न-कोई राष्ट्रीय कविता ही मिल जाती। उन दिनों जबलपुर से 'छात्र सहोदर' नामक मासिक पत्र निकलता था जिसके सम्पादक कविवर अंचल जी के पिता पण्डित मातादीन शुक्ल थे। मेरे भाई (श्री बसन्त सिंह) इस पत्र के ग्राहक थे और वह नियमित रूप से हमारे यहाँ आता था। मैं हर महीने इस पत्र की राह बड़ी ही आतुरता से देखता और महीने का अङ्क मिलते ही मैं उसमें प्रकाशित पद्यों को चाट जाता। संयोग ऐसा कि इस पत्र की भी सारी कविताएँ राष्ट्रीयता से ही ओत-प्रोत होती थीं।

      पत्र-पत्रिकाओं से रस पाकर जब मैं समकालीन काव्य-पुस्तकों की ओर बढ़ा तब मुझे भारत-भारती मिली, जयद्रथ वध और शकुन्तला तथा किसान पढ़ने का अवसर मिला एवं जब श्री रामनरेश त्रिपाठी का "पथिक' निकला, मैं उस ग्रन्थ में आपाद मस्तक डूब गया। 'पथिक' मुझे इतना पसन्द आया जितना और कोई ग्रन्थ नहीं रुचा था। उन्हीं दिनों मैने पथिक के अनुकरण पर "वीर बाला" और जयद्रथ वध के अनुकरण पर "मेघनाद-वध", ये दो खण्ड काव्य लिखने आरम्भ किये, किन्तु, दोनों के दोनों प्रयास तीन-चार सर्गों तक चलकर ही अवरुद्ध हो गये। अलबत्ते, सर्गबद्ध खण्डकाव्य के रूप में मेरी पहली पुस्तक विक्रम सम्वत् सन् १९८६ में निकली जिसका नाम "प्रण-भङ्ग" था और जिसका उल्लेख, कैसे तो, पण्डित रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास में हो

गया है।

      हिन्दी कविता में छायावाद नाम से जो आन्दोलन चल रहा था, उसका कुछ थोड़ा परिचय मुझे १९२५-२६ में मिला, जब मैं आठवीं या नवीं कक्षा में पढ़ता था। स्कूल में, कभी-कभी, सरस्वती, सुधा और माधुरी के अङ्क मिल जाते थे, किन्तु, 'मतवाला' मैं नियमित रूप से पढ़ता था। छायावाद की कविताएँ मेरी समझ में कम आती थीं और, अक्सर, काव्य-प्रेमी मित्रों से बात करते समय मैं इन कविताओं का विरोध ही करता था। तब सन् १९२८ ई० में मुजफ्फरपुर में अ० भा० हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन पण्डित पद्मसिंह शर्मा के सभापतित्व में हुआ। शर्मा जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में छायावाद की काफी निन्दा की थी जिसके विरोध में वहाँ साहित्य संघ के अधिवेशन में श्री रामनाथ लाल सुमन ने निबन्ध पढ़ा तथा पण्डित बालकृष्ण शर्मा नवीन ने नये कवियों का पक्ष लेते हुए बड़ा ओजस्वी भाषण दिया। इसी सभा का सभापतित्व करते हुए हरिऔध जी ने कहा था कि मुझे तो मैथिलीशरण की अपेक्षा सियारामशरण की कविताएँ ही अधिक पसन्द हैं। छायावाद को अधिक समीप से समझने की प्रेरणा मुझे इसी सम्मेलन में प्राप्त हुई। मैट्रिक पास करके आगे पढ़ने को मैं जब पटना आया, तब पत्र-पत्रिकाओं और काव्य-संग्रहों को देखने का अवसर मेरे लिए बहुत सुलभ हो गया। उन दिनों, साहित्य का नेतृत्व सुधा और माधुरी, इन दो पत्रिकाओं के हाथ था और सारे साहित्यिक विवाद, मुख्यतः, इन्हीं पत्रिकाओं में छपते थे। पटना आने पर छायावादी कविताओं से मेरा परिचय तो अवश्य बढ़ा, किन्तु, इन कविताओं पर मुझे कभी भी निश्छल श्रद्धा न हो सकी। ऐसा लगता है कि इन कविताओं की प्रसादहीनता मेरे लिए सबसे बड़ी बाधा थी। मेरे भीतर बचपन का अर्जित तुलसी का संस्कार था और पीछे, जब मैं कबीर का अध्ययन करने लगा, तब कबीर से भी यही प्रेरणा मिली कि कविता समझ में आने योग्य होनी चाहिए जिससे पाठक उसका अधिक-से-अधिक आनन्द ले सकें। आज ऐसी बहुत-सी छायावादी कविताएँ मेरी समझ में भी आने लगी हैं, जो उन दिनों दुरूह लगती थी। किन्तु, इस दुरूहता के भय ने उस समय मुझे छायावादी आन्दोलन के साथ एकात्म होने नहीं दिया।

      अपनी तत्कालीन रुचि का स्मरण करने पर मुझे ऐसा याद आता है कि छायावादी युग में भी मेरे सबसे प्रिय कवि मैथिलीशरण, माखनलाल, सुभद्रा, नवीन और रामनरेश त्रिपाठी ही थे। कॉलेज में मुझ में शेली और वर्डस्वर्थ, दोनों के लिए उत्साह था और बँगला सीख कर तभी मैने रवीन्द्र और नज़रुल से भी परिचय बढ़ा लिया था। पीछे, जब मैं नौकरी करने लगा, तब मैने उर्दू सीखी और इकबाल तथा जोश का मैं भक्त बन गया। यो भी, कविता- कौमुदी के उर्दू-भाग की प्रति मैं, अक्सर अपने साथ रखता था, क्योंकि उर्दू कविता में अभिव्यक्ति की जो स्वच्छता रहती है उसका मैं सदा से कायल रहा हूँ । छायावादी कवियों में से एक समय श्री लक्ष्मीनारायण मिश्र के "अन्तर्जगत" और श्री जनार्दन प्रसाद झा द्विज की कविताओं को मैंने भी पढ़ा था। खेद की बात है कि छायावाद के विवेचन के क्रम में अब लोग इन कविताओं का नाम भी नहीं लेते हैं। किन्तु, जब छायावादी आन्दोलन अपने ज़ोर पर था, इन दो कवियों की बानगी दिये बिना छायावाद के समर्थन की प्रक्रिया पूरी नहीं समझी जाती थी। और इसमें सन्देह नहीं कि छायावाद की धूमिल भावुकता के जैसे प्रमाण इन कवियों की रचनाओं में उतरे थे, वैसे अन्यत्र दुर्लभ थे। यह भी विचित्र बात है कि निराला जी की कविताओं से अधिक समीपता मेरी पन्त जी की कविताओं से रही और प्रसाद से बढ़कर मैं श्री मैथिलीशरण के पास रहा। और जो लोग मुझसे कुछ पहले या बाद से लिखते रहे हैं, उनके बीच भी मेरी रुचिगत आत्मीयता श्री भगवतीचरण वर्मा, श्री रामसिहासन सहाय, श्रीराम सिंहासन सहाय, मधुर (बलिया वाले), नरेन्द्र, बच्चन, सुमन, नेपाली और नागार्जुन से ही बैठती है। 

अपनी रूचि का मैंने जो विवरण दिया है, उससे एक सिद्धान्त बड़ी आसानी से निकाला जा सकता है कि मैं सौन्दर्य से अधिक सुस्पष्टता का प्रेमी हूँ । कविताओं में अनुभूतियों की बारीकियाँ या ऊँचे-ऊँचे भाव मुझे तभी जँचते हैं, जब वे अनुरूप शैली में स्वच्छता से अभिव्यक्त किये गये हों। जब भी कोई ऐसी कविता मेरे सामने आती है जिसमें अभिव्यक्ति सबल और स्वच्छ नहीं दीखती, जिसमें कल्पना का रङ्गीन धुआँ और कोमल शब्दों का जाल मात्र होता है, मैं उस कविता को वहीं छोड़ देता हूँ। प्रायः, पच्चीस-तीस वर्षों तक विभिन्न कविताओं का अध्ययन करते-करते मेरी यह धारणा दृढ़ हो गयी है कि अभिव्यक्ति की अस्वच्छता से पीड़ित कविताओं के पक्ष में जो कुछ भी कहा जाता है, सब बकवास है। यह काव्य के सरल या कठिन होने का प्रश्न नहीं । "राम की शक्ति-पूजा अत्यन्त कठिन काव्य है, किन्तु, उसमें एक छोटा टुकड़ा भी ऐसा नहीं है जिसमें अभिव्यक्ति अस्वच्छ रह गयी हो। पन्त जी की "लायी फूलों का हास" अत्यन्त वायवीय कृति है, किन्तु उसमें की अनुभूतियाँ जिस स्वच्छता के साथ चित्रित हुई हैं उसे देख कर आश्चर्य होता है। अनेक कवियों की प्रतिभा इसलिए बर्बाद हो जाती है कि जो अनुभूतियाँ उनके बस की हैं, जिन अनुभूतियों को वे सफाई के साथ लिख सकते हैं, उन पर कलम चलाने में वे अपना अपमान समझते हैं और जिन अनुभूतियों पर उनका बस नहीं चलता, अमरता के लोभ में, वे उन्हीं के पीछे दौड़ कर अपनी यह जिन्दगी भी गँवा बैठते हैं। न जाने कब यह बात अनेक आलोचकों और कवियों की समझ में आएगी कि कविता की महत्ता का कारण भावों की उच्चता नहीं, अभिव्यक्ति की सफाई होती है। बिहारीलाल के भाव कितने ऊंचे हैं ? क्या लड़कियों की अदाएँ बहुत ऊँचे भावों का प्रतिनिधित्व करती हैं? फिर भी, बिहारी ऐसे कवि हैं जिनको सामने रखकर अच्छे से अच्छे कवियों की सफलता आँकी जा सकती है।

        किन्तु, ये बातें तो मैंने पण्डितों का उच्छिष्ट खा-खाकर बहुत बाद को सीखीं। सच तो यह है कि जब मैने कविता लिखना आरम्भ किया, उस समय काव्य सम्बन्धी • सिद्धान्तों का मुझे कुछ भी ज्ञान न था, न मैं यही जानता था कि कविता क्यों लिखी जानी चाहिए। इधर-उधर से यह बात जरूर सुन रखी थी कि कविता लिखनेवालों को पिङ्गल अवश्य पढ़ लेना चाहिए और तदनुसार, पिङ्गल पर मैंने कुछ श्रम भी किया था। किन्तु, पिङ्गल के अतिरिक्त रस और अलङ्कार के जो ग्रन्थ अपने यहाँ कवि शिक्षा के लिए अनिवार्य समझे जाते थे, उनका मुझे नाममात्र को ही ज्ञान था। और तो और, उस समय मुझे हिन्दी व्याकरण का भी शुद्ध ज्ञान नहीं था और हिन्दी व्याकरण का सम्यक् ज्ञानी होने का दावा मैं आज भी नहीं कर सकता), यहाँ तक कि रेणुका की भाषा सम्बन्धी कई अशुद्धियों पर मैं आज भी मस्तक धुनता हूँ, पर, उन्हें हटा नहीं पाता । कदाचित्, मोहवश में इस चिन्ता से हार जाता हूँ कि अशुद्धियों को हटाने पर उनके साथ लिपटा हुआ कुछ सौन्दर्य भी दूर हो जाएगा। यह ऐसी बात है जो जबरन मुझे भी सौन्दर्यवादियों के शिविर में पहुँचा देती है, यद्यपि, कविता में जिसे सजाव और सँवार कहते हैं उस पर मैंने कम ही ध्यान
दिया है।


      और मेरा यह दोष आलोचकों की दृष्टि से ओझल भी न रहा । रेणुका और हुङ्कार के प्रशंसकों तक ने यह विलाप किया था कि मैं कला और कारीगरी पर ध्यान नहीं देता हूँ। ऐसी आलोचनाओं से मन तो कुछ छोटा अवश्य हो जाता था, किन्तु, इस दोष को दूर करने का मेरे पास कोई उपाय न था, न किसी आलोचक ने ही कभी दया करके यह दिखलाने का प्रयास किया कि मेरे इस दोष के उदाहरण कहाँ-कहाँ है और वे कैसे दूर किये जा सकते हैं। निदान, स्वाध्याय के बल पर मैंने स्वयं इस अभाव को समझने की कोशिश की और उस मार्ग का मुझे कुछ थोड़ा-सा आभास भी मिला जिससे यह अभाव दूर किया जा सकता था। किन्तु, बार-बार आजमाने पर मुझे यह पता चल गया कि कलाकार, कारीगर और पच्चीकार होने की धीरता मुझमें नहीं है। उन दिनों, प्रेरणाएँ मेरे भीतर बड़े जोर से आती थीं और मैं सजाव-सँवार का बहाना बना कर उनके प्रवाह को रोक नहीं सकता था। मैं मकान खड़ा करने के काम में इतना व्यस्त हो जाता था कि पत्थरों को छेनी और हथौड़ी से गढ़ने या चिकना करने का कार्य मुझे अप्रिय और फालतू-सा लगता था। रेणुका से लेकर कुरुक्षेत्र के काल तक मेरी कल्पना का यह हाल था कि वह प्रतियोगिता के रस्से के समान तनी होती थी और मैं समाधि की उस अवस्था में निमग्न रहता था जो भीतर से चौगुनी जाग्रत, किन्तु, बाहर से निस्पन्द होती है। भाव जब सुस्पष्टता से अनुभूत होते हैं, तब अभिव्यक्ति में सफाई, आप से आप, आ जाती है। मैं भावों की स्वच्छ अनुभूति के लिए देर देर तक समाधि में रह जाता और जब तक यह विश्वास नहीं होता कि भावों को मैं ठीक-ठीक समझ गया हूँ तब तक मैं रचना का आरम्भ करता ही नहीं। भावों को ठीक से समझे बिना कविता लिखने का अभ्यास मुझे नहीं था। जब मुझे यह आभास मिलता कि मैं कविता लिखनेवाला हूँ, मैं प्रयत्नपूर्वक अपने को मन्दोन्माद की स्थिति में पहुँचा देता और वहाँ पहुँच कर मैं किसी अज्ञात शक्ति के अधीन हो जाता था। फिर मेरा सारा ध्यान इस जिज्ञासा पर केन्द्रित हो जाता कि, असल में, मैं कहना क्या चाहता हूँ और जो कुछ मैं कहना चाहता हूँ वह स्वच्छता से अभिव्यक्त हो रहा है या नहीं। और इस क्रम में मेरे अवचेतन का कलाकार कभी भी मेरे साथ हस्तक्षेप नहीं करता। शायद, उसका यह भाव रहा हो कि अभिव्यक्ति की स्वच्छता स्वयं हो सौन्दर्य है।


     शब्द तो मेरे सामने भी अनेक होते थे और मुझे भी उनके बीच चुनाव करना पड़ता था। किन्तु, शब्दों का चयन मैं उनके रूप नहीं, सामर्थ्य के कारण करता था। असल में, शैली भावों से सर्वथा भिन्न वस्तु नहीं होती। अभिव्यक्ति के धुँधलेपन को मैं इस बात का प्रमाण मानता हूँ कि कवि भावों की सुस्पष्ट अनुभूति नहीं कर सका है। भावों को हम जिस रूप में प्राप्त करते हैं, उन्हें जिस शीतलता या ताप के साथ, जिस धूमिलता या सुस्पष्टता के साथ अथवा जिस उद्वेलित या शमित मनोदशा में ग्रहण करते हैं, वही मनोदशा हमारी शैली बन जाती है। और चूँकि मेरी कल्पना रस्से के समान इंच-इंच तनी होती थी, इसलिए शब्द भी मुझे वे ही पसन्द आते थे जो इस तनाव को अभिव्यक्त कर सकें। कविता लिखते समय मेरी मनोदशा कैसी होती थी, इसका कुछ अनुमान सहृदय इस बात से लगा सकते हैं कि प्राय: ही, रचना के समय मुझ में सात्विक भाव (रोमांच, वेपथु, अश्रु, वैवर्ण्य, स्वेद आदि) जग पड़ते थे और एक रचना पूरी करते-करते उनकी कई-कई आवृत्तियाँ हो जाती थीं। और यह भी सत्य है कि मेरी जिन कविताओं से पाठक और श्रोता सबसे अधिक आन्दोलित हुए, वे ठीक वे ही कविताएँ हैं जिनकी रचना के समय मैंने सात्विक भावों का सबसे अधिक अनुभव किया था ।

        अभिव्यक्ति की सफाई के लिए जितनी कला अपेक्षित है, उतनी कला का ध्यान, शायद, मुझे भी था। किन्तु, चुन-चुन कर रङ्गीन और चिकने शब्द बिठाने के लिए मैं अधिक श्रम नहीं करता था। मेरी सारी चेष्टा इस बात पर केन्द्रित थी कि भीतर जो आग उबल रही है वह फूट कर बाहर आ रही है या नहीं तथा जो भी इसके पास आयेगा उसे यह छू सकेगी या नहीं। रेणुका और हुङ्कार, सामधेनी और कुरुक्षेत्र, द्वन्द्वगीत और बापू, इनमें मैंने जो कुछ भी गाया है, आत्मा के जोर से गाया है, कण्ठ फाड़ कर गाया है, हृदय चीर कर गाया है। इन कविताओं में मैंने कहीं भी तकनीक और साहित्यिक फरमूलों का जान-बूझ कर उपयोग किया हो, ऐसा तनिक भी याद नहीं आता। मेरा ख्याल है, नज़रुल और इक़बाल, जोश और माखनलाल तथा सुभद्रा और नवीन भी अपनी ओजस्विनी कविताओं को रचते समय, इसी प्रकार, प्रेरणा में विभोर रहे होंगे। इस अनुमान का कारण यह है कि ये कवि हुङ्कार और कुरुक्षेत्र के रचयिता के आत्मिक बन्धु रहे हैं। उन्होंने अनेक बार हुड्ङ्कार के कवि की आग में आहुतियाँ डाली थी और अनेक बार उन्होंने उसे उस शिखर की ओर बढ़ने को इङ्गित किया था जहाँ पहुँचने का मार्ग केवल एक उड़ान का मार्ग है, जहाँ वे लोग कभी भी न पहुँचेंगे जो रास्ते में रुक कर एक बार भी दम लेना चाहते हैं अथवा जो खूबसूरत सीढ़ियाँ काट कर धीरे-धीरे चलने के अभ्यासी है।
       यह विचित्र बात है कि साहित्य में ठुमुक ठुमुक कर चलने में कला मानी जातो है, दौड़ कर चलने में नहीं। थकी आवाज में दम ले-लेकर बोलने को कला कहते हैं, प्रभावोत्पादक ढङ्ग से गरज कर बोलने को नहीं। आँसू जब थोड़े-थोड़े चलते हो तब उनमें कला होती है, जब जोर से चलते हों तब नहीं। इसी प्रकार, पौरुष का सिंहनाद हो तब कला नहीं है, भूख और रोटी की बात हो तब कला नहीं है, अन्याय के विरुद्ध आक्रोश हो तब कला नहीं है; कला नारियों के कुन्तल-जाल और असली या ख्याली प्रेमिका के लिए उठनेवाली तड़प और पुकार में मानी जाती है। और अब तो कला धीरे-धीरे सिमट कर उस दुनिया में बसने जा रही है जहाँ सारे काम आशा के विपरीत होते हैं; जहाँ लोग सुविकचस्वस्थ सुमनों को छोड़ कर सूखे, अधजले या घुन लगे पत्तों से प्रेम करना सीख रहे हैं, जहाँ के फूल जुही और चमेली नहीं, नागफेनी और बबूल हैं तथा जहाँ रसिकता युवती मानवी को छोड़ कर मेढ़की का शृङ्गार कर रही है
     उन दिनों कला और काव्य की प्रक्रिया तथा उद्देश्य के विषय में मुझे बहुत थोड़ा ज्ञान था, इसलिए, लोग जब मुझ पर कलाहीनता का आक्षेप करते तब इस आक्षेप को मैं ठीक से समझ नहीं पाता था और समझता भी तो, जैसा कह चुका हूँ, उसे दूर करने की धीरता का मुझमें अभाव था। यही नहीं, प्रत्युत्, सभी कवियों की भाँति मुझ में भी अपनी कविताओं के प्रति कोई शङ्का या सन्देह, न था। ज्यों-ज्यों मेरी कविताएँ जन समुदाय को आन्दोलित करती गयी, मेरा यह आत्म-विश्वास जोर पकड़ता गया कि मैं समय का पुत्र हूँ और मेरा सबसे बड़ा कार्य यह है कि मैं अपने युग के क्रोध और आक्रोश को, अधीरता और बेचैनियों को सबलता के साथ छन्दों में बाँध कर सबके सामने उपस्थित कर दूँ। मेरे पीछे और मेरे चारों ओर भारतीय मानवता खड़ी थी जो पराधीनता के पाश से छूटने को बेचैन थी। अपने वैयक्तिक जीवन में मैं स्वयं ऐसे युवकों से घिरा था जो देश सेवा का व्रत लिये हुए थे और जो समय के इङ्गित मात्र पर, अपना जीवन होम देने को तैयार थे। उनकी अनुभूतियाँ और उनका उत्साह मुझे अत्यन्त प्रिय और पवित्र लगता था तथा कविताएँ रचते समय मुझे कई बार ऐसा महसूस होता, मानों, मैं उन्हीं की वेदना और आग को अपनी भाषा में लिख रहा हूँ ।
     मेरी राष्ट्रीय कविताओं और मेरे जीवन के बीच एक प्रकार की भिन्नता रही है जो उस व्यक्ति के चारित्रिक विरोधाभास का प्रतीक है जो कहता कुछ और तथा करता कुछ और है। फिर भी, यह सत्य है कि मेरे वचन और कर्म के बीच की खाई अत्यन्त सङ्कीर्ण थी और किसी भी धक्के के साथ मेरा कर्म मेरे वचनों का अनुगामी बन सकता था। किन्तु, इस धक्के से मैं बराबर बचना चाहता था और अन्त तक, मैं उससे बच भी गया।।
     और जीवन के अनुभवों तथा अर्जित साहित्यिक संस्कार के कारण मैं, कदाचित्, वैसा कवि अवश्य बनना चाहता था जिसकी प्रेरणा उसके सामाजिक कर्तव्य ज्ञान से आती है, किन्तु, विप्लव और राष्ट्रीयता का वरण कभी भी मेरा उद्देश्य न था। बारडोली सत्याग्रह के दिनों में मेरी एक छोटी सी पुस्तिका अवश्य छपी थी जिसमें राष्ट्रीयता के गीत थे। किन्तु, उसके बाद जो मेरी पहली पुस्तक प्रकाशित हुई, वह पौराणिक खण्ड काव्य (प्रण-भङ्ग) थी। और रेणुका को देख कर भी, जहाँ से मेरे साहित्यिक जीवन का सुनिश्चित आरम्भ होता है, कोई यह नहीं कह सकता था कि राष्ट्रीयता मेरी
कविताओं का प्रधान गुण होने जा रही थी। रेणुका में राष्ट्रीय भावधारा को व्यक्त करनेवाली दो-तीन ही रचनाएँ हैं। बाकी उस संग्रह में ऐसी ही रचनाओं का प्राधान्य है जिनमें या तो भारत के अतीत का रोना है या जीवन की नश्वरता पर विलाप। और ये दोनों गुण छायावादी संस्कार से आये थे। रेणुका में एक तीसरे प्रकार की भी रचनाएँ हैं जिनमें प्रकृति का भावुकतापूर्ण आख्यान है और यह गुण भी मुझे छायावादियों के प्रकृति प्रेम से ही मिला था।

