आकाश


आकाश दिनांत को देखने में
लगता कितना प्रिय प्रीतिपात्र
अपने दृगेंद्रिय से देख इन्हें हम
हो जाते अत्यंत हर्षित सुखप्रद ।

उर्ध्वलोक का नजारा देखकर
विलोचन उसे देखते रह जाता
ऐसा करता स्वांत,मानस हमारा
व्योम का नजारा देखते ही रहे ।

तरापथ को देखते रहने में
करता ना स्वांत फेरने का
नभ का नजारा हमेशा यहां
रूपांतरण होता रहता हरपल ।

इस खुली गगन मंडल में
पक्षी ऊर्ध्वायन आमोद से
व्योम का नजारा भव में
लगता कितना अनूठा सा ।

रजनी में देखें जब शून्य को
नक्षत्र कितने है टिमटिमाते
सबसे प्रचुर प्रस्फुरण तारा
वही असल में हमें है बनना ।

कवि :- अमरेश कुमार वर्मा
जवाहर नवोदय विद्यालय बेगूसराय, बिहार

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