विकास (कुरूक्षेत्र से )


द्वापर की कथा बड़ी दारुण, 
लेकिन, कलि ने क्या दान दिया ? 
नर के वध की प्रक्रिया बढी,
कुछ और उसे आसान किया। 
पर, हाँ, जो युद्ध स्वर्गमुख था,
वह आज निन्द्य - सा लगता है। 
बस, इसी मन्दता से विकास का
भाव मनुज में जगता है।

धीमी कितनी गति है ? विकास
कितना अदृश्य हो चलता है ? 
इस महावृक्ष में एक पत्र
सदियों के बाद निकलता है। 
थे जहाँ सहस्रों वर्ष पूर्व,
लगता है वहीं खड़े हैं हम,
है वृथा गर्व, उन गुफावासियों से 
कुछ बहुत बड़े हैं हम।

अनगढ़ पत्थर से लड़ो, लड़ो
किटकिटा नखों से, दाँतों से,
या लड़ो ऋक्ष के रोमगुच्छ - पूरित
वज्रीकृत हाथों से, 
या चढ़ विमान पर नर्म मुट्ठियों से 
गोलों की वृष्टि करो,
आ जाय लक्ष्य में जो कोई,
निष्ठुर हो सबके प्राण हरो ।

ये तो साधन के भेद, किन्तु, 
भावों में तत्त्व नया क्या है ? 
क्या खुली प्रेम की आँख अधिक ?
भीतर कुछ बढ़ी दया क्या है ?
झर गयी पूँछ, रोमान्त झरे, 
पशुता का झरना बाकी है;
बाहर- बाहर तन सँवर चुका,
मन अभी सँवरना बाकी है।

देवत्व अल्प, पशुता अथोर, 
तमतोम प्रचुर, परिमित आभा, 
द्वापर के मन पर भी प्रसरित
थी यही आज वाली द्वाभा
बस, इसी तरह, तब भी ऊपर
उठने को नर अकुलाता था,
पर, पद - पद पर वासना - जाल में
उलझ - उलझ रह जाता था। 

औ' जिस प्रकार हम आज बेल -
बूटों के बीच खचित करके, 
देते हैं रण को रम्य रूप
विप्लवी उमङ्गों में भरके,
कहते, अनीतियों के विरुद्ध
जो युद्ध जगत् में होता है,
वह नहीं गरल का कोष, अमृत का
बड़ा सलोना सोता है ।

बस, इसी तरह, कहता होगा 
द्वाभा- शासित द्वापर का नर,
निष्ठुरताएँ हों भले, किन्तु, 
है महामोक्ष का द्वार समर । 
सत्य ही, समुन्नति के पथ पर 
चल रहा चतुर मानव प्रबुद्ध, 
कहता है क्रान्ति उसे जिसको
पहले कहता था धर्मयुद्ध ।

                                            - रामधारी सिंह दिनकर

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