यह भी स्मरण रखने की बात है कि जिन दिनों मैं रेणुका की कविताएँ लिख रहा था, उन्हीं दिनों मेरे द्वन्द्व-गीत के पदों की भी रचना चल रही थी, प्रत्युत्, रेणुका के प्रथम संस्करण में "धूल के हीरे" के नाम से जो तीस-बत्तीस पद छपे थे, वे इसी द्वन्द्व-गीत के पद थे। सन् १९३९ ई० में जब द्वन्द्व-गीत और रसवन्ती प्रकाशित हुई, प्रगतिवादियों ने उन दोनों पुस्तकों पर अपनी गहरी निराशा अभिव्यक्त की, मानों, कोई वैष्णव धर्मभ्रष्ट हो गया हो, मानों, कोई योद्धा तलवार फेंककर केलि-कुंज में जा बैठा हो ।

तब भी, यह सत्य है कि योद्धा का पद मुझे मन से पसन्द नहीं था, न मैं कलम छोड़कर तलवार उठाने को तैयार था। राष्ट्रीय और क्रान्तिकारी होने का सुयश मुझे हुङ्कार के प्रकाशन के बाद मिला, किन्तु हुङ्कार की पहली ही कविता में (यह कविता, शायद, दूसरे संस्करण से सम्मिलित की गयी) सन्देशवहन और आनन्दवाद-विषयक मेरी द्विधा अत्यन्त मुखर है। "समय-असमय का तनिक न ध्यान, मोहिनी ! यह कैसा आह्वान" में केवल काल्पनिक पीड़ा नहीं है। वह मेरे तत्कालीन कठोर आत्ममन्थन से निःसृत उच्छ्वास है। और हुङ्कार में ही सङ्कलित “हाहाकार’ नामक रचना में जब मैं कविता से यह कहता हूँ कि,


वही धन्य जिनको लेकर तुम 

वसी कल्पना के शतदल पर, 

जिनका स्वप्न तोड़ पाती है 

मिट्टी नहीं चरण -तल बजकर ।


तब मैं आनन्दवादी कलाकारों पर कोई व्यंग्य नहीं करता, प्रत्युत्, उनकी और मैने सात्विक ईर्ष्या से देख कर ही यह बात कही है। संस्कारों से मैं कला के सामाजिक पक्ष का प्रेमी अवश्य बन गया था, किन्तु, मन मेरा भी चाहता था कि गर्जन-तर्जन से दूर रहूँ और केवल ऐसी ही कविताएँ लिखूँ जिनमें कोमलता और कल्पना का उभार हो । यही कारण था कि जिन दिनों हुङ्कार की कविताएँ लिखी जा रही थीं, उन्हीं दिनों मैं 'रसवन्ती' और 'इन्द्र-गीत' की भी रचना कर रहा था और अजब संयोग की बात है कि सन् १९३९-४० ई० में ये तीनों पुस्तकें एक वर्ष के भीतर-भीतर प्रकाशित हो गयीं। और सुयश तो मुझे हुङ्कार से ही मिला, किन्तु, आत्मा मेरी अब भी ‘रसवन्ती' में बसती है । 

राष्ट्रीयता मेरे व्यक्तित्व के भीतर से नहीं जन्मी, उसने बाहर से आकर मुझे आक्रान्त किया। उस समय सारा देश उत्साह से उच्छल और दासता की पीड़ा से बेचैन था। अपने समय की धड़कन सुनने को जब भी मैं देश के हृदय से कान लगाता, मेरे कान में किसी बम के धड़ाके की आवाज़ आती, फाँसी पर झूलनेवाले किसी नौजवान को निर्भीक पुकार आती अथवा मुझे दर्द भरी ऐंठन की वह आवाज़ सुनायी देती जो गाँधी जी के हृदय में चल रही थी, जो उन सभी राष्ट्रनायकों के हृदय में चल रही थी जिन से बढ़ कर मैं और किसी को श्रद्धेय नहीं समझता था। मेरे जानते उस समय सारे देश में एक स्थिति थी जो सार्वजनिक सङ्घर्ष की स्थिति थी, सारे देश का एक कर्तव्य था जो स्वातन्त्र्य संग्राम को सबल बनाने का कर्तव्य था और सारे देश की एक मनोदशा थी जो क्रोध से क्षुब्ध, आशा से चंचल और मजबूरियों से बेचैन थी। भारतवर्ष के इतिहास में यह वह समय आया हुआ था जब कुछ दिनों के लिए, वैयक्तिक कर्तव्यों के निशान मिट जाते हैं, वैयक्तिक अनुभूतियाँ सिमट कर एक कोने में चली जाती हैं और सब के स्थान पर सामूहिक कर्तव्य और सामूहिक अनुभूतियों का साम्राज्य छा जाता है। यह ठीक है कि रवीन्द्रनाथ उस समय जीवित थे, और सारी हलचलों से अलिप्त रह कर वे रहस्यवादी अनुभूतियों में उसी प्रकार तल्लीन थे जैसे योगी नाना बाधाओं के बीच भी सबसे अलिप्त रहता है। हमारी अपनी भाषा में भी पन्त, निराला, महादेवी और प्रसाद, कम-से-कम कविता में, इन हलचलों से अलग रहे, यद्यपि पन्त जी ने गुजन के बाद जिस भावधारा को अङ्गीकार किया, उसका देश के सामाजिक आन्दोलनों से पूरा सम्बन्ध था भिन्नता की बात यह रही कि वे फिर भी संयमशील रहे, किन्तु, मुझ जैसे लोग राष्ट्रीयता एवं क्रान्तिकारी भावनाओं के प्रवाह में यह गये। मेरी वैयक्तिक अनुभूतियाँ धरी रह गयीं और मेरा सारा अस्तित्व समाज और राष्ट्र की अनुभूतियों के अधीन हो गया।

रूपक की भाषा में कहूँ तो मैं अपने समय के हाथ में निश्छल वंशी बनकर पड़ गया। मेरी कविताओं के भीतर जो अनुभूतियाँ उतरी, वे विशाल भारतीय जनता की अनुभूतियाँ थी, वे उस काल की अनुभूतियाँ थी जिसके अङ्ग में बैठकर मैं रचना कर रहा था, वे भारत के पाँच सहस्र वर्ष प्राचीन उस गौरवपूर्ण इतिहास की अनुभूतियाँ थीं, जो सौभाग्यवश, हमारे ही काल में आकर फिर से जीना चाह रहा था। 'राम, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है'. यह उक्ति राम पर सोलह आने लागू हो या नहीं, किन्तु मेरे प्रसङ्ग में वह भारतीय इतिहास और भारतीय जनता पर पूर्ण रूप से चरितार्थ होती है। कवि होने की सामर्थ्य मुझ में, शायद नहीं थी। यह क्षमता मुझ में भारतवर्ष का ध्यान करने से जाग्रत हुई, यह शक्ति मुझ में भारतीय जनता की आकुलता को आत्मसात् करने से स्फुरित हुई। मैं तो वायु और वह्नि से बना हुआ यन्त्र मात्र था। फूँक उसमें काल ने मारी और झंकारें भी उसमें से काल ने ही उठायी हैं। मैंने केवल इतना किया कि जान-बूझ कर कारीगरी करने के प्रयास से उसमें कोई बाधा नहीं पहुँचायी। रेणुका, हुंकार, सामधेनी और कुरुक्षेत्र यदि किचित् महत्त्व की भी रचनाएँ हैं, तो उनमें से यह सिद्धान्त आसानी से निकाला जा सकता है कि कलाकृति के निर्माण का एक रहस्य यह भी है कि रचना करते समय कारीगरी पर सचेष्ट ध्यान न दिया जाय। और कारीगरी कोई ऐसी चीज है भी नहीं जिसे बगल में रखकर हम कविता रचना आरम्भ करें। वह तो सोचने की पद्धति और लिखने के ढर्रे के साथ आप-से-आप चलती है।

आरम्भ में छायावादी ढङ्ग की कुछ कविताएँ मैंने भी लिखी थीं, जिनमें से अधिकांश तो विनष्ट हो गयीं, किन्तु, कुछेक रेणुका से लेकर रसवन्ती तक मौजूद भी हैं। जो नष्ट हो गयीं, विशेषतः उन कविताओं के सम्बन्ध में ऐसा याद आता है कि उन्हें लिख लेने के बाद मुझे लगा, मानों, मेरी सारी बातें कसमसा कर मेरे भीतर ही छूट गयी हों और जो कुछ मैं कह पाया हूँ वह अकथित या कथ्य का आभास मात्र हो । छायावाद में जो कोमलता थी, उसमें नयी नयी सुषमाओं के जो अनेक वातायन खुलते थे, उन सब के लिए मुझ में आकर्षण और लोभ था और इस लोभ से प्रेरित होकर जब मैं कोई कविता करने बैठता, मैं अपने आपसे बहुत प्रसन्न हो उठता था। किन्तु, कविता समाप्त करते करते मेरी मुद्रा शिथिल हो जाती और अपने श्रम को विनष्ट हुआ मानकर मैं निराश हो जाता था ।

मेरी वेदना अभिव्यक्ति की वेदना थी और मेरे सम्मुख जो चुनाव था वह क्लासिक और रोमांटिक अथवा द्विवेदी-युग और छायावादी काल या मैथिलीशरण और सुमित्रानन्दन पन्त के बीच था। अनुभूतियाँ और भाव तो मुझे छायावादियों के ही अच्छे लगते थे, किन्तु, अभिव्यक्ति की सफाई मैं वह चाहता था जो मैथिलीशरण गुप्त और रामनरेश त्रिपाठी में निखरी थी। दूसरे शब्दों में द्विवेदी-युग की कल्पना मुझे भी स्थूल और किंचित् भोंडी लगती थी, किन्तु, पन्त जी की अभिव्यक्ति के भी चारों ओर मुझे कुहासा दिखायी देता था। मैं दोनों से हट कर अपने लिए कोई ऐसी राह निकालना चाहता था जो दोनों से समीप और दोनों से कुछ दूर हो ।

कदाचित्, पन्त के सपने को मैं मैथिलीशरण की सफाई से लिखना चाहता था, किन्तु, जोखिम इसमें यह थी कि दोनों को मिलाने से या तो पन्त के सपने घायल होते थे या मैथिलीशरण के मार्ग पर मिहिका छा जाती थी। छायावाद बड़ा ही प्रतापी आन्दोलन था और उसके रोब की उपेक्षा करके मनमानी राह पकड़ लेना छायावादोत्तर कवियों के लिए कोई सरल कार्य न था। उस पर भी, यह मनमानी राह यदि द्विवेदी युग की ओर जाती हो, तो कौन था जो इस विचार से ही ग्लानि में गड़ नहीं जाता ? फिर भी, मैं यह नहीं कह सकता कि जिन दिनों मैं अपनी शैली की खोज में था, उन दिनों मैंने इतना कुछ विचार किया होगा। सच पूछिये तो छायावादी धूमिलता के मैं जितना विरुद्ध था, उतना मैथिलीशरण और रामनरेश त्रिपाठी वाली शैली के पक्ष में नहीं था। अतएव, मैंने अपने लिए जो राह निकाली उसकी प्रेरणा केवल छायावादी धूमिलता से बचने के प्रयास में थी। यह और बात है कि वह द्विवेदी-युग और छायावाद-काल के बीचों-बीच पड़ गयी।

साहित्य में कभी-कभी कई युग एक साथ जीते हैं और जब छायावाद-युग जीवित था तब उसके साथ-साथ द्विवेदी-युग की आत्मा भी अपना काम कर रही थी। इसलिए, यह भी कहा जा सकता है कि मेरी राह इन दो युगों के मिश्रण से तैयार हुई। किन्तु, मुझे यही मानना अच्छा लगता है कि यह शैली द्विवेदी और छायावादी युगों के बीच की शैली है जिसका प्रमाण यह है कि पन्त के सपने हमारे हाथ में आकर उतने वायवीय नहीं रहे जितने कि वे छायावाद काल में थे; किन्तु, द्विवेदी-युगीन अभिव्यक्ति की शुभ्रता हमलोगों के पास आते-आते कुछ रङ्गीन अवश्य हो गयी। यह मेरा अपना विश्लेषण है, किन्तु इसी बात को कोई इस प्रकार भी रख सकता है कि साहित्य का प्रत्येक आन्दोलन, आरम्भ में धूमिल रहता है, किन्तु, आगे चलकर वह स्वच्छ हो जाता है। छायावादी कवियों में जो धूमिलता थी वह छायावादोत्तर काल में आकर उस आन्दोलन के नायकों में भी कम होने लगी थी। हमलोगों का आरम्भ इसी काल में हुआ, अतएव, अभिव्यक्ति की स्वच्छता की नयी विरासत हमें आप-से-आप प्राप्त हो गयी।

और यह विश्लेषण मेरो वैयक्तिक शैली का ही विश्लेषण नहीं है, प्रत्युत्, वह समान रूप से छायावादोत्तर उन सभी कवियों की शैली पर लागू है जिन्होंने हिन्दी कविता को कुहासे से निकाल कर उसे धूप में खड़ा किया तथा अभिव्यक्ति की घूमिलता और कच्चेपन से बचने के लिए छायावाद की उन रङ्गीनियों को छोड़ दिया जो अधिकतर कवियों की असमर्थता पर झीना-परदा डाला करती थी।

छायावाद-युग के कवि अपने गिने-चुने विषयों के वृत्त से बाहर नहीं जाते थे, क्योंकि उन्हें भय था कि वृत्त की परिधि के बाहर जो कुछ है, गद्यकल्प है, जो कुछ हैं, नीरस और रुक्ष है तथा उसके स्पर्श मात्र से कविता की कोमलता विनष्ट हो जायेगी। छायावाद में जो कोमलता थी, वह जीवन की रुक्षताओं से अलग रह कर उपलब्ध की गयी थी, जिसका प्रमाण यह है कि इस काल का सारा छायावादी काव्य स्वप्न. हिमकण, आँसू, ओस, विहङ्ग, बुद्बुद, टलमल और चन्द्र, नक्षत्र, क्षितिज एवं नीलिमा, इन कोमल, वायवीय शब्दों से भरा हुआ है। कर्म की कठोरता और जीवन की रुक्षता का स्मरण दिलानेवाले शब्द कविता में छायावादोत्तर -काल में भरने लगे और छायावादी कवियों की कविताओं में भी ये शब्द छायावाद के बाद ही प्रविष्ट हुए। स्वप्न की भाषा में वास्तविकता का आख्यान छायावाद-युग में अशक्य कार्य था। शक्य उसे उन लोगों ने बनाया जो छायावादी-युग की ठीक पीठ पर आये। छायावाद काल में बहुत सी ऐसी अनुभूतियाँ भी चल रही थी जिनकी सचाई के बारे में जनता को काफी सन्देह था, फिर भी, जो भी नया कवि आता, वह इन्हीं सन्दिग्ध अनुभूतियों का अनुकरण करने लगता । छायावादोत्तर-युग के कवियों ने इन सारी कृत्रिम वेदनाओं एवं रहस्य को छूने का स्वाँग भरनेवाली अनुभूतियों के जाल को फाड़ फेंका और वे निर्भीकता के साथ उन भावों का आख्यान करने लगे, जिनकी सम्यक् अनुभूति के विषय में किसी को भी कोई सन्देह नहीं हो सकता था। इसे मैं छायावादोत्तर काल की पराजय नहीं, विजय का प्रमाण मानता हूँ, क्योंकि वे भाव कोई भाव नहीं हैं जो भाषा का लिबास लेने से इनकार करते हैं, न वह अनुभूति ही कोई अनुभूति है जिसे स्वयं कवि भी शब्दों का जामा पहनाने में असमर्थ हो जाए।

मैं यह नहीं मानता कि हम लोग जिस युग में आये, वह हिन्दी कविता के उतार का युग था। उसे कविता के प्रसार का युग कहना कहीं अधिक न्याय सङ्गत बात होगी। क्योंकि छायावादी युग में सूक्ष्म और धूमिल सृष्टियाँ चाहे जितनी हुई हों, जन समुदाय के बीच समकालीन काव्य का जैसा प्रसार हमारे समय में हुआ, वैसा छायावादी युग में नहीं हो पाया था। जनरुचि की अवज्ञा कोई भी कला बहुत अधिक काल तक नहीं कर सकती। छायावाद के आगमन के साथ काव्य-रसिकों ने उससे बहुत बड़ी आशा लगा रखी थी, किन्तु जब यह आशा पूरी न हुई, छायावाद की आलोचना आरम्भ हो गयी और उस पर यदा-कदा व्यंग्य भी होने लगे। उन दिनों कवियों की ओर से, कभी-कभी, यह भी कहा जाता था कि कवि नीचे क्यों उतरे, जनता को ही उसके पास पहुँचने को ऊपर उठना चाहिए। किन्तु, जनता ऊपर नहीं उठी। जनता का ऊपर उठना कभी किसी को दिखायी भी नहीं देता है। लाचार होकर कवियों को ही नीचे आना पड़ा। और छायावाद-कालीन उन सारी कृतियों को काल ने झाड़-बुहार कर एक ओर को रख दिया जो अपनी दुरूहता या अभिव्यक्ति के कच्चेपन के कारण काव्यप्रेमियों को आनन्द देने में असमर्थ थी।

यहाँ यह नहीं समझना चाहिए कि मैं आँख मूंद कर केवल प्रसाद गुण की साधना के पक्ष में था। प्रसाद भी कविता का सापेक्ष गुण है। वह कविता के लिए अत्यन्त आवश्यक है, किन्तु, इतना आवश्यक नहीं कि हम उसकी प्राप्ति के प्रयास में उन भावों को लिखना ही छोड़ दें जो अखबारी विज्ञापन की सुस्पष्टता से लिखे नहीं जा सकते। मेरी अपनी ही रचनाओं में कुरुक्षेत्र का पष्ठ सर्ग उतना प्रसन्न नहीं है जितने अन्य सर्ग है। किन्तु, इसका कारण केवल यह है कि यह सर्ग जिन भावों को लेकर बढ़ता है, वे अन्य सर्गों को भाँति अधिक सुस्पष्टता से लिखे ही नहीं जा सकते थे । विशेषतः, रहस्यवादी रचनाओं में जो अस्पष्टता होती है उसे प्रसादहीनता का पर्याय मानना अनुचित है, क्योंकि रहस्यवादी कवि की चेतना जब फैल कर अदृश्य वास्तविकता को छूने लगती है, तब उसमें उठनेवाले चित्र हमारी सामान्य चेतना से इतनी दूर पर झिलमिलाते है कि हमें यह भ्रम होने लगता है कि, हो न हो, ये अभिव्यक्ति की दुर्बलता से उत्पन्न हुए हैं। किन्तु, ऐसे स्थलों पर अभिव्यक्ति की दुर्बलता हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है, जिसका निर्णय यह देख कर करना चाहिए कि कवि में अभिव्यक्ति की सच्ची खोज है या नहीं। कबीरादि के धुँधले उद्गारों के सामने हम जो बिना सोचे-समझे मस्तक झुका देते हैं, उसका कारण हमारी अन्ध श्रद्धा नहीं, बल्कि, हृदय का यह विश्वास है कि कवि, सचमुच, हमें कुछ दिखलाना चाह रहा है, किन्तु, भाषा की स्वभावजन्य असमर्थता के कारण हम उसकी उक्ति का पूरा मर्म समझ नहीं पाते । "हृदय का विश्वास", यह टुकड़ा यहाँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि जिस रहस्यवादी कवि में अभिव्यक्ति की सच्ची आकुलता नहीं है, उसके प्रति पाठक का विश्वास भी सुदृढ़ नहीं होगा ।

