चाँद और कवि ( नील - कुसुम से )
रात यों कहने लगा मुझ से गगन का चाँद
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है !
उलझने अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता न सोता है।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते - मरते ;
और लाखों बार तुझ - से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।
आदमी का स्वप्न ? है वह बुलबुला जल का,
आज बनता और कल फिर फूट जाता है;
किन्तु, तो भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो !
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।
मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली,
चाँद ! फिर से देख, मुझको जानता है तू ?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं ? है यही पानी ?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू ? ?
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ;
और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की,
इस तरह, दीवार फ़ौलादी उठाती हूँ ।
मनु नहीं, मनु - पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है;
बाण ही होते विचारों नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट् को जाकर ख़बर कर दे,
"रोज़ ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं ये ;
रोकिये, जैसे बने, इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं ये ।"
- रामधारी सिंह दिनकर
१९४६ ई०
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