दर्पण ( नील - कुसुम से )
तो इतनी कृपा किये जाओ।
अपनी फूलों की डाली में
दर्पण यह एक लिये जाओ।
आरती, फूल, फल से प्रसन्न
जैसे हों, पहले कर लेना;
जब हाल धरित्री का पूछें,
सम्मुख दर्पण यह धर देना ।
बिम्बित है इसमें पुरुष पुरातन
के मानस का घोर भँवर;
है नाच रही पृथ्वी इसमें,
है नाच रहा इसमें अम्बर ।
यह स्वयं दिखायेगा उनको
छाया मिट्टी की चाहों की,
अम्बर की घोर विकलता की,
धरती के आकुल दाहों की।
ढहती मीनारों की छाया,
गिरती दीवारों की छाया,
बेमौत हवा के झोंके में
मरती झङ्कारों की छाया ।
छाया छाया - ब्रह्माणी की
जो गीतों का शव ढोती है,
भुज में वीणा की लाश लिये
आतप से बचकर सोती है
झाँकी उस भीत पवन की जो
तूफ़ानों से है डरा हुआ;
उस जीर्ण खमण्डल की जिसमें
आतङ्क रोर है भरा हुआ।
हिलती वसुन्धरा की झाँकी,
बुझती परम्परा की झाँकी ;
अपने में सिमटी हुई, पलित
विद्या अनुर्वरा की झाँकी ।
झाँकी उस नयी परिधि की जो
है दीख रही कुछ थोड़ी - सी ;
क्षितिजों के पास पड़ी पतली,
चमचम सोने की डोरी- सी ।
छिलके उठते जा रहे, नया
अंकुर मुख दिखलाने को है;
यह जीर्ण तनोवा सिमट रहा,
आकाश नया आने को है।
- रामधारी सिंह दिनकर
१९४६ ई०
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