केवल प्रसाद - गुण को लक्ष्य बना कर चलने में खतरा यह है कि हम उन अनेक अनुभूतियों को लिखना छोड़ देंगे जो पूरी स्वच्छता से लिखी जाने पर भी इतनी सुस्पष्ट नहीं हो सकतीं जितनी कि पोस्टरों और विज्ञप्तियों की भाषा होती है। गहन-गम्भीर अनुभूतियों को अत्यधिक सरल बनाने की इच्छा सदैव साधु नहीं होती। अनेक बार हम ऐसी अनुभूतियों के सामने आ जाते हैं जिन्हें यदि बहुत सुस्पष्टता से लिखने की कोशिश की जाए तो उनका मिथ्या रूप ही चित्रित हो जाता है। प्रसाद गुण की भी एक सीमा है और सुस्पष्टता कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो प्रत्येक धरातल पर एक समान बरती जा सके। आइंस्टीन का सापेक्षवाद जिस भाषा में समझाया जा रहा है वह सुस्पष्टता से काफी दूर है, फिर भी, यही अस्पष्ट भाषा वह माध्यम है जिसमें आइंस्टीन के सिद्धान्त समझाये जा सकते हैं। और जब भी कोई पण्डित उन्हें समझाने के लिए अत्यधिक सरल शैली अथवा अत्यधिक सुस्पष्ट भाषा का प्रयोग करता है, तब वह सापेक्षवाद की व्याख्या नहीं करके कोई ऐसी बात बोलने लगता है, जिससे मूल सिद्धान्त के सम्बन्ध में गलत धारणाएँ उत्पन्न होती हैं।

किन्तु, इतनी सतर्कता बरत लेने के बाद, अब मैं यह कह सकता हूँ कि साहित्य में भी साधु वे हैं जो दूसरों को कष्ट नहीं देते, जो अपनी प्रत्येक पंक्ति को लिखते समय अपने से यह पूछते चलते हैं कि अनुभूति की सत्यता को विकृत किये बिना उक्ति इससे और सुस्पष्ट हो सकती है या नहीं। पाठक की कठिनाई का पहले से ही अनुमान लगा कर उसे निराकृत कर देना, यह एक ऐसा शौल है जिसकी आशा प्रत्येक पाठक अपने लेखक से करता है और जब लेखक इस शील का पालन सफलता के साथ करते हैं,

वे सहज ही पाठकों के प्रेम के अधिकारी बन जाते हैं। इसके विपरीत, जब लेखक पाठकों का सम्मान नहीं करते, साहित्य और जनता के बीच का तार टूट जाता है ।

छायावाद-युग में छायावादी कविता और जन समुदाय के बीच कोई सम्बन्ध न था और यदि सम्बन्ध का कोई पतला धागा दोनों को बाँधे हुए था भी तो यह धागा किशोरवय युवकों के उत्साह का धागा था। उनसे आगे समाज में जो विभिन्न भावुक विषयों के विद्वान् और कविता के पाठक थे, वे छायावादी आन्दोलन को थोड़ा भी महत्त्व नहीं देते थे। सच पूछिए तो छायावाद निर्धन नहीं, कमजोर था; बुरा नहीं, मृत था और इसीलिए, उसकी जो प्रशंसा होनी चाहिए थी, वह नहीं हो सकी।

वैयक्तिकता उसको इतनी प्रचण्ड थी कि किसी भी स्थिति से वह समझौता करने को तैयार नहीं था। आज प्रयोगवादियों के बारे में लोग यह कहते हैं कि उन्हें परम्परा का ध्यान नहीं है। किन्तु यही आक्षेप उस समय छायावाद पर भी लगाया गया था । और यह आक्षेप कुछ बहुत गलत भी नहीं था। छायावादी कवियों ने नयी दुनिया बसाने के उत्साह में द्विवेदी-युग से तो, स्पष्ट ही, अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लिया था। यह ठीक है कि गद्य-कल्प द्विवेदी-युगीन काव्य में ऐसा कोई विशेष गुण नहीं था जिसे छायावादी कवि अपने साथ ले चलते, किन्तु, अभिव्यक्ति की स्वच्छता तो गद्य से भी ली जा सकती थी। किन्तु, दैनिक जीवन की रुक्षता से दूर भागने की कोशिश में छायावादी कवि जन-साधारण की भाषा से भी दूर हो गये और अपने लिए उन्होंने जिस भाषा को रचना की वह देखने में सुन्दर और छूने में मुलायम होने पर भी ऐसी भाषा न थो जिसमें कवि अकवि से बातें करता है। 'पल्लव' और 'परिमल' की भाषा छायावादी युग के बाद कविता में नहीं टिक सकी, यह घटना भाषा के छायावादी प्रयोग पर स्वयं एक व्यंग्य है।

इस मामले में छायावादोत्तर - काल के कवि अपने पूर्वजों से अधिक उदार निकले। परम्परा का आदर तो उन्होंने इस प्रकार किया कि पन्त और मैथिलीशरण को मिला कर वे द्विवेदी-युग के उस अंश को वापस ले आये जो उसका सर्वोत्तम अंश था अर्थात् जिसका सम्बन्ध सुस्पष्टता और अभिव्यक्ति की सफाई से पड़ता था। तथा जन साधारण की समीपता में आने को उन्होंने पूर्वजों से उत्तराधिकार में मिली हुई भाषा का परित्याग कर दिया और अपने व्यवहार के लिए वे भाषा का वह रूप उठा लाये जो जनता के प्राय:, दैनिक व्यवहार की भाषा के करीब था।

जब छायावादोत्तर - काल का आरम्भ हुआ, साहित्य की भूमि पर तब भी छायावादियों का ही राज्य था और, घट-बढ़कर, साहित्य में आज भी उन्हीं की प्रधानता है जिसे मैं अनुचित नहीं, उचित ही मानता हूँ। यह बात वैसी ही हुई जैसे केले के जब नये पत्ते निकलते हैं, तब भी उसके पुराने पत्ते बने ही रहते हैं और वृक्ष-सम्पदा की रक्षा का मुख्य भार भी नये नहीं, इन पुराने पत्तों पर हो रहता है। किन्तु, छायावादोत्तर - काल की प्रवृत्तियों का प्रभाव छायावादी कवियों पर भी पड़ा अर्थात् इस काल में आकर वे भी अपनी भाषा को जन-जीवन के पास लाने लगे और छायावादी अभिव्यक्तियों में जो कच्चेपन का दोष था वह दोष भी इसी काल में आकर छूटने लगा। पल्लव से गुंजन और गुंजन से ग्राम्या तथा युगान्त, ये सीढ़ियाँ हैं जिन पर पन्त जी की अभिव्यक्ति पहले से अधिक स्वच्छ होती गयी है तथा जिन से यह भी झलकता है कि कवि किस प्रकार वायवीयता से उतर कर दिनों-दिन वास्तविकता के अधिक पास आता जा रहा था। इसी प्रकार, निराला जी का अनामिका और परिमल में जो रूप था, वह दिनों-दिन परिमार्जित होता गया और उनकी भी अभिव्यक्ति दिनोंदिन अधिक साफ होती गयी, यहाँ तक कि उनकी श्रेष्ठतम कृति "राम की शक्ति पूजा की रचना छायावादोत्तर -काल में हो हुई। इसके बाद उन्होंने जो व्यंग्यात्मक कविताएँ लिखी, उनमें तो उस भाषा की छाया भी नहीं मिलती जो उनकी पहले की रचनाओं, उदाहरणार्थ, 'रेखा' और 'प्रेयसी में मौजूद है।

प्रश्न उठ सकता है कि जिसे और लोग प्रगतिवादी युग कहते हैं, उसे मैं छायावादोत्तर युग क्यों कहता हूँ ? इसके कारण स्पष्ट है कि, यद्यपि, प्रगतिवाद राजनीति से उछल कर साहित्य में आया और उस पर अनेक निबन्ध और पुस्तकें भी लिखी गयीं, किन्तु, प्रगतिवाद क्या है अथवा प्रगतिवादी कौन है, इस प्रश्न का कभी कोई समाधान नहीं हुआ। सन् १९३६ से ४० ई० तक प्रगतिवादी साहित्यकार वे सभी लोग थे जो राष्ट्रीय आन्दोलन का समर्थन करते थे, जो साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के विरुद्ध थे तथा जो शोषण और औपनिवेशिकता को मिटाना चाहते थे। तब एक ऐसा समय आया जब प्रगतिवादी केवल वे लोग रह गये जो युद्धोद्योग में बाधा नहीं डालते थे। विधि-विधान से प्रगतिवादियों की पसन्द का प्रगतिवादी यहाँ तक मैं भी था। किन्तु, बात यहीं तक नहीं रुकी। जब देश स्वाधीन हुआ, प्रगतिवाद का लक्षण स्वराज्य सरकार का तीव्र विरोध और पण्डित जवाहरलाल पर हर तरह से कीचड़ उछालना हो गया। और अब जब भारत और रूस के बीच का सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण हो गया है और जवाहरलाल सब के सम्मान-भाजन बन गये हैं, तब प्रगतिवादियों को सारी कसौटी हो लापता दीखती है। अब उन्होंने यह गिनना ही छोड़ दिया है कि कौन प्रगतिवादी और कौन अप्रगतिवादी साहित्यकार है। इन विवरणों पर विचार करते हुए कौन है जो साहित्य के तर्कों से यह प्रमाणित कर सके कि प्रगतिवादी आन्दोलन साहित्यिक गुणों या कलात्मक मूल्यों का आन्दोलन था ?

अन्य देशों की बात हम नहीं कहते, किन्तु, हिन्दीवालों को प्रगतिवाद का जो परिचय प्राप्त हुआ, उसे देखते हुए हम अधिक - से - अधिक इतना हो कह सकते हैं कि यह साहित्यकारों के बीच वर्गीकरण का प्रयास था। लेखकों और कवियों में वे भी थे जो अपनी रचनाओं का कोई सामाजिक उद्देश्य नहीं मानते थे, जिनका लक्ष्य केवल आनन्द की अनुभूति थी और जो पाठकों को भी केवल आनन्द ही देना चाहते थे। किन्तु, उनके साथ कुछ ऐसे भी साहित्यकार थे जिनकी प्रेरणा उनके सामाजिक कर्तव्य ज्ञान से आती थी, मात्र आनन्द जिनका ध्येय नहीं था, जो अपनी रचनाओं के द्वारा पाठकों की रागात्मक शक्ति को जगाकर उन्हें सामाजिक ध्येयों की ओर प्रेरित करना चाहते थे। समय देखकर प्रगतिवादी सम्प्रदाय के मनीषियों ने इस दूसरी कोटि के साहित्यकारों की एक श्रेणी बना दी और वे डट कर उनका प्रचार करने लगे। जैसे छायावाद ने कविता की शैली और भावों में महाक्रान्ति की अथवा जैसे आज प्रयोगवाद कविता की तकनीक के सम्बन्ध में हमारी धारणाएँ बदलने के प्रयास में है, प्रगतिवाद ने कभी कोई वैसा काम न किया। न तो उसने शैली में कोई परिवर्तन करवाया, न भावों की दिशा में ही नये क्षितिजों का संकेत दिया। हिन्दी कविता छायावाद की कुहेलिका से निकल कर स्वयं सुस्पष्ट होती जा रही थी तथा उसके अग्रणी आचार्य भी स्वयं ही जन-जीवन के समीप चले आ रहे थे। किन्तु ठीक इसी समय, देश में और कांग्रेस के भीतर भी, मार्क्सवादी पक्षों का सङ्गठन होने लगा और राजनीति की इस प्रक्रिया का परिणाम यह हुआ कि बहुत से लेखक मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होने लगे । यह ठीक है कि साहित्य-कला और दूसरी कलाओं में भेद है। यदि कोई बढ़ई फासिस्ट हो जाए तो उसकी रचना यानी कुर्सी और मेज में फासिज्म कहीं से भी प्रवेश नहीं करेगा। किन्तु, कोई कवि यदि फासिस्ट हो जाए तो उसकी रचनाओं पर उसके विश्वासों का प्रभाव अवश्य पड़ेगा। किन्तु, केवल वैचारिक आन्दोलन वैचारिक आन्दोलन होते हैं। साहित्यिक आन्दोलन उन्हें हम तभी कहेंगे जब कि उनसे साहित्य की शैली परिवर्तित होती हो । प्रगतिवाद ने साहित्य पर ऐसा कोई भी प्रभाव नहीं डाला जिसे हम किसी भी दृष्टि से साहित्यिक प्रभाव कह सकें। यह मुख्यतः, साहित्येतर आन्दोलन था जो साहित्य के भीतर केवल राजनीतिक उपयोग के लिए साहित्यिकों का शोषण करने को आया था। राजनीतिक आन्दोलनकारियों का एक दल साहित्य में भी अपनी एक टुकड़ी रखना चाहता था और जिस काल में उसकी जैसी आवश्यकता रही, साहित्य में उसने वैसी ही टुकड़ी तैयार कर ली और इस क्रम में उसने पुराने दोस्तों को लात मार कर नये दोस्त बनाये और जब ये दोस्त भी उसके काम के न रहे तब उसने उनका भी परित्याग कर दिया। स्पष्ट ही ये लक्षण साहित्यिक आन्दोलन के लक्षण नहीं हैं।

और अगर मान्यताओं की दृष्टि से देखें, तब भी मुझे यही दिखायी देता है कि प्रगतिवाद ने साहित्य में नये मूल्यों की स्थापना नहीं की, अपनी तात्कालिक आवश्यकता के अनुसार उसने पहले से हो प्रचलित मूल्यों में से केवल कुछ को स्वीकार कर लिया। प्रगतिवाद साहित्य के सामाजिक लक्ष्य पर जोर देता है, किन्तु,

हिन्दी में साहित्य की यह प्रवृत्ति साम्यवाद से नहीं आयी। जिन चीज़ों को छायावादोत्तर काल में प्रगतिवादियों ने उभारने की कोशिश की वैसी ढेर-की-ढेर चीजें भारतेन्दु ने लिखी थीं, बालमुकुन्द गुप्त ने लिखी थीं, चन्द्रशेखरघर शास्त्री ने लिखी थीं और द्विवेदी युग में भी वैसी रचनाएँ कुछ कम नहीं हुई। स्वयं छायावाद-काल के राष्ट्रीय कवियों ने जो काम किया, उसकी प्रेरणा साम्यवादी दर्शन से नहीं, भारतीय जनता के जीवन से आयी थी। वर्ग सङ्घर्ष की भावना तो भारत में साम्यवादियों की लायी हुई ज़रूर है, किन्तु, पूँजीवाद के विरुद्ध आक्रोश के प्रमाण बाबू बालमुकुन्द गुप्त की कविताओं से दिये जा सकते हैं। प्रगतिवाद का केवल इतना ही महत्त्व है कि उसने सामाजिक लक्ष्य से प्रेरित साहित्य को प्रोत्साहन और मान दिया तथा उन लोगों को भी मस्तक उठा कर चलने की उसने प्रेरणा दी जो अपनी रचनाओं के भीतर सामाजिक और सोद्देश्य होने के कारण शुद्ध कलावादियों, आनन्दवादियों और सौंदर्यवादियों के सामने मन-ही-मन अपने को ईषत् हीन समझते थे। बुरा काम उसने यह किया कि जो लेखक उसे पसन्द थे, उनकी पीठों पर उसने अपने नाम के बिल्ले लगा दिये और जहाँ भी उसे यह सन्देह हुआ कि अमुक लेखक अब मेरे घेरे से बाहर जाकर स्वतन्त्र चिन्तन में भी लग सकता है, वहाँ उसने लेखक की पीठ का बिल्ला नोच कर किसी और की पीठ पर साट दिया। स्पष्ट ही, ऐसे अन्याय केवल वे ही कर सकते हैं जिनकी दृष्टि में साहित्य साहित्येतर ध्येयों के प्रचार का साधन मात्र है तथा जो यह मानते हैं कि राजनीति का ढोल बनने के सिवा साहित्य का कोई अपना महत्त्व नहीं है।

अन्य देशों में प्रगतिवाद का जो दर्शन प्रस्तुत हुआ, वह जन कल्याण की दृष्टि से बड़ा ही उपयोगी और सुस्पष्ट है किन्तु, हिन्दी में साम्यवाद के साहित्यिक कर्णधारों है। ने उसका समय-समय पर जैसा प्रयोग किया उससे इस दर्शन के अनेक सिद्धान्त अर्थहीन हो गये हैं। प्रगतिवादी आलोचकों ने साहित्येतर कारणों से साहित्य की जैसी विचित्र समीक्षाएँ प्रस्तुत की है, उन्हें देख कर अचरज होता है। उदाहरण के लिए, प्रगतिवादियों के यहाँ एक समय पण्डित सुमित्रानन्दन पन्त का बड़ा सम्मान था, किन्तु, प्रगतिवादियों ने जब यह देखा कि पन्त जी उनके बस में नहीं रहनेवाले हैं, तब उन्होंने उनका त्याग कर दिया और जिस प्रकार की रचनाओं के लिए पन्त जी की एक समय उड़ उड़ कर प्रशंसा की गयी थी, उसी प्रकार की रचनाओं के लिए बाद में, उनको कड़ी आलोचना की गयी।

हिन्दी में आज भी ऐसे लोग हैं जिनकी अधिकांश रचनाएँ प्रगतिवादी दर्शन के अनुसार प्रशंसनीय कही जा सकती है। किन्तु, चूँकि ये लोग साम्यवादियों के साथ या उनके पीछे-पीछे नहीं चलते, इसलिए, प्रगतिवादी आलोचक इनकी रचनाओं के विषय में, प्रायः, मौन रहते हैं। उनकी कठिनाई यह है कि वे यदि इन कवियों और लेखकों की 

निन्दा करें तो प्रगतिवाद की कसौटी सन्दिग्ध हो जाती है और यदि प्रशंसा करें तो यह प्रशंसा उनकी होती है जिन्हें साम्यवादी अपने लिए उपयोगी नहीं मानते। फिर भी, यह कहा जा सकता है कि उनकी इस विवशताजन्य सतर्कता का निर्वाह सर्वत्र नहीं हो सका है। उदाहरण के लिए, बड़े लोगों के पास बैठने में जो सुयश है, उस सुयश के लोभ से उन्होंने महादेवी जी की प्रशंसा लिखी है और महादेवी जी यदि रहस्यवादिनी नहीं हैं तो काव्य के क्षेत्र में उनका महत्त्व क्या रह जाता है ? प्रगतिवादी आलोचक जिस दुर्दशा को प्राप्त हुए हैं, वही दुर्दशा उन सब लोगों की होती है जो साहित्य की माप साहित्येतर यन्त्रों से करते हैं।


                               


प्रगतिवादी आन्दोलन अभी चल ही रहा था कि 'तार सप्तक' का पहला भाग प्रकाशित हुआ, जो इस बात की सूचना था कि हिन्दी के नये कवि कविता की प्रचलित शैली से सन्तुष्ट नहीं थे। इन कविताओं पर विचार करते हुए आज से दस वर्ष पूर्व, मैंने अपनी पुस्तक, "मिट्टी की ओर" में लिखा था कि "ये उन सभी कविताओं से भिन्न हैं जिन्हें देखने-सुनने के हम अब तक आदी रहे हैं। इनका कवि जान-बूझ कर काव्य के साधारण नियमों को भी भूल गया है। इनकी पृष्ठभूमि में जो कुछ दीखता है, वह निर्जन और विषण्ण है।" तथा "शायद, आनेवाले युग की कविता इनमें अपनी ट्रेनिंग पा रही है।" और तब से आज तक हिन्दी के तरुण कवि विभिन्न दिशाओं में जिस आकुलता से प्रयोग कर रहे हैं, उससे आज भी यही भासित होता है कि नयी कविता की ट्रेनिंग अभी खत्म नहीं हुई है और उसके निश्चित भूमि में पहुंचने में अभी और कुछ देर है । "

पहले 'तार सप्तक' के कई वर्ष बाद, एक दूसरा 'तार सप्तक' भी निकला जो पहले को अपेक्षा अधिक सफल था। इन दो संग्रहों के अलावे, इधर और कुछ संग्रह और काव्य-ग्रन्थ (जैसे अज्ञेय का "हरी घास पर क्षण भर" और "बाबरा अहेरी", गिरिजाकुमार का "धूप के धान", धर्मवीर भारती का "ठंडा लोहा" और "अंधा युग" तथा नयी कविता के दो-एक अङ्क आदि) निकले हैं, जिन्हें साधारणतः लोग नयी कविता के प्रतिनिधि-ग्रन्थ मानते हैं। इनके सिवा, पत्र-पत्रिकाओं में भवानीप्रसाद मिश्र, बालकृष्ण राव, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, प्रयागनारायण त्रिपाठी, मदन वात्स्यायन, जगदोश गुप्त, राजेन्द्र प्रसाद सिंह आदि तरुण कवियों की जो स्फुट रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं, उनसे भी ईषत् संकेत मिलता है कि हिन्दी - कविता किस दिशा की ओर जा रही है।

