युधिष्ठिर का विलाप ( कुरूक्षेत्र से )
आयी हुई मृत्यु से कहा अजेय भीष्म ने कि
'योग नहीं जाने का अभी है, इसे जान कर,
रुकी रहो पास कहीं', और स्वयं लेट गये
बाणों का शयन, बाण का ही उपधान कर।
व्यास कहते हैं, रहे यों ही वे पड़े विमुक्त,
काल के करों से छीन मुष्टि - गत प्राण कर;
और पन्थ जोहती विनीत कहीं आसपास
हाथ जोड़ मृत्यु रही खड़ी शास्ति मान कर ।
श्रृङ्ग चढ़ जीवन के आर-पार हेरते - से
योगलीन लेटे थे पितामह गभीर - से ।
देखा धर्मराज ने, विभा प्रसन्न फैल रही
श्वेत शिरोरुह, शर- ग्रथित शरीर से ।
करते प्रणाम, छूते सिर से पवित्र पद,
उँगली को धोते हुए लोचनों के नीर से,
'हाय पितामह, महाभारत विफल हुआ,'
चीख उठे धर्मराज व्याकुल, अधीर - से ।
'वीर - गति पाकर सुयोधन चला गया है,
छोड़ मेरे सामने अशेष ध्वंस का प्रसार ;
छोड़ मेरे हाथ में शरीर निज प्राणहीन,
व्योम में बजाता जय - दुन्दुभि सा बार- बार;
और यह मृतक शरीर जो बचा है शेष,
चुप - चुप, मानों पूछता है मुझसे पुकार -
'विजय का एक उपहार मैं बचा हूँ, बोलो,
जीत किसकी है और किसकी हुई है हार ?
'हाय, पितामह, हार किसकी हुई है यह ?
ध्वंस - अवशेष पर सिर धुनता है कौन ?
कौन भस्मराशि में विफल सुख ढूंढ़ता है ?
लपटों से मुकुट का पट बुनता है कौन ?
और बैठ मानव की रक्त - सरिता के तीर
नियति के व्यंग्यभरे अर्थ गुनता है कौन ?
कौन देखता है शवदाह बन्धु - बान्धवों का ?
उत्तरा का करुण विलाप सुनता है कौन ?
'जानता कहीं जो परिणाम महाभारत का,
तन- बल छोड़ मैं मनोबल से लड़ता;
तप से, सहिष्णुता से, त्याग से सुयोधन को
जीत, नयी नींव इतिहास की मैं धरता ।
और कहीं वज्र गलता न मेरी आह से जो,
मेरे तप से नहीं सुयोधन सुधरता;
तो भी हाय, यह रक्त - पात नहीं करता मैं,
भाइयों के सङ्ग कहीं भीख माँग मरता।
'किन्तु, हाय, जिस दिन बोया गया युद्ध - बीज,
साथ दिया मेरा नहीं मेरे दिव्य ज्ञान ने ;
उलट दी मति मेरी भीम की गदा ने और
पार्थ के शरासन ने, अपनी कृपाण ने ;
और जब अर्जुन को मोह हुआ रण- बीच,
बुझती शिखा में दिया घृत भगवान ने ;
सबकी सुबुद्धि पितामह, हाय, मारी गयी,
सबको विनष्ट किया एक अभिमान ने।
'कृष्ण कहते हैं, युद्ध अनघ है, किन्तु, मेरे
प्राण जलते हैं पल-पल परिताप से;
लगता मुझे है, क्यों मनुष्य बच पाता नहीं
दहामान इस पुराचीन अभिशाप से !
और महाभारत की बात क्या ? गिराये गये
जहाँ छद्म - छल से वरेण्य वीर आप - से,
अभिमन्यु - वध औ' सुयोधन का वध हाय,
हममें बचा है यहाँ कौन किस पाप से ?
'एक ओर सत्यमयी गीता भगवान की है,
एक ओर जीवन की विरति प्रबुद्ध है;
जानता हूँ, लड़ना पड़ा था हो विवश, किन्तु,
लोहू - सनी जीत मुझे दीखती अशुद्ध है;
ध्वंसजन्य सुख ? याकि, साश्रु दुख शान्तिजन्य ?
ज्ञात नहीं, कौन बात नीति के विरुद्ध है;
जानता नहीं मैं कुरुक्षेत्र में खिला है पुण्य,
या महान् पाप यहाँ फूटा बन युद्ध है।
'सुलभ हुआ है जो किरीट कुरुवंशियों का,
उसमें प्रचण्ड कोई दाहक अनल है;
अभिषेक से क्या पाप मन का धुलेगा कभी ?
पापियों के हित तीर्थ- वारि हलाहल है;
विजय कराल नागिनी- सी डँसती है मुझे,
इससे न जूझने को मेरे पास बल है
ग्रहण करूं मैं कैसे ? बार-बार सोचता हूँ,
राजसुख लोहू - भरी कीच का कमल है।
'बालहीना माता की पुकार कभी आती, और
आता कभी आर्त्तनाद पितृहीन बाल का;
आँख पड़ती है जहाँ हाय, वहीं देखता हूँ
सेन्दुर पुँछा हुआ सुहागिनी के भाल का ;
बाहर से भाग कक्ष में जो छिपता हूँ कभी
तो भी सुनता हूँ अट्टहास क्रूर काल का ;
और सोते - जागते में चौंक उठता हूँ, मानों,
शोणित पुकारता हो अर्जुन के लाल का।
'जिस दिन समर की अग्नि बुझ शान्त हुई,
एक आग तब से ही जलती है मन में;
हाय, पितामह, किसी भाँति नहीं देखता हूँ
मुँह दिखलाने योग्य निज को भुवन में;
ऐसा लगता है, लोग देखते घृणा से मुझे,
धिक् सुनता हूँ अपने पै कण-कण में,
मानव को देख आँखें आप झुक जातीं, मन
चाहता अकेला कहीं भाग जाऊँ वन में ।
'करूँ आत्मघात तो कलङ्क और घोर होगा,
नगर को छोड़ अतएव, वन जाऊँगा;
पशु - खग भी न देख पायें जहाँ, छिप किसी
कन्दरा में बैठ, अश्रु खुलके बहाऊँगा ;
जानता हूँ, पाप न धुलेगा वनवास से भी,
छिपा तो रहूँगा, दु:ख कुछ तो भुलाऊँगा ;
व्यंग्य से बिधेगा वहाँ जर्जर हृदय तो नहीं,
वन में कहीं तो धर्मराज न कहाऊँगा ।'
- रामधारी सिंह दिनकर
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