यह आन्दोलन अपनी किशोरावस्था को पार कर चुका है, किन्तु, तब भी इसका सही तो क्या, आनुपातिक मूल्याङ्कन भी अभी नहीं हो पाया है। जहाँ तक मेरा ख्याल है, आज तक भी प्रयोगवाद का कोई ऐसा घोषणापत्र कहीं नहीं निकला (यद्यपि कई सूत्रों का एक कार्यक्रम पत्रों में छपा है) जैसी घोषणा 'पल्लव' की भूमिका में छायावाद ने की थी। और इसके उद्देश्य और लक्ष्य के बारे में जो थोड़ा-कुछ कहा भी गया है, वह उतना विशद और पुष्ट नहीं है जिससे काव्य-रसिक जनता यह समझ सके कि प्रयोगवाद कविता के किन गुणों पर जोर देना चाहता है और यह कैसी उपलब्धि के प्रयास में है। इस आन्दोलन की मुख्य प्रवृत्तियों को पहचानने में सब से बड़ी बाधा यह है कि प्रयोगवाद का गढ़ आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, सर्वत्र नक्कालों से भर गया है और जो असली कवि हैं वे इस भीड़ को दबा कर आगे आने में कठिनाइयों का अनुभव कर रहे हैं।

जब छायावादी आन्दोलन उठा था, तब भी हिन्दी में कवियों की बाढ़ आ गयी थी, किन्तु आज के प्लावन की तुलना में वह फिर भी बहुत छोटी बाढ़ थी। कारण, कदाचित्, यह था कि उस समय शिक्षा का प्रसार आज की अपेक्षा कहीं सीमित था और, तत्परिणामस्वरूप, कविता की ओर आनेवाले युवकों की संख्या भी कम थी। किन्तु, छायावादोत्तर काल में आकर हिन्दीभाषी क्षेत्रों में कविता का जो व्यापक प्रचार हुआ, उससे अब अनेक युवकों में कविता का प्रेम जग पड़ा है और अपने ही समान कुछ अन्य लोगों को काव्य-क्षेत्र में यशस्वी होते देख कर वे भी इस सुयश के भागी होने को ललचा उठे हैं। इसे मैं भारतीय जाति के लिए शुभ लक्षण मानता हूँ। कम-से-कम, यह इस बात का प्रमाण तो है ही कि हमारे नवयुवक अपने आप को अभिव्यक्त करने की इच्छा से आन्दोलित होने लगे हैं। किन्तु, कवियों की संख्यावृद्धि के कारणों की खोज यहीं समाप्त नहीं होती। इस संख्यावृद्धि का मुख्य कारण, शायद यह है कि छायावादी युग में निरी बकवास करने के लिए भी कवियों को छन्द में लिखना पड़ता था और, यद्यपि, छन्द कभी-कभी अनावश्यक भी हो जाते हैं, किन्तु, उनकी रचना सबके लिए सुगम नहीं होती। प्रयोगवादी कवि छन्द में भी लिखते हैं और छन्दों को तोड़ कर भी और दोनों ही शैलियों की कितनी ही नयी कविताएँ काफी सुन्दर हुई हैं। किन्तु, हैं इससे युवकों ने यह शिक्षा निकाली कि छन्द अब कविता के लिए किचित् भी अनिवार्य न रहे । परिणाम यह हुआ कि कविता के बाह्य प्राङ्गण का दरवाजा चूर-चूर हो गया और आज वे सभी लोग हिन्दी में कविता कर रहे है जिनके पास करने योग्य और कोई काम नहीं है इस सामान्य सिद्धान्त के अपवाद कुछ थोड़े से ऐसे बुद्धिजीवी ही हैं, जिनके पास करने योग्य काम तो बहुत है, किन्तु, जो, फिर भी, अवकाश के समय ताश या बैडमिंटन नहीं खेल कर कविताओं की रचनाओं में लगे हुए हैं और ये सारी - की - सारी कविताएँ प्रयोगवाद के नाम पर चल रही हैं। आज प्रयोगवादी कविता की सफलता के दो नहीं, मात्र एक प्रमाण खोजने की अपेक्षा यह कहीं आसान है कि उसकी विफलता के एक हजार प्रमाण तुरन्त एकत्र कर दिये जायें।


कविता के क्षेत्र में अभी गुण नहीं, संख्या का बोलबाला है। और संख्या की विशालता के कारण ही इस कविता की सच्ची पहचान गम्भीर समस्या का रूप लेती जा रही है। यदि छायावादी आन्दोलन अँगरेजी में शेली और वायरन के समय उठनेवाले रोमांटिक आन्दोलन से मेल खाता था, तो यह नयी कविता का आन्दोलन बहुत कुछ उस (इमेजिष्ट) आन्दोलन के समान है जो अँगरेजी कविता में प्रथम विश्वयुद्ध के आरम्भ होने के आसपास उठा था। उस आन्दोलन में भी इतने अधिक कवियों ने भाग लिया था कि सन् १९२० ई० में जब पोयट्री बुकशाप ने "बिबलियोग्राफी आव् मॉडर्न पोयट्री" के नाम से केवल सन् १९१२ ई० से लेकर सन् १९२० ई० के बीच उगने वाले नक्षत्रों की सूची प्रकाशित की तब उसमें कवियों की संख्या एक हजार से ऊपर चली गयी। और इन सहस्राधिक कवियों में से एक सौ चार ऐसे थे जिन पर समीक्षात्मक टिप्पणियाँ भी दी गयी थीं। किन्तु, समीक्षा, शोर-गुल और पक्षपातपूर्ण आन्दोलनों से साहित्य में खोटे सिक्के नहीं चलाये जा सकते, न खरे सिक्कों के प्रचलन को ईर्ष्या, द्वेष और निन्दा रोक ही सकती है। इमेजिष्ट सम्प्रदाय के इन हजार कवियों में से केवल दस-बारह ही ऐसे निकले जिनकी कविताएँ तो नहीं, हाँ, यदा-कदा साहित्य में उनका नामोल्लेख चलता है। अँगरेजी में जब यह आन्दोलन चल रहा था तब उसके समर्थक और उन्नायक भी उक्त आन्दोलन के आलोचकों पर उसी प्रकार टूटते थे जैसे आज हिन्दी में टूट' रहे हैं और अँगरेजी में भी, कविगण कविताओं के द्वारा जनता के हृदय को न जीत कर उसे बुद्धि द्वारा गद्य में ही पराजित करना चाहते थे। किन्तु, जनता के हाथ में तो ब्रह्मास्त्र होता है। उसने इन कविताओं को खरीदा ही नहीं। परिणाम यह हुआ कि इस युग के कवियों की कविताएँ या तो पतली-छोटी कापियों में छपी या कई कई कवियों ने मिल-मिलकर अपने एकत्र संग्रह छपवाये। कहते हैं, जब युद्ध छिड़ा, तब इन कविताओं की थोड़ी बिक्री अवश्य हुई, किन्तु, इतनी नहीं कि किसी कवि का नाम सर्वत्र पहुँच जाए अथवा इसे अच्छी राशि की प्राप्ति हो ।


इमेजिष्ट सम्प्रदाय से अपने यहाँ के वर्त्तमान आन्दोलन की इतनी ही समता नहीं है। विचित्र संयोग है कि इमेजिष्ट कवियों में जो नकली कवि थे, ठीक उन्हीं के लक्षण प्रयोगवाद के नकली कवियों पर चरितार्थ होते हैं, और जो सीमाएँ या कमजोरियाँ असली इमेजिष्ट कवियों की थीं, अपने यहाँ के भी कितने ही नये सत्कवि ठीक उन्हीं दुर्बलताओं से पीड़ित दीखते हैं।

सुर्रियलिष्ट चित्रकारी पर व्यंग्य कसने को किसी ने एक कहानी गढ़ी है कि एक सुर्रियलिष्ट चित्रकार के घर में चोरी हो गयी। दूसरे दिन जब पुलिस आयो, तब उसने 

पूछा कि चोर को किसी ने देखा था या नहीं। चित्रकार बोला, "क्यों, चोर को तो मैंने स्वयं देखा है और देखा ही नहीं, मैंने छिप कर उसका यह स्केच भी खींच लिया है।" पुलिसवाले इस आशा से वह चित्र ले गये कि उसके सहारे चोर पहचाना जा सकेगा। किन्तु, खुफिया -विभाग के अधिकारियों ने जब उस चित्र को देखा, उन्हें हँसी आ गयी और वे बोले, "अरे, यह तो आलू - कोबी की तस्वीर मालूम होती है। इसे देख कर आदमी कैसे पकड़ा जा सकता है ?"

सुर्रियलिज्म पर चाहे यह कहानी फिट न बैठती हो, किन्तु प्रयोगवाद के नाम पर प्रतिदिन जो मनों कविताएँ छप रही हैं, वे उसी प्रकार की कविताएँ हैं जिस प्रकार का उस सुर्रियलिष्ट का बनाया हुआ चित्र था। इन कविताओं की तुलना उन गीतों से की जा सकती है जिनमें और सब कुछ तो होता है, केवल सुर नहीं होता, अथवा उस शबीह से की जा सकती है जिसकी गरदन हो गायब हो ।

और स्मरण रहे कि ये बातें मैं इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि प्रयोगवाद के अन्दर अपार कविताएँ बिना छन्द के लिखी जाती हैं। मुक्त छन्द को परम्परा प्रयोगवादियों की सृष्टि नहीं है। उसका आरम्भ निरालाजी ने और प्रसाद जी ने किया तथा प्रयोगवाद के आगमन के पूर्व भी ऐसी कविताएँ यथेष्ट संख्या में लिखी जा चुकी थीं। कविता में से छन्द की महिमा अभी विलुप्त नहीं हुई है। किन्तु, अच्छी कविताएँ बिना छन्द के भी लिखी जाती हैं। मैं यह भी मानता हूँ कि मुक्त छन्द की और युवक इसलिए भी दौड़ते हैं कि उसमें स्वतन्त्रता की थोड़ी झाँकी रहती है। कुछ यह बात भी है कि कविता की परम्परागत शैली में जो नियन्त्रण है, बल्कि उसमें जो जकड़बन्दी आ गयी है, उसे युवकों की चेतना बर्दाश्त नहीं कर सकती। अतएव इन कवियों ने अपने आप को यह विश्वास दिला रखा है कि कविता की पुरानी शैली इतनी पुरानी हो गयी कि अब उसका कोई उपयोग नहीं है। छन्दों का त्याग नयी कविता का उतना बड़ा दोष नहीं है जितना कि नये कवियों का यह आग्रह कि छन्द छोड़ने पर चाहे जो भी लिखो, वह काव्य हो जाता है। परम्परा से किंचित् भिन्न चलने की स्वतन्त्रता और प्रचलित शैली में परिवर्तन करने का अधिकार, ये दावे तो प्रायः प्रत्येक युग के कवि किया करते हैं। किन्तु, प्रयोगवाद के नाम पर असंख्य कवियों ने इस स्वतन्त्रता का दुरुपयोग किया है। परिणाम यह है कि उनकी जो कविताएँ छपती हैं वे कविताएँ नहीं, असमर्थ गद्य हैं, जिन्हें कविताओं की तरह सजा दिया जाता है। किन्तु इससे केवल आँखें ही धोखा खा सकती है, मन नहीं, क्योंकि वह कविता को पहचानता है। 

कला की दृष्टि से देखा जाए तो काव्य-सृष्टि के दो सोपान होते हैं। पहला सोपान प्रेरणा का और दूसरा सोपान रचना का होता है। प्रेरणा का उद्गम शिक्षा-दीक्षा संस्कार और भावुकता होती है। और जिस व्यक्ति में भावुकता और कविता का संस्कार है, उसके भीतर काव्य-प्रेरणाओं का उठना अत्यन्त स्वाभाविक बात है। किन्तु, केवल प्रेरणाओं के उठने से कोई व्यक्ति कवि नहीं हो जाता। उसे उन प्रेरणाओं को इस प्रकार अभिव्यक्ति देनी होती है कि कविता पढ़ने या सुननेवालों के हृदय में वैसी ही प्रेरणाएँ उत्पन्न हो सकें। इसीलिए प्रेरणा का धरातल संस्कार का और रचना का धरातल परिश्रम और अभ्यास का धरातल होता है। जिसे हम कवि की साधना कहते हैं वह इस अभ्यास के सिवा और कुछ नहीं है कि हम जो अनुभव करते हैं उसे अनुरूप ढङ्ग "से अभिव्यक्त कर सकें। किन्तु, जब कवि यह समझ लेता है कि जवानी की ताजगी स्वयं सबसे बड़ी कविता है तथा हमें परिश्रम से बचे रहकर इस ताजगी को बचाये रखना चाहिए, तब साहित्य में अर्थ से अधिक अनर्थों के ही उदाहरण भरने लगते हैं। शेरिडान ने कहीं कहा है कि जो साहित्य पढ़ने में आसान होता है, उसकी रचना करने में घोर परिश्रम करना पड़ता है। इसी प्रकार, जिस साहित्य का पढ़ना कठिन है, सामान्य नियम यही है कि उसकी रचना बड़ी आसानी से की जाती है। अधिकांश प्रयोगवादियों पर हमारा यह आक्षेप है कि वे अपनी मेहनत बचा कर पाठकों की कठिनाई बढ़ा रहे हैं।

         उदाहरण के लिए, प्रयोगवाद के जो अच्छे कवि हैं उनमें भी यह दोष है कि वे पूर्वापर सम्बन्धों के निर्वाह पर ध्यान नहीं देते अथवा कविता कहते-कहते अचानक वे ऐसी बात बोल उठते हैं जिससे पहले के भाव का कोई सम्बन्ध नहीं दीखता। पाठक यह स्पष्ट अनुभव करता है कि दो भावों बीच कोई और कड़ी होगी जिसे कवि को बतला देना चाहिए था। किन्तु, कवि, न जाने क्यों पुल की दो-एक पटरियाँ बीच से अचानक खींच लेता है और चाहता है कि इस दूरी को पाठक अपने-आप तय करे। कभी-कभी तो ऐसा भी लगता है, मानों, कवि ने आधी कविता लिख कर ही पूरी कविता समाप्त कर दी हो। कवि की दृष्टि में यह आधा काव्य पूरे काव्य से अधिक पूर्ण भले ही दीखे, किन्तु, वह पाठक की दृष्टि में आधा ही रहता है।

           पाठकों को किंचित् अतृप्त रखते हुए कविता या उपन्यास को समाप्त कर देना, यह कुछ दिनों से कला का कौशल बन गया है। किन्तु, पाठकों की कल्पना के भरोसे कितना छोड़ा जाय और कितना नहीं, यह विचारणीय विषय है और इसका सम्यक् ज्ञान रचना की प्रक्रिया में संलग्न कवि को होना ही चाहिए, अन्यथा जिस कौशल से वह पाठक की कल्पना को उत्तेजित करना चाहता है, उसका यह परिणाम भी हो सकता है। कि पाठक खिन्न, उदास या अप्रसन्न होकर कविता को फेंक दे। और सबसे बुरी बात तो यह है कि ऐसी कविताएँ पाठकों को कल्पना के भरोसे रची तो जाती है, किन्तु, वे कल्पना को जगाने तो क्या, उसे छेड़ने में भी असमर्थ होती हैं। यह ठीक है कि इन असम्बद्ध पंक्तियों में अथवा एक शब्द के विचित्रतापूर्ण वाक्यों में भी कभी-कभी कवित्व की किरणें झलक मारती हैं, किन्तु उन्हें हम कविता नहीं कह सकते। उनसे तो केवल इतना ही सूचित होता है कि कवि कोई कविता लिखने को तैयार हो रहा है। अब यदि वह कविता लिखे ही नहीं तो उसकी तैयारी मात्र से क्या होता है ?

       कवियों और पाठकों के बीच का सेतु हर युग में नये ढग से बनाया जाता है। अथवा उस पर नये रङ्ग छिड़के जाते हैं और जब यह पुल जीर्ण हो जाता है अथवा उसके रङ्ग पुराने पड़ जाते हैं, तब फिर नया सेतु रचने अथवा पुराने सेतु पर नया रङ्ग छिड़कने की आवश्यकता अनुभूत होने लगती है। होना यह चाहिए था कि प्रयोगवादी कवियों के हृदय में जो नये स्वप्न मँडलाने लगे हैं, वे बाहर आते और पाठकों का उनसे परिचय कराया जाता। अथवा, नये कवि जिस नवीन भङ्गिमा कारण यह विशेषण पसन्द करते हैं, वह पाठकों में भी उतारी जाती। किन्तु यह काम प्रयोगवाद में बहुत कम हो रहा है। प्रयोगवादियों के बीच ज्यादा शोर तो इसी बात का सुनायी देता है कि पुरानी कविता पुरानी हो गयी, नयी कविताएँ लेकर अब हम आ रहे हैं और हमारे साथ साहित्य में एक नया युग प्रवेश कर रहा है।

      अच्छा हो या बुरा, साहित्य में नया युग तो आता ही रहता है। सपूत हो या कपूत, पिता का दायित्व किसी न किसी पुत्र को ढोना ही पड़ता है। इलियट परम्परा को तोड़ कर चले, यह बात नवयुवकों को बहुत पसन्द आयी। किन्तु, वे यह देखना भूल गये कि परम्परा की जितनी टूटी कड़ियाँ इलियट में आकर जुड़ीं, उतनी पहले और कभी नहीं जुड़ी थी। प्राचीनता और नवीनता के सतही भेद गलत हैं। इलियट के अनुसार भी नवीनता आकाश से नहीं टपकती न कभी प्राचीनता का नाश होता है। इतिहास सर्वथा ध्वस्त युगों की गाथा नहीं, प्रत्युत्, ऐसा मानचित्र है जिसमें भूत, भविष्यत् और वर्तमान, तीनों एक साथ जी रहे हैं, जैसे भूगोल के मानचित्र में हमें विश्व के विभिन्न देश एक-साथ जीवित दिखायी देते हैं। इलियट ने यह भी कहा है कि हड्डी के भीतर अपने युग का अस्तित्व और पीठिका में परम्परा का ध्यान, यह साहित्य लिखने की सही मुद्रा है। परन्तु, इलियट में परम्परा-भंजन का जो नाद है, उसे तो हमारे नववयुकों ने सुना, उनके भीतर परम्परा को जोड़नेवाले जो विचार हैं, उन्हें ही ये कवि पकड़ नहीं पाते। यही कारण है कि प्रयोगवादी धारा का जो कथ्य विषय है, उसका कथन तो नाममात्र को ही हो रहा है, किन्तु, जिन बातों का कोई स्थायी महत्त्व नहीं है, वे ही बातें बार-बार दुहरायी जा रही हैं। जो उन्हें करना है, उसका मर्म वे समझ नहीं पाते। किन्तु जो महज आनुषङ्गिक बाते हैं, सबसे ज्यादा जोर वे उन्हीं पर दे रहे हैं। नया युग लाने के उत्साह ने उन्हें इस जोर से पकड़ लिया है कि नवीन युग के रहस्योद्घाटन का काम अभी वे प्रारम्भ भी नहीं कर पाये हैं। वे तो बार-बार हमें यही बताये जा रहे हैं कि प्राचीनता उन्हें तनिक भी स्वीकार्य नहीं है। किन्तु, प्राचीनता किस युग को स्वीकार्य होती है ? मैं फिर इलियट का हो उद्धरण दूंगा। वर्त्तमान की चेतना, वस्तुतः, अतीत का ज्ञान है। हम मृत लेखकों की अपेक्षा कुछ अधिक जानते हैं, किन्तु, मृत लेखकों के सिवा और हम जानते भी क्या हैं ? सारा साहित्य सातत्य का अविच्छिन्न प्रवाह है, जिसका वर्त्तमान बराबर अतीत को अपने साथ लिये रहता है। अतीत बराबर अपूर्ण होता है और जब नये मुहावरों में नयी अनुभूतियाँ लिखी जाने लगती है तब वह केवल वर्तमान के जीवित होने का ही प्रमाण नहीं होता, उससे यह भी प्रत्यक्ष होता है कि अतीत की प्रक्रिया पूर्ण हो रही है। छायावाद का जन्म द्विवेदी-युग की अपूर्णताओं में हुआ था और छायावाद भी अपूर्ण निकला जिसकी पूर्ति का प्रयास छायावादोत्तर काल ने किया। और अब छायावादोत्तर काल की अपूर्णता और अतृप्ति भी युवकों को अनुभूत होने लगी है। हम जानते हैं कि वे इस अपूर्णता और अतृप्ति को भी पूर्ण करेंगे, और फिर पोतों का युग आएगा जो अपने पिता की अपूर्णताओं को दूर करने की कोशिश करेगा। अपूर्णता और पूर्णता की यह प्रक्रिया, अनिवार्य रूप से, कविता की निचाई या ऊँचाई की प्रक्रिया नहीं है। ऐतिहासिक सत्य केवल इतना है कि हर युग नया जल लेकर आता है और हर युग जब जाने लगता है, तब उसके लाये हुए जल से आगामी युग की प्यास नहीं बुझ पाती । इसलिए, प्रत्येक युग को अपना कुआँ आप खोदना पड़ता है, चाहे वह छिछला ही क्यों न हो। किन्तु, मेरा अनुमान है, हमारे नये कवि साधनापूर्वक अपने युग का कुआँ खोदने में निरत नहीं रह कर, बार-बार यह घोषणा करने में अपना समय बर्बाद कर रहे है कि हमारा कुआँ पहले के कुओं के समान नहीं होगा। पहले के कूप अच्छे नहीं थे, अब हम अच्छा कूप तैयार कर रहे हैं।

         और यह बात वे केवल लेक्चरों में ही नहीं कहते, उनकी बहुसंख्यक रचनाएँ भी केवल इतना ही प्रचार करके मौन हो जाती हैं कि वे पहले की रचनाओं से भिन्न हैं। हिन्दी में अब तक जो श्रेष्ठ कवि हुए, प्रयोगवादी कवि उनके लक्षणों को त्याज्य समझते हैं। चूँकि पहले के कवियों ने छन्द में लिखा, इसलिए नये कवि बिना छन्द के लिखते हैं। चूँकि पहले के कवियों की रचनाओं में लय होती थी, इसलिए, नये कवि लय को छोड़ रहे हैं। और चूँकि पहले के कवि एक शब्द का वाक्य नहीं लिखते थे, इसलिए नये कवि ऐसे वाक्य धड़ल्ले से लिख रहे हैं। अँगरेजी के मेटाफिज़िकल कवियों की रचनाओं से शिक्षा यह निकली है कि कविता का सर्वश्रेष्ठ गुण उसका मिरेकुलिज्म यानी चमत्कार है; कविता को और कुछ करने के पूर्व पाठकों का ध्यान आकृष्ट करना चाहिए, उनकी चेतना को चौंका देना चाहिए। और एक शब्द के वाक्यों में और कोई गुण चाहे न हो, यह गुण तो है ही कि उन्हें देख कर पाठक चौक उठें, भले ही, चौंक उठने के बाद उनके भीतर हास्य के अनुभाव उत्पन्न हों, कविता चाहे किसी भी रस को हो ।

       किन्तु, प्रयोगवादी कविता के ये लक्षण अधिकतर उन्हीं कवियों में मिलते हैं जो बाढ़ के साथ बह कर आये हैं और जो बाढ़ के उतरने के बाद इस कविता की खाद बनेगे। प्रत्येक आन्दोलन को खाद की आवश्यकता होती है और हर नया आन्दोलन अपनी खाद अपने साथ लाता है। कविता की खाद, यानी वे लोग जो नयी दिशा में चलने की कोशिश करते हैं, किन्तु चल नहीं पाते। फिर भी उनके कूदने फाँदने से पाँव के नीचे की जमीन चिकनी और मुलायम हो जाती है। इस दृष्टि से असफल कवियों का भी महत्त्व है, क्योंकि नये आन्दोलन को मारकता को वे अपने ऊपर खींच कर, दूसरों को उससे बचने का संकेत देते हैं।

        किन्तु, इस बाढ़ के उतरने के बाद कौन लोग बचनेवाले हैं ? वे जिनके कलश अभी से कुछ ऊपर दिखायी देने लगे हैं, या वे जिन्हें इस आन्दोलन का परिपाक आगे चल कर उत्पन्न करेगा ? सम्भव है, भविष्य के कोट पर दोनो ही प्रकार के कवियों का अधिकार हो। किन्तु यह विचिकत्सा भी व्यर्थ है। मैंने जो नये आन्दोलन से आशा लगायी है, वह व्यक्तियों को देख कर नहीं, प्रत्युत्, इस भाव से कि यह आन्दोलन शुद्ध साहित्यिक आन्दोलन है और चूँकि यह प्रगतिवादी आन्दोलन की पीठ पर आया है, इसलिए इसकी साहित्यिकता मुझे स्वाभाविक भी दीखती है।

       प्रयोगवाद के एकाच समर्थक ने यह कहा है कि "छायावाद की शब्दावली भावनाओं को प्रेषित करने में असफल सिद्ध होने लगी थी इसलिए नयी कविता को आना पड़ा। किन्तु यह अनुमान अशुद्ध है। छायावाद और रहस्यवाद की असमर्थता के समय प्रयोगवाद जन्मा भी नहीं था। और जब यह जन्मा, उसके पहले ही छायावादी कवि सँभलने लगे थे। यह ठीक है कि प्रयोगवादियों की साधना यदि सफल हुई, तो उससे अनुभूति और अभिव्यक्ति, दोनों की स्वच्छता में वृद्धि होगी। किन्तु यह शिक्षा प्रयोगवाद ने छायावाद से नहीं लो। यह ज्ञान तो उसने यूरोप की अत्याधुनिक आलोचनाओं और कविताओं से प्राप्त किया है। फिर यह तो ऐतिहासिक सत्य है कि प्रयोगवाद छायावाद के अनन्तर नहीं, छायावादोत्तर काल के पश्चात् उत्पन्न हुआ और छायावादोत्तर काल को ही लोग भ्रमवश प्रगतिवाद का काल कहने लगे हैं। अतएव, यदि प्रतिक्रिया की दृष्टि से सोचे तो कहना पड़ेगा कि जैसे छायावाद काल द्विवेदो-युग के विरुद्ध आया था और छायावादोत्तर काल छायावादी युग की परिष्कृति से उत्पन्न हुआ, वैसे ही प्रयोगवाद, छायावादोत्तर काल अथवा स्पष्टत प्रगतिवादी आन्दोलन के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न हुआ है। प्रगतिवाद और प्रयोगवाद के बीच यह जो प्रतिक्रिया का सम्बन्ध है उसे लोग, साधारणतः, इस कारण नहीं समझ पाते कि पहले 'तार-सप्तक' में भी साम्यवादी कवि घुसे हुए थे और आज भी इस धारा में ऐसे अनेक नवयुवक चल रहे हैं जो विचारों से मार्क्सवादी हैं। ये लोग इस आन्दोलन के साथ रहेंगे या इससे अलग हो जायेंगे, इस सम्बन्ध में कुछ भी कहना कठिन है। किन्तु इस प्रश्न का कोई खास महत्त्व भी नहीं है, क्योंकि यह तो पूर्णरूप से समझ में आने की बात है कि मार्क्सवादी होने पर भी व्यक्ति, चाहे तो, शुद्ध साहित्यिक भाव से साहित्य की सेवा कर सकता है। जब कवि के गाँधीवादी अथवा आस्तिक या नास्तिक होने से कवि-प्रतिभा मारी नहीं जाती, तब उसे मार्क्सवाद से ही क्यों भय होगा ?

       जिस बात का मेरी समझ में विशेष महत्त्व है, वह यह है कि प्रगतिवाद और प्रयोगवाद, दो भिन्न आन्दोलन है। प्रगतिवाद का खास जोर कवियों के सामाजिक विचार पर था। उसे इस बात की प्रायः, कोई चिन्ता नहीं थी कि वे विचार शुद्ध कविता की शैली में व्यक्त हो रहे हैं, या गद्य-कल्प रीति से। किन्तु, इस बात की उसे चिन्ता थी और बहुत अधिक थी कि कविगण साहित्य में राजनीति के दल-विशेष की पताका उठाये चल रहे हैं या नहीं। इसीलिए, मेरा मत है कि प्रगतिवाद साहित्यिक आन्दोलन नहीं था ।

      किन्तु, प्रयोगवाद पर ऐसा कोई भी आक्षेप नहीं लगाया जा सकता। वह, आदि से अन्त तक, शुद्ध साहित्यिक आन्दोलन है, कला का आन्दोलन है और उसका मुख्य ध्येय काव्य एवं कलासम्बन्धी हमारी धारणाओं को परिवर्तित करना है। यह आन्दोलन छायावाद को पीठ पर भी आ सकता था, क्योंकि इसका मुख्य ध्येय अनुभूति और अभिव्यक्ति, दोनों को स्वच्छ बनाना है और छायावाद काल में ये दोनों ही चीजें, अधिकांश रचनाओं में अस्वच्छ थीं। किन्तु यह आन्दोलन छायावाद काल की समाप्ति के साथ नहीं आया, जिसका एक कारण तो यह था कि उस समय हिन्दी में ऐसे युवक बहुत थोड़े थे, कविता के सम्बन्ध में जिनकी रुचि अन्तर्राष्ट्रीय रुचि से प्रभावित रही हो । दूसरे, अपनी तमाम दुर्बलताओं के साथ छायावाद पूर्णरूप से कलापूर्ण और साहित्यिकता से ओतप्रोत था। अतएव उस समय यह अत्यन्त अप्रासंगिक बात होती यदि कोई नया आन्दोलन यह घोषणा करने को आ जाता कि साहित्य में कला और साहित्यिकता की प्रतिष्ठा होनी चाहिए। यह तो कमल को रँगने और गुलाब को सुवासित करने के समान हास्यास्पद बात होती। छायावाद में सबसे बड़ी कमी सुस्पष्टता की थी जो सबको अनुभूत होती थी और सुस्पष्टता की दिशा में हिन्दी कविता ने छायावादोत्तर काल में प्रगति भी की। किन्तु जब प्रगतिवाद के नाम पर साहित्य में कनस्तर बजाये जाने लगे और साहित्यिक मूल्यों का ह्रास होने लगा, तब यह आवश्यक हो गया कि हिन्दी में कला और शैली के हिलते हुए महत्त्व को फिर से सुस्थिर करने के लिए कोई बड़ा प्रयास किया जाए। वही प्रयास, धीरे-धीरे बढ़कर प्रयोगवाद बन गया। यह और बात है कि अब इस आन्दोलन के दर्शन की पीठिका पर छायावादी और छायावादोत्तर युगों की प्रवृत्तियाँ भी खराद पर चढ़ी हुई मालूम होती है।

       स्वयं प्रयोगवादी ने अपना आन्दोलन आरम्भ करते समय इन बातों पर विचार किया था या नहीं, इस विचिकित्सा से मेरी स्थापना में कोई फर्क नहीं आता। कोई भी नया कवि, आरम्भ में, यह नहीं जानता कि वह प्रचलित शैली को छोड़कर किसी नयी शैली में क्यों लिख रहा है, न कविगण, आरम्भ में, यही जानते हैं कि वे किसी नये आन्दोलन के साथ है। नयी शैली भी उसी स्वाभाविकता से जन्म लेती है, जिस स्वाभाविकता से फूल चटकते या टहनी में पत्ते निकलते हैं। सचेष्ट आन्दोलन केवल राजनीति में चलते हैं। साहित्य में तो आन्दोलन भी सहज भाव से ही प्रकट होते हैं। बाद में चल कर जब छायावादियों का विरोध होने लगा, तभी स्वयं छायावादी कवि भी यह जान सके कि वे एक नये आन्दोलन के प्रवर्तक हो पड़े हैं। अन्यथा वे यह क्यों सोचने जाते कि कविताएँ नहीं लिख कर वे कोई आन्दोलन चला रहे हैं ? प्रयोगवाद के जन्म की प्रक्रिया भी ऐसी ही सहज थी। जब अनेक कवियों और आलोचकों ने साहित्य में विचारों को अत्यधिक प्रमुखता देकर उसके शैली पक्ष को गौण कर दिया, तब कुछ नवयुवक साहित्य के शैली या कला-पक्ष को ऊपर उठाने को आगे बढ़े। किन्तु आरम्भ में, इन युवकों को यह ज्ञात नहीं था कि वे प्रगतिवाद से उत्पन्न होनेवाले दोषों का परिहार करने को आगे आ रहे हैं। यही कारण था कि उनके इस सदुद्योग में बहुत से ऐसे लोग भी साथ हो गये जो अपने को प्रगतिवादी कहते थे अथवा जो मार्क्सवादी राजनीति के साथ थे। किन्तु, आन्दोलन जैसे-जैसे आगे बढ़ा, बातें सुस्पष्ट होती गयीं। यहाँ तक कि आज यह स्थिति है कि यद्यपि, नयी शैली में लिखनेवाले कितने ही कवि विचारों से मार्क्सवादी हैं, किन्तु, प्रयोगवाद और प्रगतिवाद के बीच का भेद, फिर भी काफी प्रत्यक्ष हो गया है।

       मुझे इस विषय में तनिक भी सन्देह नहीं है कि प्रगतिवादी आन्दोलन ने साहित्य में साहित्येतर मूल्यों को प्रोत्साहन देकर जो स्थिति उत्पन्न की, उसी से युवकों को, फिर से, शैली की महिमा पर विचार करने की प्रेरणा मिली और इसी चिन्तन से प्रयोगवाद का आविर्भाव हुआ, जिसका वास्तविक उद्देश्य काव्य में अधिक कवित्व और साहित्य में अधिक साहित्यिकता को उत्तेजित करना है। प्रगतिवाद के साहित्येतर लक्षणों का विरोधी होने के कारण ही प्रयोगवाद अपने ऊपर साहित्यिकता के सम्पूर्ण निर्वाह का अत्यन्त गुरु दायित्व लेकर आया है। किन्तु, दायित्व की इस भयानकता को वे क्या समझे, जो केवल साहित्यिक क्रान्ति के जोश में इस आन्दोलन के साथ हो गये हैं ? इसका मर्म तो कुछ वे ही कवि जानते होंगे जो सच्चे और ईमानदार है तथा इस दायित्व को सफल करने के प्रयास में जिनका दिमाग फटता होगा। इसी प्रकार, इस पीड़ा का रहस्य वे कवि भी न जान सकेंगे जो बनी बनायी राह पर चलने के अभ्यासी हैं।छायावाद की शैली रोमांटिक प्रेरणा से निर्मित हुई थी और रोमांटिसिज्म की उन्मत्त प्रेरणा आनन्द को चीज है। इस प्रेरणा के मन्दोन्माद में शैली का निर्धारण, प्रेरणा के प्रवाह में, बहुत कुछ आपसे-आप हो जाता है। किन्तु, प्रयोगवाद के भीतर आनन्दमय मन्दोन्माद के लिए अधिक गुंजाइश नहीं है। इसकी सफलता प्रेरणा के साथ बहने में नहीं, उसे विचारों के अधीन रख कर काम करने में है। रोमांटिक मनोदशा उड़ने की मनोदशा होती है और कल्पना की यह उड़ान अब तक कविता की सबसे बड़ी शक्ति मानी जाती रही है। इसके विपरीत, क्लासिक कवियों की यह मनोदशा होती है जिसमें कवि धीर, स्थिर और अपने वर्ण्य विषयों पर हावी बना रहता है। किन्तु, क्लासिक चिन्तन की ही दिशा में अब एक नयी मुद्रा उत्पन्न हो रही है जो उड़ने नहीं, जम कर मिट्टी तोड़ने की मुद्रा है, जो पर्वतों पर मूर्त्ति-खचन नहीं करके सदेह उनके भीतर प्रवेश करना चाहती है। इस मुद्रा के नये कवि, मुख्यतः, चिन्तक कवि होंगे, किन्तु, कल्पना को वे छोड़ नहीं सकते, क्योंकि उनका सारा चिन्तन कल्पनामय होगा। कल्पना के सिवा और कौन साधन है, जिससे कवि वस्तुओं के भीतर प्रवेश कर सके तथा कल्पना को छोड़कर और कौन शक्ति है, जो वस्तुओं की आन्तरिकता के ज्ञान को चित्रों में परिवर्तित कर सके ?

        इसीलिए, मेरा विचार है कि प्रयोगवाद हिन्दी कविता को जिस ओर जाने का संकेत दे रहा है, वह काव्यमात्र की सबसे श्रेष्ठ दिशा है और इसीलिए प्रयोग की साधना भी ऐसी साधना है जिससे अधिक कठोर साधना की कल्पना नहीं की जा सकती। न जानें, यह साधना कितने कवियों का बलिदान लेगी! न जानें, इसमें कितने कवियों के खाद बन जाने पर एक सफल कवि उत्पन्न होगा ! इस कविता की आलोचना भी कोई सरल कार्य नहीं है। और हमारे आलोचकों के पास जो पुरानी कसौटी है उस पर तो नये कवि परखे ही नहीं जा सकते। नये कवि अपना रहस्य, शायद आप "खोलेंगे। अभी भी, प्रयोगवादियों में अनेक कवि ऐसे हैं जिनके भीतर कारयित्री और भावयित्री प्रतिभाओं का अपूर्व संयोग है। मेरा अनुमान है कि जो लोग इन कवियों की कविताओं को हँस कर टाल देते हैं, वे भी उनके चिन्तनयुक्त समीक्षात्मक निबन्धों से अवश्य प्रभावित होते होंगे। ज्यों-ज्यों यह कविता विकसित होगी, त्यों-त्यों आलोचकों की कठिनाई बढ़ती जायगी। नयी कविता की समीक्षा यूरोप में भी दुष्कर सिद्ध हुई है। होल्डरलीन, रिम्बाड (या रेम्बू ?), रिल्के, इलियट, स्पेंडर, डिलेन, टामस आदि अभिनव कवियों की कृतियों का विश्लेषण करने में यूरोप के बड़े-बड़े दार्शनिक

       समीक्षको की बुद्धि को पसीना आ गया है। नवयुवकों ने कविता में जो अन्तर्राष्ट्रीय रुचि को अपनाना शुरू किया है, उससे भी उन्हें कलङ्क नहीं, सुयश की ही प्राप्ति होनी चाहिए। और अब क्या यह सम्भव है कि भारत की रुचि अन्य देशों से सर्वथा भिन्न रखी जा सके ? और अन्तर्राष्ट्रीय रुचि है क्या चीज ? वह अनेक राष्ट्रों की रुचियों के पारस्परिक मिलन से ही उत्पन्न होती है। गेटे के फास्ट का पिलूड भारतीय नाटकों के नान्दी-प्रसंग से बना था, शीलर और हाइने पर कालिदास का प्रभाव था और इलियट के विकास का एक मुख्य कारण उन पर उपनिषदों और बौद्ध चिन्तन का प्रभाव भी है। और इलियट को अपना आदर्श मान कर चलने में भारत के नवयुवकों का कोई अपमान भी नहीं है। इलियट आसानी से आज विश्व के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जा सकते हैं। और उनका उद्भव साहित्य जगत् के लिए कोई आकस्मिक घटना भी नहीं है। बहुत दिनों से कविता छिलकों को तोड़ कर बीज के भीतर प्रवेश करने का प्रयास करती आ रही है और इस क्रम में छिलके बहुत बार टूटे भी है और कभी-कभी कवियों ने बीज के भीतर प्रवेश भी किया है। किन्तु, कविता का अधिक सौन्दर्य अब तक छिलकों के रङ्ग से लिपटा रहा है। मगर, नये प्रयोगों में यह बात स्पष्ट हो रही है कि वस्तुओं के ऊपर-ऊपर अब काव्य नहीं है। कविता तो वस्तुओं के अन्तराल में बसती है। यह नया प्रयास प्रत्येक वस्तु की उसी आन्तरिकता में धँसने का प्रयास है। यह उन महलों में दीपक जलाने की तैयारी हैं जहाँ पहले किसी ने दिये नहीं जलाये थे। महर्षि अरविन्द की कल्पना थी कि अगले युग को कविता मन्त्र के समान होगी अर्थात् आकार उसका छोटा होगा, किन्तु, उसका प्रत्येक शब्द पाठक के भीतर अपार अनुभूतियों का द्वार खोलनेवाला होगा। कविता का यह मन्त्रत्व क्या होगा, इस बात की कुछ थोड़ी झाँकी इलियट की कविताओं में मिलने लगी है। हिन्दी कविता का चरम लक्ष्य इसी मन्त्रत्व की प्राप्ति है और राह भी उसकी वहाँ हो सकती है जिस पर आज इतना कोलाहल मचा हुआ है।

       और इस महायज्ञ के पुरोधा भी इसी भीड़ में छिपे हुए हैं। एक दिन यह भीड़ नष्ट हो जाएगी। सम्भव है, कोयलों के साथ कुछ हीरे भी नष्ट हो जाएँ। किन्तु, ये कोयले और ये हीरे, नष्ट होने पर भी नये हीरे उत्पन्न करेंगे। इसीलिए मैं इस आन्दोलन को अत्यन्त श्रद्धा से देखता हूँ और चाहता हूँ कि यह अपने ध्येय को न भूले, हू-हुल्लड़ में पड़ कर यह पथभ्रष्ट न हो जाए और इसके समर्थ कवि विवाद से बचकर, अज्ञात और अपरिचित को छूने के प्रयास में, अगाधता के भीतर अधिकाधिक डूबते चले।

        यह प्रयोग सफल हुआ तो कविता उस ऊँचाई या गहराई में पहुँचनेवाली है जहाँ वह पहले कभी नहीं पहुंची थी। यह ठोक है कि यह कविता जब सफल होगो, कवि सम्मेलन बन्द हो जायेंगे और कविता के पाठकों की संख्या भी अपेक्षाकृत कम हो जायेगी। किन्तु, तभी, शायद, वे लोग कविता की पुस्तकों को हाथ में लेंगे जो आज कविता की छूते भी नहीं और यदि, कृपापूर्वक, कभी उसे सुन लेते हैं तो केवल मनबहलाव के लिए, कुछ इस भाव से नहीं कि कविता भी अनिवार्य है अथवा वह भी उस मस्तिष्क की खुराक बन सकती है, जिसे तब तक सन्तोष नहीं होता जब तक कि वह किसी गहन गम्भीर विचार से टक्कर नहीं ले सम्भव है, मैं जो सोच रहा हूँ उसके घटित होने में अभी काफी देर हो और प्रयोग, अभी कई दशकों तक, प्रयोग ही रह जाये। किन्तु, कविता को अपनी खोयी प्रतिष्ठा को यदि फिर से प्राप्त करना है, तो उसकी राह वही है जिस पर प्रयोगवादी चल रहे हैं और उनमें से प्रत्येक को यदि खाद बनना पड़ता है, तो भी यह प्रयोग छोड़ने लायक नहीं है। आखिर, अँगरेजी के इमेजिस्ट कवियों का भी इतना महत्त्व तो मानना ही पड़ेगा कि जिस मार्ग पर आगे चल कर इलियट उत्पन्न हुए, उसके आरम्भिक प्रयोक्ता इमेजिस्ट कवि ही थे ।

           

        यही कुछ सोच कर मैंने किसी का नाम लिये बिना, प्रयोगवादी कवियों को अपना 'नील कुसुम' समर्पित किया था और उस आन्दोलन के प्रति अपनी आस्था प्रकट की थी, जो और कुछ कर सका हो या नहीं, किन्तु यह सूचना तो दे ही चुका है कि प्रचलित कविता, एक बार फिर जीवन के गियर' से छूट गयी है और उसे 'गियर' में वापस आने को, फिर से अपने भीतर नयी विच्छित्ति और नयी भङ्गिमा उत्पन्न करनी चाहिए। किन्तु, मेरे आशय को बहुत थोड़े लोगों ने समझा। बाकी तो इसी आश्चर्य में चकित रह गये कि 'नील कुसुम' में प्रयोग कहाँ है। किन्तु, मेरा निवेदन है कि 'नौल कुसुम' की पाँच-सात कविताओं में प्रयोग है और वह प्रयोग प्रयोगवादियों की श्रेणी में स्थान बनाने को नहीं, प्रत्युत्, अपने आप को 'गियर' में वापस लाने को किया गया है। 'नील कुसुम' के कवि और प्रयोगवादियों के बीच समानता का मुख्य विन्दु यह है कि प्रचलित कविता यथेष्ट नहीं है, क्योंकि उसके भीतर रोमांटिक रुझान है, गाने, रिझाने और प्रफुल्लित करने की प्रवृत्ति है जो उसे सोचने नहीं देती। प्रचलित कविता उस मनुष्य की कविता है जिसका मानस निश्चिन्त है, जो अपने विश्वासों में अडिग खड़ा है, जिसके भीतर यह शङ्का या जिज्ञासा उठती ही नहीं कि उसके विश्वास गलत है या ठोक हैं, जो मानसिक और मनोवैज्ञानिक कोलाहल से मुक्त है तथा जो मानता है कि उसके सामने कोई सुस्पष्ट आदर्श विद्यमान है, जो उसे खींच रहा है।

          लिखना ऐसी प्रक्रिया है जिसमें लेखक और पाठक, दोनों भाग लेते हैं। लेखक लिखता है, किन्तु, अपने जानते वह जिन पाठकों के लिए लिखता है, उनको रुचि लेखक को बहुत दूर तक प्रभावित करती है। अतएव, जो कवि निश्चिन्त है और अपने पाठकों को भी वैसा ही समझते है, उनका मानसिक कोलाहल से मुक्त रहना अत्यन्त स्वाभाविक बात है। कौन नहीं जानता कि समाज में अभी वे ही लोग बहुत हैं जो परम्परा के अनुसार सोचते हैं, जिन्होंने विज्ञान से उत्पन्न होनेवाली उलझनों को समझा ही नहीं है अथवा समझा है तो उनसे वे अपनी आँखें मूंदे हुए हैं ?

         विज्ञान के कारण दुनिया की हालत बदल गयी, किन्तु, विज्ञान छोड़ कर अन्यत्र हमारे सोचने का ढङ्ग नहीं बदला है, यद्यपि, उसे बदलना चाहिए और जितना शीघ्र यह बदलेगा, विज्ञान के साथ हमारा रागात्मक सामंजस्य भी उतना ही शीघ्र स्थापित होगा। सोचने का यही पुराना ढङ्ग कविता में हमारा पीछा कर रहा है। कविता को हम बहुत कुछ उसी दृष्टि से देखते हैं, जिस दृष्टि से दो सौ पीढ़ी पूर्व देखा करते थे। कविता, यानी वह चीज़ जिसमें छोटी बातें बड़ी बना कर कही जाती हैं, कविता, यानी वह चीज़ जो हमें दुनिया को भूलने में सहायता देती है; कविता, यानी वह चीज़ जो वायलिन पर गायी जाती है, कविता, यानी वह चीज़ जिसमें मादक छवियों का ध्यान होता है; कविता, यानी वह चीज़ जिसमें प्रेमी तड़पते और प्रेमिकाएँ आँसू बहाती है; कविता, यानी वह चीज़ जिसके जरिये आन्दोलन चलाये जाते हैं और कविता; यानी वह चीज़ जिसमें कान्ता सम्मित उपदेश होता है। कोई आश्चर्य नहीं कि उन्नीसवी सदी के आरम्भ में, टामस लव पिकाक ने कविता पर जोर से आक्रमण किया, जो एक तरह से, काव्य पर विज्ञान के ही आक्रमण का प्रतीक था। "ज्ञान, विज्ञान और बुद्धिवाद के युग में कविता का कोई उपयोग नहीं है। कवि सुसभ्य समाज में अर्ध-सभ्य प्राणी के समान जीता है। कविता चाहे जैसी भी हो, किन्तु, वह ज्ञान की किसी-न-किसी उपयोगी शाखा की कीमत पर जीती है। कितने खेद की बात है कि जो मस्तिष्क कठोर ज्ञान की साधना करने के योग्य है वह बौद्धिक प्रयासों के रिक्त एवं निरर्थक अनुकरणों में बर्बाद हो रहा है! जब सभ्यता बच्ची थी, कविता का यह उपयोग था कि वह मानसिक खड़खड़ाहट पैदा करके बुद्धि में थोड़ी जागृति उत्पन्न कर देती थी। किन्तु यदि ज्ञान की वयस्कता के काल में भी मनुष्य अपने बचपन के खिलौनों को गम्भीर चिन्तन का विषय मान ले, तो यह बिलकुल बेहूदी बात है।"

        पिकाक की बातें अप्रिय और असत्य भी थीं। किन्तु, समाज में ऐसे बहुत से लोग हैं, कविता के विषय में, जिनकी ऐसी ही धारणा है। यही कारण था कि विज्ञान के उस आक्रमण के उत्तर में शैली ने "इन डिफेन्स आव् पोयट्री" नामक निबन्ध लिखा और मैथ्यू अर्नाल्ड को जब पिकाक की दलीलों का कोई जवाब नहीं सूझा, तब वे यह कह कर बैठ गये कि चाहे जो हो, किन्तु, विज्ञान से यदि सभ्यता विनष्ट होने लगी, तो मनुष्य की रक्षा केवल कविता कर सकेगी। और वर्त्तमान सदी में भी आई० ए० रिचर्ड्स ने "सायन्स एण्ड पोयट्री" नामक अपने अत्यन्त लघु, किन्तु, विचारोत्तेजक ग्रन्थ में पिकाक का उद्धरण दे कर कवियों और आलोचकों के सामने फिर से यह प्रश्न उपस्थित किया है कि कौन यह उपाय है जिससे विज्ञान के युग में कविता अपने अस्तित्व का औचित्य सिद्ध कर सकती है।

कविता ज्ञान है या आनन्द, यह प्रश्न बहुत दिनों से विश्व के चिन्तकों को हैरान करता रहा है। कठिनाई यह है कि कविता को यदि ज्ञान कहें तो दर्शन, इतिहास, समाजशास्त्र, नीतिशास्त्र तथा अन्य विद्याओं के सामने कविता गौरवहीन हो जाती है, क्योंकि ज्ञान जितना इन विद्याओं से मिलता है, उतना कविता से नहीं मिल सकता । और यदि कविता को आनन्द कहें तो वह मनोरंजन की वस्तु बन जाती है तथा जीवन में उसका कोई गौरवपूर्ण स्थान नहीं रह जाता। और यदि यह कहें कि कविता ज्ञान और आनन्द, दोनों का मिश्रण है, तब भी कविता के गौरव में वृद्धि नहीं होती। वह कुछ तो दान या उधार पर जीनेवाली कङ्गालिनी हो जाती है तथा उसका कुछ रूप उस गवैये का रूप हो जाता है जिसका काम खा-पी कर डकार लेते हुए बाबुओं का मनोरंजन करना है। ज्ञान और विज्ञान से भरे हुए संसार में कविता की मर्यादा तब तक न बढ़ेगी, जब तक यह प्रमाणित न हो जाये कि मनुष्य के मन और जीवन में ऐसे भी "कुछ क्षेत्र हैं जो महत्त्वपूर्ण हैं और कविता उन क्षेत्रों की एकमात्र स्वामिनी है, अर्थात् कविता जो काम करती है वह अत्यन्त आवश्यक है और उसे कविता के सिवा और कोई विद्या नहीं कर सकती ।

        धर्म और विज्ञान पर विचार करते हुए आइंस्टीन इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि इन दोनों के कार्यक्षेत्र दो हैं । विज्ञान उन वस्तुओं का विश्लेषण करता है जिनका अस्तित्व है, अर्थात् विज्ञान के द्वारा हम उन नियमों का ज्ञान प्राप्त करते हैं जो इन वस्तुओं के पारस्परिक सम्बन्धों के आधार हैं। किन्तु, धर्म ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता। वह केवल इस बात पर विचार करता है कि मनुष्य को होना कैसा चाहिए। विज्ञान यह पता लगाता है कि हृदय मानव शरीर में दाहिनी या बायी ओर है। धर्म यह बतलाता है कि मानव जीवन में हृदय का महत्त्व क्या है। विज्ञान नित्य नयी शक्तियों का अर्जन करके उन्हें मनुष्य के हाथों में रखता जा रहा है, किन्तु, मनुष्य इन शक्तियों का उपयोग किन ध्येयों के लिए करे, यह शिक्षा विज्ञान से नहीं निकाली जा सकती। यह बात हमें धर्म बतला सकता है। किन्तु, धर्म अनादृत हो गया और मनुष्य ने अपने कार्यों के लिए धर्म से राय-मशविरा करना छोड़ दिया है। वह अपना सारा काम अब केवल बुद्धि से पूछ कर करता है। परिणाम यह है कि विज्ञान की शक्तियाँ मनुष्य का काल बन रही हैं, क्योंकि मनुष्य यह जानता ही नहीं कि इन शक्तियों का सम्यक् उपयोग क्या है।

       धर्म और कविता एक नहीं हैं। किन्तु, जैसे धर्म को छोड़ कर मनुष्य सङ्कट में आ पड़ा है, वैसे ही, यदि कविता उसके जीवन से विदा हो गयी तो वह इससे भी भयानक सङ्कटों में गिरने वाला है। कारण यह है कि धर्म की अपेक्षा कविता का मूल मानवीय अस्तित्व की अधिक गहराई में है। धर्म को नहीं माननेवाले कितने ही व्यक्ति हैं, जो समाज के अच्छे सदस्य हैं। किन्तु, जिसके भीतर भाव (दया, प्रेम, घृणा, उत्साह आदि) नहीं जगते हो, ऐसे व्यक्ति की कल्पना करना कठिन है और यदि यह अकल्पनीय व्यक्ति कहीं है तो वह समाज के लिए सुखकर नहीं, कष्टकर ही होगा। इसीलिए, मैथ्यू अर्नाल्ड ने संकेत किया था कि विज्ञान ने यदि धर्म को मार भी दिया, तो ऐसे समय में एकमात्र कविता मनुष्य को रक्षिका और सहायिका सकती है।

       किन्तु, धर्म को क्या विज्ञान ने मारा है ? विज्ञान ने बुद्धिवाद का दीपक जलाया। धर्म इस दीपक का प्रकाश न सह सकने के कारण आपसे आप लांछित हो गया। विज्ञान की सङ्गति में आकर मनुष्य ने यह शिक्षा ग्रहण की कि सत्य सापेक्ष होता है और मनुष्य का ज्ञान नयी शोधों के अनुसार बराबर बदलता रहता है। इतिहास, दर्शन और विज्ञान में भी, एक समय, मनुष्य ऐसी बातों में विश्वास करता था जो ग़लत थीं। इसलिए, उसने नयी शोध की ओर बहुत-सी प्राचीन भूलों को सुधार कर वह नयी बातों में विश्वास करने लगा। किन्तु, धर्माचार्यों ने कहा, संशोधित धर्म कोई धर्म नहीं है। धर्म जैसा जन्मा था, वैसा ही सत्य है। उसमें सुधार की गुंजाइश कहीं भी नहीं मानी जा सकती। अतएव, इस दुराग्रह के कारण धर्म निन्दित हो गया और मनुष्य उसकी अधीनता से छूट कर यह सोचने लगा कि आत्म-तुष्टि के लिए अब जो कुछ भी किया जाए, वह जायज़ है, बशर्ते कि हम पुलिस के हाथों से बचे रहे। धर्म का पतन इस कारण हुआ कि धार्मिक लोग विज्ञान और बुद्धिवाद के साथ अपना सामंजस्य नहीं बिठा सके। सामंजस्य बिठाना अनिवार्य रूप से समझौते की प्रक्रिया नहीं है। उसका अर्थ केवल इतना है कि नये सत्यों के अनुसन्धान से हमारे मन और जीवन में जो हलचल उठती है, हमारे विश्वासों में जो कम्पन आता है, उसका हम कोई समाधान खोज सकें ।

      जैसी समस्या धर्म के सामने थी, वैसी ही समस्या अब कविता के सामने उपस्थित हुई है। और कहीं कवियों और काव्य-रसिकों ने यह हठ किया कि काव्य-सम्बन्धी वे ही धारणाएँ ठीक हैं जो पहले से चली आ रही हैं, तो एक दिन कविता का भी वही हाल होगा जो धर्म का हुआ है। विशेषतः, विज्ञान के युग में काव्य-विषयक रोमांटिक धारणाएँ टिकनेवाली नहीं है।

       कविता के सम्बन्ध में पूछा जाने योग्य अब यह प्रश्न नहीं रहा कि कविता ज्ञान है या आनन्द। हमें पूछना यह चाहिए कि कौन वह कार्य है जिसे केवल कविता कर सकती है। ज्ञान और आनन्द अपनी जगह पर रहें। हमें उनसे कोई झगड़ा नहीं है। किन्तु, कविता के रूप और आत्मा पर प्रभाव अब उस उत्तर का पड़ेगा जो इस प्रश्न से निकलता है कि कविता किन कारणों से अन्य विद्याओं से भिन्न है अथवा कौन वह

     कार्य है जिसे अन्य विद्याएँ नहीं कर सकती, किन्तु, कविता कर सकती है। बरट्रेंड रसल ने मानव स्वभाव का विश्लेषण करते हुए एक जगह लिखा है कि मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ तीन प्रकार की होती हैं। पहली प्रवृत्ति तो वह है जो स्थूल और अनगढ़ रूप में सभी जीवधारियों में देखी जाती है। यह प्रवृत्ति जीवधारी प्रवृत्ति है जो हममें क्षुधा, तृषा और यौनेच्छा जाग्रत करती है तथा जिसकी प्रेरणा से हम क्रोध, प्रेम, घृणा और उत्साह का अनुभव करते हैं। आत्मरक्षा की प्रवृत्ति इसी जीवधारी प्रवृत्ति के साथ है और वह मनुष्य के साथ पशु में भी पायी जाती है। भेद केवल सूक्ष्मता और स्थूलता का है। भैंस नहीं चाहती कि उसके खूँटे पर कोई दूसरी भैंस आये। घृणा का यही भाव परिष्कृत होकर मानव समाज में राष्ट्रीयता कहलाता है

         मनुष्य में दूसरी प्रवृत्ति सोचने अथवा चिन्तन करने की प्रवृत्ति है । सोचने की किचित् शक्ति पशुओं में भी होती है। किन्तु, पशुओं का सोचना केवल उपयोग की दृष्टि से चलता है। गायें इतना ही सोच सकती हैं कि कौन घास खाने योग्य है और कौन नहीं अथवा खतरों के समय कैसे और किधर को भागना चाहिए। जो उपयोगी नहीं है, उस पर पशु विचार नहीं करते। किन्तु, मनुष्य बहुत सी ऐसी बातों पर विचार करता है, जिनका कोई उपयोग नहीं है। संसार के सारे के सारे आविष्कार आकस्मिक रूप से हुए हैं। मनुष्य पूरब की ओर सोच रहा था, अचानक पश्चिम की ओर से झलक आ गयी। ज्ञान ज्ञान के लिए और चिन्तन चिन्तन के लिए यह बात यदि सत्य नहीं होती तो सोचने की प्रक्रिया में जो कष्ट है, उसे कौन स्वीकार करता ? यदि ज्ञान का संचय, अपने-आप में ही, आनन्द की वस्तु न हो तो कोई भी व्यक्ति अधिक संचित करना नहीं चाहेगा। सभी ज्ञान उपयोगी और सोद्देश्य नहीं होते। बहुत से ऐसे ज्ञान भी हैं जिनका मनुष्य की जीवित रहने की प्रवृत्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है। बल्कि, मनुष्य ने बड़ी कठिनाई झेल कर ऐसा भी ज्ञान प्राप्त किया है जिसका एकमात्र उपयोग आत्महत्या में किया जा सकता है।

        मनुष्य की तीसरी प्रवृत्ति सदसद्-विवेक की प्रवृत्ति है जिसे धर्म की भाषा में आत्मा कहते हैं। कई लोग इस प्रवृत्ति को भी बुद्धि का ही अंश मानते हैं। किन्तु, बुद्धि सोचने का यन्त्र मात्र है। वह क्या सोचे और क्या न सोचे, किस दिशा में जाए और किस दिशा में न जाए, यह प्रेरणा किसी और शक्ति से आती है। यही शक्ति धर्म, कांसेंस, स्पिरिट आदि नामों से अभिहित की जाती है। अथवा यों कहें कि सोचने के यन्त्र में भी इतना अधिक विवेक है कि वह आधिभौतिक सङ्कटों से बच कर चले, मानों, कोई इंजिन पहाड़ों और नदी-नालों को देख कर आपसे-आप मुड़ जाता हो। किन्तु, एक और प्रकार का सङ्कट है जो आधिभौतिक नहीं, आध्यात्मिक होता है, जैसे यह बात कि बुद्धि मनुष्य को धनवान बनाना चाहती हो, किन्तु, कोई शक्ति आ कर

       उसे यह बता जाए कि चोरी करके धनवान नहीं बनना चाहिए। मनुष्य को सदसद्-विवेकवाली प्रवृत्ति जन्मजात प्रवृत्ति है या वह अनुभव और अभ्यास से बनी है, इस विचिकित्सा का कोई बड़ा महत्त्व मैं नहीं मानता। मनुष्यों के भावों का मूल कहाँ है, इसका अन्तिम समाधान, प्रायः, असम्भव बात है। वस्तुस्थिति यह है कि मनुष्य में अब हम इन तीनों प्रवृत्तियों को काम करते देखते हैं और हमारे व्यक्तित्व का चौकोर विकास इन तीनो प्रवृत्तियों के सन्तुलित विकास पर ही निर्भर करता है। असभ्य मनुष्य में जीवधारी प्रवृत्ति अत्यन्त प्रबल होती है तथा बाकी दो प्रवृत्तियाँ उसके भीतर नाममात्र को ही होती हैं। इसी प्रकार, वर्त्तमान सभ्यता में ऐसे भी लोग हैं जिनकी चिन्तन शक्ति तो बहुत समुन्नत हो गयी है, किन्तु आत्मिक और जीवधारी प्रवृत्तियाँ उनमें अपेक्षाकृत अविकसित अथवा अपरिमार्जित रह गयी हैं। परिणाम यह है कि उनकी बुद्धि में बहुत दूर तक अमानुषिकता और निर्जीवता के दोष दिखायी देते हैं।

       असन्तुलित जीवन का एक उदाहरण असभ्य प्राणी है जिसमें जीवधारी प्रवृत्ति बिलकुल अनियन्त्रित होती है जैसे वह पशुओं में दिखायी देती है। उसका दूसरा उदाहरण वह सिनिक या विक्षिप्त चिन्तक है जिसने आत्मा की उपेक्षा को है तथा जो मनुष्य की जीवधारी प्रवृत्तियों की ओर से भी आँख मूंदे हुए है। और असन्तुलित जीवन का तीसरा उदाहरण वह हठयोगी है जो केवल आत्मिक शक्तियों का ही विकास चाहता है तथा जो बौद्धिक एवं जीवधारी, दोनों प्रवृत्तियों का दलन सिखाता है। जो प्रवृत्तियाँ दलित की जाती है, वे सुन्दर नहीं, कुरूप हो जाती हैं, वे मरती नहीं, प्रत्युत्, अपरिमार्जित रह जाने के कारण भयानक भ्रम और कुण्ठाएँ उत्पन्न करती हैं। जो व्यक्ति क्रियाशील चिन्तन का प्रेमी है तथा जो जीवन से स्वस्थ प्राकृतिक आनन्द भी चाहता है, वह हठयोग को सन्तुलित जीवन का आदर्श नहीं मान सकता। केवल योगी, केवल पण्डित और केवल भोगी में से प्रत्येक व्यक्ति मनुष्य के एकाङ्गी विकास का उदाहरण होगा। मनुष्य का सर्वाङ्गीण विकास उसकी योग, भोग और पाण्डित्य, तीनो प्रवृत्तियों के अधिक से अधिक सन्तुलित विकास में है। इसीलिए, जीवन में विज्ञान भी चाहिए तथा साहित्य और 

धर्म भी ।

       इन तीनों प्रवृत्तियों में से मनुष्य की जीवधारी प्रवृत्ति सबसे प्रबल होती है और साहित्य के जो मूल भाव (रति, क्रोध, घृणा, उत्साह आदि) हैं, वे इसी प्रवृत्ति से उत्पन्न होते हैं। चूँकि इस धरातल पर मनुष्य पशुओं का साथी होता है, इसलिए हमारे मनोवेग पाशविक संवेगों के रूप में आते हैं। किन्तु, बुद्धि और आत्मा की प्रवृत्तियाँ उन्हें छील कर कोमल और चिकना कर देती हैं। कला का जन्म जीवधारी-धरातल पर होता है और जन्म ले कर वह आत्मा की ओर बढ़ना चाहती है। इसीलिए कलाओं में वासना भी होती है, विश्व की सुन्दरता का भी बखान होता है और अन्त में, उसके भीतर रहस्यात्मक अनुभूतियाँ भी प्रकट होती हैं। रहस्यात्मक अनुभूति का स्तर वह स्तर है जहाँ पहुँच कर वस्तुओं का स्थूल रूप विलीन होने लगता है तथा वे अत्यन्त सूक्ष्म आवरण मात्र रह जाती है जिनके पीछे विश्व का सार मनुष्य को अर्ध-निरावृत रूप में दिखायी पड़ता है।

और धर्म का जन्म आत्मा के धरातल पर होता है। किन्तु, उसको सार्थकता इस बात में है कि वह आत्मा के स्तर पर से उतर कर जीवधारी-धरातल की प्रवृत्तियों को "प्रभावित करे। जीवधारी-प्रवृत्तियाँ उल्लंग और असंयत होती है, किन्तु, धर्म के भाव जब उन्हें प्रभावित करते हैं, तब वे ही प्रवृत्तियाँ सावधान, अंतः, सुन्दर हो जाती हैं। धर्म की इसी प्रक्रिया से नीतियों का जन्म होता है। और जीवन, मस्तिष्क एवं आत्मा की इन्हीं तीन प्रवृत्तियों से साहित्य, विज्ञान और धर्म उत्पन्न होते हैं। साहित्य और कलाओं का जन्म जीवधारी प्रवृत्ति से होता है, विज्ञान का मस्तिष्क से तथा धर्म का आत्मा से और इन्हीं प्रवृत्तियों से उत्पन्न होनेवाली क्रियाओं को पहले, क्रमशः, काम, अर्थ और धर्म कहते थे ।

         अपने निम्नतम धरातल पर मनुष्य पशुओं का भाई है, किन्तु चरम विकास पर पहुँचते-पहुँचते वही देवत्व का स्पर्श करने लगता है। तो पशुत्व से देवत्व तक की जो दूरी है उसे मनुष्य कैसे तय करता है ? क्या बुद्धि के बल पर ? तब तो सभी पण्डित और विद्वान् देवता हो गये होते। किन्तु वे देवता नहीं हैं। एक मनुष्य वह था जो गुफाओं में रहता था और दाँतों या नखों से अपने वैरी को फाड़ डालता था। दूसरा मनुष्य वह है जो वातानुकूलित भवन में रहता है और एक भी आँसू बहाये बिना हिरोशिमा में एक बम फेंक कर चार लाख मनुष्यों को मार डालता है। और इन दोनों में से देवता कोई भी नहीं है, न तो गुफावासी वह असभ्य मानव, न वातानुकूलित भवन में रहनेवाला वह सुसभ्य मनुष्य बुद्धि बहुत बड़ी शक्ति है, किन्तु वह अपने आप में इतनी समर्थ नहीं है कि मनुष्य को पशुत्व से उठा कर देवत्व तक पहुँचा दे। मनुष्य का यह उत्थान उसके भावों के परिष्कार से होता है और भावों का परिष्कार ही वह कार्य है जिसके लिए साहित्य और कलाओं की आवश्यकता है।

        केवल इतना ही कहना यथेष्ट नहीं दीखता कि बुद्धि मनुष्य के भावों का परिष्कार करने में अक्षम और असमर्थ है, प्रत्युत्, कहना यह चाहिए कि भावों के परिष्कार की क्रिया बुद्धि के स्वभाव में ही नहीं है। उलटे, यदि लक्षणों से कोई अनुमान निकाला जा सकता है तो वह बुद्धि के और भी प्रतिकूल पड़ेगा, क्योंकि जब से विज्ञान का उत्थान हुआ, दयालु, श्रद्धालु, परोपकारी और दूसरों के निमित्त कष्ट सहनेवाले व्यक्तियों की संख्या कम होती गयी है। यही नहीं, प्रत्युत्, विज्ञान के युग में जो थोड़े से ऐसे सन्त भी हुए उनमें से अधिकांश विज्ञान को शङ्का से देखते थे। इस वैज्ञानिक युग की विचित्रता यह है कि लंदन के घंटे की आवाज तो हमें रेडियो के द्वारा पटने में भी सुनायी पड़ती है, किन्तु पास-पड़ोस में कराहने वाले रोगी की आवाज हमारे कान नहीं सुन सकते ।

        विज्ञान ने जो भी आविष्कार या अनुसन्धान किये हैं उनसे मनुष्य की सुजनता नहीं, शक्ति की वृद्धि हुई है, क्रूरता नहीं, कठिनाइयों में कमी आयी है। शरीर में जहाँ भी कोई घमनी, नाड़ी, रेशा या तार है, विज्ञान उन सब को जानता है। किन्तु उसने कभी भी यह जानने की कोशिश नहीं की कि मनुष्य कवि क्यों होता है, वह नाचना और गाना क्यों चाहता है, तथा वह सांसारिक सुखों को लात मार कर रहस्यवादी और सन्त क्यों बन जाता है। और कोशिश नहीं की, इसमें उसका कोई दोष नहीं है, क्योंकि इन रहस्यों को जानने का विज्ञान के पास कोई साधन ही नहीं है, न ये रहस्य उसके क्षेत्र में ही पड़ते हैं। इधर मनोविज्ञान के नाम से जो साहित्य निर्मित हो रहा है, सम्भव है, उसे आगे करके यह कहा जाये कि अब विज्ञान भावों के क्षेत्र में भी प्रवेश कर रहा है। किन्तु, मनोविज्ञान, शुद्ध विज्ञान नहीं, आधा साहित्य है और उसकी स्थापनाओं को हम बुद्धि के साथ-साथ भावों की भी उपस्थिति में स्वीकार करते हैं। यह साहित्य की एक नयी शाखा है जो मनुष्य की भावनाओं और प्रेरणाओं का विश्लेषण करोब करीब, विज्ञान की भाषा में करती है।

और साहित्य, यद्यपि, यही कार्य नहीं करता जो मनोविज्ञान करता है, किन्तु, दोनों के बीच समानता को भी कुछ बाते हैं। उदाहरणार्थ, मनोविज्ञान यह जानना चाहता है कि भावों के पारस्परिक सम्बन्ध क्या हैं और प्रवृत्तियों के बीच घात-प्रतिघात के काम कैसे चलते हैं। किन्तु, मनोविज्ञान जिसे अटकल से जानना चाहता है, साहित्य उसे आँखों से देख लेता है। यही नहीं, साहित्य स्वयं जो कुछ देखता है, वह साहित्य के पाठकों को भी आँखों के सामने प्रत्यक्ष हो उठता है। और यह तो है ही कि नाटकों, उपन्यासों और कविताओं के द्वारा मनुष्य के भावों में चढ़ाव उतार की जो प्रक्रिया चलती है, उससे मनुष्य के भावों का परिष्कार होता है, उसकी मानसिक गुत्थियाँ ढीली होती हैं और उसके अचेतन मन पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है। यह कुछ-कुछ वैसी हो प्रक्रिया है जैसे अस्पतालों में पगलों का पागलपन दूर करने के लिए उन्हें इनसुलीन की सूई देकर पहले बेहोश कर देते हैं और फिर ग्लूकोज देकर उन्हें होश में लाते हैं। लगभग दो हजार वर्ष पहले प्लेटो ने कविता पर यह आक्षेप लगाया था कि वह अनैतिक वस्तु है, क्योंकि वह रागों का शमन नहीं करके उन्हें उत्तेजित बनाती है। इस आक्षेप का उत्तर अरस्तू ने यह कह कर दिया था कि नाटक रागों में वृद्धि नहीं करके उनका रेचन करते हैं। दुःखान्त नाटकों को देख कर हममें भय, घृणा या क्रोध के जो भाव जगते हैं उनके परिणामस्वरूप, हम भीरु, मानवद्वेष्टा या क्रूर नहीं बन जाते। उलटे, इन दुर्गुणों के रेचित हो जाने के कारण हमारे भाव पहले की अपेक्षा कुछ अधिक शुद्ध हो जाते हैं। मेरा ख़याल है, अरस्तू ठीक थे। मनुष्य का आन्तरिक परिष्कार साहित्य उसके भावों को ही जगा कर करता है। इसीलिए, भरत ने साहित्य के रस पक्ष पर इतना जोर दिया। इसीलिए, पश्चिम में विज्ञानंतर साहित्य को हयूमेनिटीज़ कहने की प्रथा अब तक प्रचलित है। शक्तियाँ मनुष्य की ज्ञान और विज्ञान से आती हैं, किन्तु, उसके मानवीय गुणों का विकास साहित्य और कला से होता है। बुद्धि पर जमी हुई पपड़ियाँ विज्ञान की नयी शोधों से टूटती हैं, किन्तु, मनुष्य के हृदय पर की पपड़ियों को तोड़ने का काम नाटक, उपन्यास, चित्र, सङ्गीत तथा कविताएँ करती है। 

इस प्रसङ्ग में, रिचर्ड्स का यह मत उल्लेख के योग्य है कि कविता का श्रेय अव मनोविज्ञान की उस प्रक्रिया को प्रभावित करने में है जो मनुष्य की चेतना में सतत सुगबुगाहट और तरङ्ग उत्पन्न करती रहती है तथा कविता की जाँच भी अब इसी कसौटी पर की जानी चाहिए कि उसके द्वारा मनुष्य की अधिक-से-अधिक मानसिक प्रवृत्तियों के बीच सन्तुलन उत्पन्न होता है या नहीं तथा उसके जरिये मनुष्य की उदारता या आत्मिक प्रसार की वृद्धि होती है अथवा कुण्ठा और सङ्कीर्णता की। यदि रिचर्ड्स का यह मत चला तो काव्यालोचन का असली क्षेत्र मनोविज्ञान हो जायेगा (जो बहुत दूर तक आज भी है) और कवि की जो शक्ति आज वादों, विचारों और आन्दोलनों के समर्थन या विरोध में नष्ट होती है, उसका उपयोग मनुष्य के मनोवैज्ञानिक स्वरूप के चित्रण में होने लगेगा। सारा क्रोध राजनीति पर उतारना बेकार है। राजनीति के संचालक और जो उनसे पीड़ित हैं, दोनों ही श्रेणियों में ऐसे लोगों की संख्या बेशुमार है जो अपनी मानसिक प्रवृत्तियों के बीच सामंजस्य नहीं ला सकने के कारण लोभी, कायर या क्रूर हो गये हैं, जो मानसिक धरातल पर ठीक से नहीं जी सकने के कारण अर्धमनुष्यता की स्थिति में जी रहे हैं, जो मानसिक कुण्ठाओं से ग्रस्त होने के कारण हीन भावना अथवा अहङ्कार से पीड़ित हैं। इन रोगियों की ओर से राजनीति पर हल्ला बोलना आसान है, किन्तु, वह सदैव चिकित्सा का सही ढङ्ग नहीं माना जा सकता । रोगी पर केवल दया दिखाना ही यथेष्ट नहीं है। उसे रोग की निद्रा से जगने के लिए मानसिक झकझोर की भी आवश्यकता हो सकती है और यह झकझोर उसे साहित्य दे सकता है। और यह साहित्य उन आलोचकों का भी उपकार करेगा जो अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने का और कोई उपाय नहीं देख कर जीवित या मृत लेखकों की कृतियों को धुन कर यशस्वी होना चाहते हैं। यह भी एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक रोग है। सार्त्र ने कहा है, "ज्यादा आलोचक ऐसे ही हैं जिन्हें अच्छे दिन देखने का सुयोग नहीं मिला है जिनकी पत्नियाँ, शायद, उनकी वैसी प्रशंसा नहीं करती जैसी उन्हें करनी चाहिए जिनके बच्चे, कदाचित्, कृतघ्न हैं अथवा जिन्हें पैसों की कमी के कारण कष्ट है।" अपने परिवार और समाज में जो व्यक्ति सम्मान नहीं पाता, वह आलोचना में आने पर कटुता उद्गीर्ण करता है । 


इस मत के प्रचलन का दूसरा परिणाम यह होगा कि कविता की भाषा ढीलो ढाली न रह कर कुछ अधिक सुनिश्चित और चुस्त हो जायेगी, यद्यपि, वह विज्ञान की

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 प्रथम तार सप्तक पर विचार करते हुए मैने मिट्टी की ओर" नामक ग्रन्थ में लिखा था, "उसकी (नयी कविता की) चिन्ताधारा पर चित्रव्यंजना से अधिक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पद्धति का प्रभाव है।"

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भाषा कभी नहीं बनेगी। विज्ञान और कविता में जो भेद है वह दोनों के भाषा प्रयोगों में स्पष्ट हो जाता है। वैज्ञानिक और कवि शब्द तो प्रायः, एक ही कोष से लेते हैं, किन्तु, शब्दों को वाक्यों के भीतर बिठाने में दोनों के तरीकों में भेद पड़ जाता है। कवि शब्दों को इस उद्देश्य से बिठाता है कि वे अपनी ध्वनि को झकृत कर सकें, एक नहीं अनेक अर्थों का संकेत दे सकें, उनसे प्रभावोत्पादकता टपके और वे पाठकों के भीतर किंचित् आवेश भी उत्पन्न कर सकें। किन्तु, वैज्ञानिक का उद्देश्य इसके सर्वथा विपरीत होता है। किसी भी वैज्ञानिक का विश्वास हम इसलिए नहीं करते कि वह प्रभावोत्पादक ढङ्ग से बोलता है, बल्कि, वह यदि प्रभाव जमाने को बोलने लगे तो हमें उस पर सन्देह होने लगेगा। वैज्ञानिक एक शब्द से एक ही अर्थ लेना चाहता है और न तो वह स्वयं आवेश में आता है, न अपने शब्दों के द्वारा दूसरों को आविष्ट बनाना चाहता है। 

प्रकृति अथवा सुन्दरता का वर्णन यदि कविता में किया जाये और फिर वैज्ञानिक ढङ्ग से गद्य में तो, प्राय: काव्यगत वर्णन अधिक सत्य और सुनिश्चित वर्णन प्रतीत होगा। कारण यह है कि अर्थों के जितने बिम्ब (शेड्स या न्वांसेज़) है, किसी भी भाषा में उन सबके लिए अलग-अलग शब्द नहीं है। किन्तु इस शब्दाभाव की कठिनाई को कवि अपने शब्दों को कलापूर्ण योजना से दूर कर देता है। कविता का अर्थ समझने के पहले ही हम पर छन्द, वाक्यविन्यास और शब्दों के बैठने की अदा का असर होने लगता है। परिणाम यह होता है कि कविता पढ़ते-पढ़ते हमारे भाव जग पड़ते हैं, हम में एक विशेष प्रकार की भावदशा उत्पन्न हो जाती है और भावों को जागृति को अवस्था में हम शब्दों से वह अर्थ ले लेते हैं जो कवि हमें बतलाना चाहता है। किन्तु, वैज्ञानिक पद्धति से प्रयुक्त शब्द ऐसे अर्थ देने में असमर्थ होते हैं क्योंकि शब्दों के भीतर वे अर्थ होते ही नहीं। यह तो कवि-कौशल का चमत्कार है कि वह कई शब्दों को कलापूर्वक आसपास बिठाकर कोई ऐसा अर्थ उत्पन्न कर दे जो अलग-अलग खोजने पर किसी भी एक शब्द में नहीं मिल सकता ।

रिचर्ड्स की परिभाषा साहित्य में स्वीकृत हो या नहीं, किन्तु, मुझे ऐसा लगता है कि कविता में महान् परिवर्तन होने जा रहा है, बल्कि, यह कहना चाहिए कि कविता पुनर्जन्म लेने की तैयारी में है और यह तैयारी नयी कविता के जन्म के पूर्व बहुत काल तक चलनेवाली है। और यह बात मैं इसलिए नहीं कहता कि अपने चारों ओर मुझे जो कोलाहल सुनायी देता है, मैं उसके प्रभाव में हूँ। सच तो यह है कि आगामी कविता की दूरागत पदचाप मुझे अपनी हो रचनाओं के भीतर सुनायी पड़ी है।

'नील कुसुम' मे परम्परागत शैली को भी कविताएँ हैं और कुछ रोमांटिक गीत भी हैं। किन्तु, मेरे जानते ये कविताएँ 'नील कुसुम' की विशिष्टता का प्रमाण नहीं है। इस संग्रह की विशिष्टता उन कविताओं में देखी जा सकती है, जिनका छन्द गद्य की भङ्गिमा लिये हुए है तथा जिनकी भाषा बिलकुल साधारण बोलचाल की है। और इन्हीं कविताओं में भावुकता भी बौद्धिकता के अनुशासन में चलती है। "शबनम की जंजीर", "कल कहा एक साथी ने तुम बर्बाद हुए", "तुम क्यों लिखते हो", "सपनों का धुआँ", "नील कुसुम", "भावी पीढ़ी से", "सबसे बड़ी आवाज़" आदि कविताओं की रचना मैंने जानबूझकर अपनी तकनीक बदलने के लिए नहीं की थी। जीवन की समस्याओं पर सोचते सोचते ये कविताएँ आप से आप स्फुरित हो गयीं। हाँ, रचना के बाद मैंने देखा कि इन कविताओ की भङ्गिमा या वातावरण वही नहीं है जो मेरी पहली कविताओं में था। फिर, मुझे यह भी लगा कि ये कविताएँ अधिक ताज़ी और मेरी आत्मा के अधिक समीप । अतएव, मुझे अपने ही कृत प्रयोग से यह भासित हो गया कि कविता की प्रचलित शैली अपूर्ण होने लगी है और यहाँ से काव्य का मार्ग वे प्रशस्त करेंगे जिनपर परम्परा का बन्धन उतना कड़ा नहीं है जितना कि वह हमलोगों पर है। विशेषतः मुझे यह महसूस हो रहा है कि अब हम जिस युग में जी रहे हैं उसका सङ्गीत टूट गया है। इसका कारण यह है कि जैसे छन्दों में काव्य-रचना करने है का मैं अभ्यासी रहा था, वे छन्द अब मुझे अधूरे लगने लगे हैं। "नोल कुसुम और "शबनम की जंजीर वाले छन्द में मुझे जो तृप्ति हुई, वह इधर हाल में और किसी भी छन्द में न थी। यदि मेरा यह आत्मविश्वास गलत या अतिरंजित नहीं है कि मेरे भीतर का चेतना यन्त्र अभी काल के हृदय की धड़कनों को पकड़ सकने में समर्थ है, तो मेरा अनुमान है कि जो छन्द सङ्गीत को अपील करते हैं, उनके द्वारा वर्तमान युग का टूटा हुआ सङ्गीत पकड़ा नहीं जा सकता। किन्तु जिस दिन मैंने ये पंक्तियाँ लिखी कि, 


रचना तो पूरी हुई, जान भी है इसमें ?

पूहूँ जो कोई वात, मूर्त्ति बतलायेगी ? 

लग जाय आग यदि किसी रोज़ देवालय में, 

चौंकेगी या यह खड़ी खड़ी जल जायेगी ?


उस दिन मुझे लगा कि काल का भग्न सङ्गीत इन में बहुत दूर तक गिरफ्तार हो गया है। और यह छन्द जिस ज़ोर से चल पड़ा और जिस उत्साह से अगणित नवयुवक उसमें कविताएँ लिखने लगे हैं, उससे मेरा यह विश्वास और भी बढ़ गया है कि अब वे हो छन्द कवियों के भीतर से नवीन अनुभूतियों को बाहर ला सकेंगे जिनमें सङ्गीत कम, सुस्थिरता अधिक होगी, जो उड़ान की अपेक्षा चिन्तन के अधिक उपयुक्त होंगे लेकिन, मैं यह नहीं मानता कि केवल यह या ऐसे हो छन्द भावी कविता के छन्द होंगे । इन पाँच-सात कविताओं की रचना के बाद जो बात मुझे दिखलायी पड़ी वह यह थी कि हमारी मनोदशाएँ परिवर्तित हो रही हैं और इन मनोदशाओं की अभिव्यक्ति वे छन्द नहीं कर सकेंगे जो पहले से चले आ रहे हैं। इन कविताओं को लिख कर मैंने सब से बड़ी चेतावनी अपने आप को दी थी कि यदि कविता की भूमि में अभी और रहना है तो अब गर्जमान छन्दों से काम नहीं चलेगा।


बन्धु मेरे सिन्धु, यों क्या चीखते हो ? 

तुम सुयश के भिक्षु मुझको दीखते हो ? 

मोह में भूले हुए प्लुत में पुकारो, 

या कि उससे भी अधिक निज कण्ठ फाड़ो। 

यह जगत इस छोर से उस छोर तक 

क्या कभी गर्जन तुम्हारा सुन सकेगा ?


जिस तरह तुम धुन रहे मस्तक यहाँ पर 

उस तरह संसार क्या सिर धुन सकेगा ? 

मूक हो जाओ अगर वल चाहते हो । 

रव नहीं, रवहीन की झंकार है वह, 

मूकता के साथ एकाकार है वह, 

मूक है, प्रच्छन्न है सबसे बड़ी आवाज़ ।


फिर भी मैं तो युवकों की तुलना में परम्परा का ही प्रतिनिधि हूँ। यदि भविष्य मुझे अपनी लपेट में लेता भी है तो मेरे लिए वैसे छन्द पर्याप्त होंगे जो परम्परागत छन्दों से किचित् भिन्न हैं तथा जिनमें चिन्तन की प्रक्रिया बाधित नहीं होती जैसे वह गेय छन्दों में रुकती है। किन्तु यह सीमा युवकों के लिए नहीं है। जब मुझे ही यह भासित हो रहा है कि सभी छन्द मेरे अनुकूल नहीं रहे, बल्कि, सब से अनुकूल अब वे छन्द हैं जो गद्य के पास से होकर चलते हैं, तब युवकों की चेतना तो उन्हें खींच कर कहीं भी ले जा सकती है। इसीलिए, मेरी आधी सहानुभूति उन सभी लोगों के साथ है जो छन्दों को अपनी चेतना के प्रतिकूल पाकर उन्हें तोड़ रहे है अथवा अर्ध छन्दों या गद्यखण्डों में अपनी कविताएँ लिख रहे हैं।

छन्दों की महिमा सर्वविदित है। और अभी तो यह सोचा भी नहीं जा सकता कि छन्द किसी भी समय कविता से बिलकुल बहिष्कृत हो जायेंगे। किन्तु, छन्दों के महत्त्व का एक कारण यह भी है कि कविता को अधिकांश जनता अबतक मनोरंजन का साधन मानती रही है। एक तरह की कविता रोमांटिक कहलाती है, वह अलग बात है। परन्तु, सभी कविताओं का अबतक एक रोमांटिक मूल्य भी रहा है और इस मूल्य के कारण भी छन्द आदरणीय रहे हैं। वर्डस्वर्थ ने कहा था कि छन्द आनन्दवृद्धि का साधन है। छन्दों के कारण काव्य चेतना दैनिक जीवन के धरातल से जरा ऊपर उठ जाती है। छन्द विश्व से कवि की रागात्मक दूरी की भी वृद्धि करते हैं। गद्य में जो दिवा-जागरूकता है, छन्द उसे कम करके कविता में अर्ध-जागृति का वातावरण उत्पन्न करते हैं। छन्दों का गुण है कि वास्तविकता का वर्णन करनेवाली कविता पर भी वे अवास्तविकता का किंचित् रङ्ग छिड़क देते हैं।

ये सारी अच्छी बातें हैं, किन्तु, ज्यों-ज्यों मनुष्य रोमांटिक चेतना के रङ्गीन मोह से निकलता जाएगा, त्यों-त्यों अच्छी बातें भी अनावश्यक होती जाएँगी। राजाओं की जड़ाऊ पोशाकें बहुत अच्छी थीं। किन्तु, अब उन पोशाकों को कोई नहीं पहनता। अब तो राजे भी बुश-शर्ट पहनना ही अधिक पसन्द करते हैं। एक समय पन्त जी ने कहा था, "तुक राग का हृदय है, जहाँ उसके प्राणों का स्पन्दन विशेष रूप से सुनायी पड़ता है।" मेरा अनुमान है, राग जैसे-जैसे विचारों से उलझेगा, वैसे-वैसे ही उसके हृदय में तुक के पाँव उखड़ते जायेंगे। तुर्के भावों की अभिव्यक्ति में बाधा डालती हैं, इसके से दो-एक अनुभव प्रत्येक कवि को होंगे। फिर भी, दो-एक बातें ऐसी भी हैं जो छन्दों और तुकों के पक्ष में पड़ती हैं। छन्द पाठकों के आकर्षण को शिथिल होने से बचाते हैं, वे पढ़नेवालों के भीतर इस कौतूहल को बनाये रखते हैं कि देखें, अगली पंक्ति कैसे चलती है और कैसे खत्म होती है। उर्दू की ग़ज़लों में काफ़िये का चमत्कार कभी कभी कविता के सारे चमत्कारों को ढंक लेता है। क़ाफ़ियों से मिलनेवाला आनन्द ही एक ऐसा आनन्द है जिसे हम केवल शैली को देन कह सकते हैं। और, अन्त में, जैसा कि कालरिज़ ने कहा है, छन्द का पूरा प्रभाव कविता के भीतर सुवासित वातावरण का प्रभाव उत्पन्न करता है।

ये दो-एक बातें ऐसी हैं जो छन्दों के पक्ष में पड़ती हैं। परन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि जब भी साहित्य में, सचमुच, कोई साहित्यिक क्रान्ति आती है तब सब से पहले छन्द परिवर्तित होते हैं। भारतेन्दु के समय नये छन्द प्रकट हुए. द्विवेदी-युग ने भी अपने अनुकूल छन्दों को प्रधानता दी और छायावाद ने तो छन्दों का एक नया संसार ही बसा दिया। केवल प्रगतिवाद ही ऐसा आन्दोलन था जिसने छन्दों पर कोई खास ज़ोर नहीं दिया। यह भी एक प्रमाण है कि वह साहित्यिक आन्दोलन नहीं था, इसलिए, साहित्य के शैली- पक्ष की चिन्ता उसे हुई ही नहीं।

कविता के नये माध्यम, यानी नये ढाँचे और नये छन्द कविता की नवीनता के प्रमाण होते हैं। उनसे युग मानस की जड़ता टूटती है उनसे यह आभास मिलता है कि काव्याकाश में नया क्षितिज उदय ले रहा है। जब कविता पुराने छन्दों की भूमि से निकल कर नये छन्दों के भीतर पाँव धरती है, तभी यह अनुभूति जगने लगती है कि कविता वहीं तक सीमित नहीं है जहाँ तक हम उसे समझते आये हैं. और भी नयी भूमियाँ हैं, जहाँ कविता के चरण पड़ सकते हैं। नये छन्दों से नयी भावदशा पकड़ी जाती है। नये छन्दों से काव्य को नयी आयु प्राप्त होती है।

अतएव, छन्दों के चरमराने या उनके टूटने से साहित्य में जो कर्कशता का नाद छा रहा है, वह अपने में चिन्ता का कोई बड़ा कारण नहीं हो सकता। न मैं इसी को बुरा समझता हूँ कि कवियों का सारा ध्यान छोटी-छोटी मूर्त्तियाँ गढ़ने में लगा हुआ है। नयी भाषा, नये छन्द, नयी लय और नव-जीवन से उठ कर आनेवाले नये चित्र, ये अगर कोई बड़ा लक्ष्य सिद्ध न कर सकें, तब भी, इनका साहित्यिक महत्त्व होगा हो, क्योकि ये साहित्य को यों भी, समृद्ध बनाते हैं। और तो और, मैं तारों की भाषा (उदाहरणार्थ, एक शब्द का वाक्य) का भी समर्थन करूंगा यदि उसमें चिट्ठियों से ज़्यादा संकेत हो अथवा कविता के भीतर उस एमर्जेन्सी या आतुरता का प्रमाण हो जिसके कारण चिट्ठी के बदले तार भेजना आवश्यक हो जाता है। किन्तु, अभी मैं ठीक से नहीं जानता कि कविता की तकनीक में ये परिवर्तन क्यों हो रहे हैं। इनकी पूरी सार्थकता तभी मानी जायेगी जब कि आगे चल कर महान् कृतियों द्वारा यह प्रमाणित हो जायेगा कि कविता किसी बड़ी, व्यापक और कठोर मनोदशा की अभिव्यक्ति के लिए उतना हाथ-पाँव पटक रही थी। और यदि आंशिक सार्थकता चाहें, तो वह तो साहित्य के असफल प्रयोगों को भी प्राप्त होती है।


इसी प्रकार प्रयोगवाद में चित्रो पर जो अधिक से अधिक जोर है, उसे भी मैं साहित्य में साहित्यिकता उत्तेजित करने का ही प्रयास मानता हूँ और इस प्रयास को महत्ता के विषय में भी मेरे जानते दो मत नहीं हो सकते। काव्यगत चित्र उस चित्रकाव्य के उदाहरण नहीं होते जिसकी भारतीय साहित्यशास्त्र में निन्दा की गयी है, प्रत्युत्, यह वह कला है जिसके द्वारा काव्य में शब्दों के सयोग से वस्तुओं और विचारों के मूर्तिमान रूप प्रस्तुत किये जाते हैं। चित्र-रचना की सामग्री, अक्सर, अलङ्कारों की सामग्री होती है, किन्तु चित्र अलङ्कार लाये बिना भी रचे जा सकते हैं। यही नहीं, प्रत्युत्, किसी भी विशेष योजना के बिना, केवल विशेषणों अथवा क्रियापदों के आधार पर भी सजीव चित्रों की रचना हो सकती है। परन्तु व्यवहारत चित्र रचना में उपमानों से इतना अधिक काम पड़ता है कि अंग्रेज़ी में चित्र और रूपक, प्रायः, पर्याय बन कर चल रहे हैं।

और चित्र तथा मूर्ति शब्द से दृश्य वस्तु का जो बोध होता है, उससे भी यह नहीं समझना चाहिए कि काव्यगत चित्र केवल नेत्रेन्द्रिय के लिए होते हैं। प्रसङ्गानुसार, वे सभी वस्तुएँ और क्रियाएँ काव्य में मूर्त रूप ले सकती हैं जिनका सम्बन्ध नेत्र से न हो कर जिह्वा, नासिका, श्रुति अथवा स्पर्श इन्द्रिय से है। इन्द्रियों की एक क्रिया तो स्थूल होती है जिसे हम, सचमुच का, देखना, सुनना, सूंघना और स्पर्श करना कह सकते हैं। किन्तु, इन क्रियाओं का एक रूप वह है जो हमारी स्मृति में चलता है। ऐन्द्रिय क्रियाओं के ये स्मृतिवाले रूप ही चित्रविधान के आधार होते हैं।


लता - भवन ते प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ । 

निकसे जनु जुग बिमल विधु जलद-पटल बिलगाइ। 

इस दोहे में जो चित्र है वह नेत्र का विषय है और उसे हम मन की आँखों से देख सकते हैं।

किन्तु,

शाम का झुटपुटा सा होता है, 

दूर पर छै की गजर डूब रही ।

                  .                     

                             - गिरिजाकुमार


इन पंक्तियों में जो चित्र है उसका अनुभव हम श्रवण शक्ति से करते हैं ।


इसी प्रकार,


कच्ची मिट्टी का ठंडापन 


                अथवा


अब ब्राह्म घड़ी का ठंडा-सा आलोक जगा


                                                 - गिरिजाकुमार



में जो चित्र हैं उनकी अनुभूति हमें स्पर्शेन्द्रिय से होती है।


और,


आयी खेलि होरी घरै नवल किसोरी कहूँ 

बोरी गयी रंगते सुगन्धनि झकोरे है ।


पद्माकर की इस पंक्ति में सुगन्ध की लपट का जो चित्र है, उसकी अनुभूति नासिका और स्पर्श, दोनों इन्द्रियाँ करती हैं।

चित्र कविता का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गुण है, प्रत्युत्, कहना चाहिए कि यह • कविता का एकमात्र शाश्वत गुण है जो उस से कभी भी नहीं छूटता। कविता और कुछ चाहे करे या न करे, किन्तु, चित्रों की रचना वह अवश्य करती है और जिस कविता के भीतर बननेवाले चित्र जितने ही स्वच्छ यानी विभिन्न इन्द्रियों से स्पष्ट अनुभूत होने के योग्य होते हैं, वह कविता उतनी ही सफल और सुन्दर होती है । भामह आदि ने अलङ्कारों को जो काव्य की आत्मा कहा था, वह उक्ति इसी प्रसङ्ग में सार्थक प्रतीत होती है। कविताओं में क्रान्तियाँ होती हैं, किन्तु, प्रत्येक क्रान्ति अपने को अनुरूप चित्रों में व्यक्त करती है। कविताओं की प्रवृत्तियाँ बराबर बदलती रहती हैं। किन्तु, चित्र प्रत्येक प्रवृत्ति के साथ रहते हैं। कविताओं की शैली बदलतो है, छन्द बदल ज हैं और कभी-कभी छन्द टूट भी जाते हैं। किन्तु, चित्र कभी भी नहीं रुकते, वे टूटे छन्दों के भीतर भी वाक्यो में मोती के समान जड़े रहते हैं। और तो और, जब कविता के भीतर का सारा द्रव्य बदल जाता है, दर्शन और दृष्टिकोण, सभी कुछ परिवर्तित हो जाते हैं, तब भी चित्र कविता का साथ नहीं छोड़ते। कविता में चित्रों का आना संयोग की बात नहीं है। प्रत्येक सुन्दर कविता चित्रों का अलबम अथवा स्वयं एक चित्र होती है। 

चित्र रेगिस्तान से उड़कर नहीं आते। वे उस कवि के मस्तिष्क से निकलते हैं, जो कल्पना और विचार से लबालब भरा हुआ है तथा जो संक्षिप्त होने के लिए अलङ्कारों में बोलना चाहता है। अलङ्कार शब्द से, वैसे तो अनावश्यक बनाव-सिंगार की भी ध्वनि निकलती है, किन्तु कविता में अलङ्कारों के प्रयोग का वास्तविक उद्देश्य अतिरंजन नहीं, वस्तुओं का अधिक से अधिक सुनिश्चित वर्णन हो होता है। साहित्य में जब भी हम संक्षिप्त और सुनिश्चित होना चाहते हैं, तभी रूपक की भाषा हमारे लिए स्वाभाविक हो उठती है। रूपकों पर सम्पूर्ण अधिकार को अरस्तू ने कवि-प्रतिभा का सबसे बड़ा लक्षण कहा है। और येट्स का विचार था कि परिपक्व ज्ञान बराबर रूपको में व्यक्त होता है। सच्चे अर्थों में मौलिक कवि वह है जिसके उपमान मौलिक होते हैं और श्रेष्ठ कविता को पहचान यह है कि उसमें उगनेवाले चित्र स्वच्छ और सजीव होते हैं ।

किन्तु, चित्रों के प्रसङ्ग में भी एक बात है जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती और वह यह कि चित्र भी कविता के साधन होते हैं, साध्य नहीं। शक्तिशालिनो कविता केवल चित्र दिखलाकर सन्तुष्ट नहीं हो जाती, वह चित्रों के भीतर से कुछ और दिखलाना चाहती है। केवल चित्र केवल आतिशबाजी के खेल हैं। जार्ज रसल (ए० ई०) ने लिखा है कि जब मेरे सामने कोई कविता आती है, मैं अपने-आपसे दो प्रश्न करता हूँ। पहला यह कि यह कविता अन्धी है या पारदर्शी अर्थात् कविता केवल ऊपर-ऊपर रङ्गीन है या रङ्गों के भीतर से कुछ दिखायी भी देता है। और दूसरा यह कि यदि कविता पारदर्शी है तो उसके भीतर कितनी दूर की चीजें दिखायी देती हैं।

चित्र-रचना का एक तरीका सुर्रियलिस्ट लोगों ने भी निकाला है। किन्तु उनके चित्र साधना से अधिक "डूडलिंग" (अन्यमनस्कता में खींचो या लिखी गयी चीज़े) के ही परिणाम प्रतीत होते हैं। भीतर से भावों का जो निर्झर चलता है, सभी कलाकार उसमें चुनाव और उसका नियन्त्रण करते हैं। किन्तु, जो व्यक्ति इस झरने में न तो चुनाव करता है, न उसका नियन्त्रण, वह सुर्रियलिस्ट चित्रकार बन जाता है।

प्रगतिवाद ने अपना सारा ज़ोर साहित्यगत विचारों पर देकर जैसी भूल की थी, कुछ वैसी ही भूल प्रयोगवाद से भी हो सकती है, यदि उसने अपनी सारी शक्ति साहित्य की शैली सँवारने में लगा दी, यद्यपि, यह भूल पहली भूल की अपेक्षा, फिर भी, कम घातक और कम भयानक होगी। शैली साहित्य का सर्वस्व है, किन्तु, यदि उसके

भीतर से कुछ कहा ही न जाए तो शैली का क्या महत्त्व रह जाता है ? नये चित्र, नये ढाँचे, नये छन्द और नयी विच्छित्ति, ये तभी सार्थक हैं यदि उनके भीतर से ऐसे कवि बोलते हों जिनका हृदय नये काल का हृदय है, जिनका कण्ठ नयो मानवता का कण्ठ है और जिनका आवास उस कोलाहल के पास पड़ता है जो नाना कुण्ठाओं से ग्रसित मनुष्य के मन में मचा हुआ है ।

मैं नहीं जानता कि प्रयोगवादी कवि कविता को किस दिशा की ओर ले जाना चाहते हैं, न मैं यही अनुमान लगा सकता हूँ कि भविष्य की कविता की जो कल्पना मुझे दिखायी पड़ती है, वह शीघ्र साकार होगी या उसके रूप धरने में अभी काफी विलम्ब है। वृक्ष मुझे दिखायी नहीं देते। मैंने अपनी सारी आशा वन के विस्तार से लगा रखी है। किन्तु, एक बात है जिस पर मुझे बार-बार सोचने पर भी कभी सन्देह नहीं होता। और वह यह कि भावी कविता केवल शैली के कारण पूजी नहीं जाएगी । उसकी पूजा का कारण यह होगा कि वह मनुष्य के आत्मनिरीक्षण की कविता होगी, वह अपने अस्तित्व के भीतर आप निमग्न होने की कविता होगी, वह मन के भीतर चलनेवाली मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया की कविता होगी। उस कविता में मिठास और रङ्गीनी कम, बौद्धिक चिन्तन की कठोरता अधिक होगी। मेरा अनुमान है कि कविता का •परंपरागत स्वभाव बदलनेवाला है। भविष्य की कविता पाठकों को विश्व से बाहर न ले जाकर उन्हें साथ लिये हुए विश्व की आन्तरिकता में प्रवेश करेगी। वह रिझाने, दुलराने और गुदगुदाने की कविता नहीं होगी। वह अपने पाठकों का मनोरंजन कम, उन्हें सोचने को विवश अधिक करेगी। वह मनुष्यों को उस दिशा की ओर प्रेरित करेगी जो आत्म-मन्थन और आत्मविज्ञान की दिशा है, जहाँ मनुष्य अपने आप को समझने का प्रयास करता है। सम्भव है, वह हमें किसी गम्भीर सत्य की सङ्गति में ले जाकर छोड़ दे; सम्भव है, वह हमें झकझोर कर अलग हो जाए; अथवा यह भी सम्भव है कि, कभी-कभी, वह कवि-मानस की अस्पष्ट क्षणिक छाया बन कर ही रह जाय। किन्तु, हर हालत में वह हममें विचारों की उत्तेजना देगी। भविष्य की कविता गाने और सुनाने की चीज़ न होकर पढ़ने और सोचने-समझने की वस्तु होगी ।

अगली कविता का एक लक्षण यह भी होगा कि वह विलावल, केदारा, ग़ज़ल और दादरा से बहुत दूर हो जायगी। काव्य का सङ्गीत से जो सम्बन्ध अभी चल रहा है, वह गलत सम्बन्ध है। उन्नत देशों में कविता और सङ्गीत, ये दो कलाएँ अब परस्पर बहुत दूर हो गयी हैं। वही दूरी इन दोनों कलाओं के बीच भारत में भी उत्पन्न होनेवाली है।

भाषा में जो छुई-मुई-सी सुकुमारता और कल्पना में जो रोमांटिक कोमलता और वैचित्र्य अब तक कविता में आदर पा रहे थे. अब उनको भी विदाई के दिन पास हैं।

अगली कविता की भाषा और विचार, दोनों कठोर होंगे। भाषा की कठोरता, यानी वह गुण जो लोहे और इस्पात को भी पचा सके, जो कारखानों से उड़कर साहित्य में पहुँचनेवाले चित्रों को देखकर भागे नहीं, प्रत्युत्, उन्हें उसी सहजता से अङ्गीकार कर ले जैसे वह कमलवन से आनेवाले सपनों को अङ्गीकार करती रही है। और विचारों की कठोरता, यानी वह गुण जो विज्ञान से टक्कर लेगा और जिससे उलझने का आनन्द लेने को बड़े-बड़े चिन्तक कविताओं की ओर उसी उत्साह से मुड़ेंगे जिस उत्साह से वे दर्शन और विज्ञान की ओर जाते हैं। भावुकता, अतिरंजन और अल्पवयस्कता के विचार, ये कविता में दिनोंदिन कम होते जायेंगे और जब यह कविता अपने पूरे विकास पर पहुँचेगी, उसकी कल्पना पुरुष-कल्पना और उसके भाव कठोर चिन्तक के भाव होंगे। अगला युग विचारक- कवियों का युग होगा क्योंकि विचारों के कविता का विषय बनने में कोई दोष नहीं है और तर्क भी जब उत्तम कोटि का होता है तब उसके भीतर से आग धधक उठती हैं, जो कविता की आग है; एक प्रकार का प्रकाश बल उठता है, जो कल्पना से खिलनेवाला प्रकाश है। और इस प्रकाश के भीतर से सत्य बौद्धिक धारणा बनकर नहीं, बल्कि विजन या अनुभूति के रूप में ही प्रकट होता है। इलियट दार्शनिक मुद्रा में भी कवि रहते हैं, क्योंकि सत्य की वे शिक्षा नहीं देते, एकबारगी उसके दर्शन ही करा देते हैं। उनके "फोर क्वार्ट" में दार्शनिक सूक्तियाँ और काव्यात्मक चित्र इस प्रकार गुम्फित हैं कि सहसा यह पता नहीं चलता कि कौन दर्शन और कौन काव्य है।

अगले युग को कवि-प्रतिभा सजावट, रङ्गीन और रोचकता में कुशल होने के कारण पूजो नहीं जायेगी, प्रत्युत्, उसके सम्मान का कारण यह होगा कि वह प्रातिभ विस्फोट अथवा आविष्कारवाली प्रतिभा होगी। और उसमें भी जो सबसे प्रतिभाशाली कवि होंगे उनकी पहचान यह होगी कि लोग उनकी कृतियों को छोटी खुराकों में पढ़ेंगे । कविता की अगली राह जुही और चमेली के कुंज से होकर नहीं, प्रत्युत्, समर्थ बुद्धि की कड़ी चट्टान पर से जानेवाली है।


पटना

विजयादशमी } रामधारी सिंह 'दिनकर'

सन् १९५६ ई०



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