सुदामा चरित्र
सीस पगा न झगा तन में, प्रभु जाने को आहि, बसै केहि ग्रामा धोती फटी-सी लटी दुपटी, अरु पाँय उपानह की नहि सामा
द्वार खड़ो द्विज दुर्बल देखि, रह्यौ चकि सो बसुधा अभिरामा
पूछत दीनदयाल को धामु, बतावत आपनो नाम सुदामा ।
बोल्यो द्वारपालक, सुदामा नाम पांडे सुनि
छाँड़े राजकाज ऐसे जी की गति जाने की।
द्वारका के नाथ हाथ जोरि घाय गहे पाँय,
भेंटे भरि अंक लपटाय दुख साने को ।।
नैने दोऊ जल भरि पूछत कुसल हरि,
विप्र बोल्यो विपदा में मोहि पहिचाने को।
जैसी तुम करी तैसी करै को दया के सिन्धु,
ऐसी प्रीति दीनबन्धु दीनन सों भाने को ॥
ऐसे बिहाल बिवाइन सो पग, कांटक जाल लगे पुनि जोये,
हाय! महादुख पायो सखा ! तुम आये इतै न, कितै दिन खोये
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिकै करुनानिधि रोये,
पानि परात को हाथ छुयो नहिं नैनन के जल सों पग धोये
आगे चना गुरु मात दिये, ते लये तुम चाबि, हमें नहिं दीने,
स्याम कहयो मुसकाय सुदामा सौं, चोरी की बानि में हौं जु प्रबीने गाँठरि काँख में चापि रहे तुम, खोलत नाहिं सुधा रस भीने, पाछिलि बानि अजौं न तजौ तुम, तैसेई भाभी के तन्दुल कीने।
बैसोई राज- समाज बनै, गज-बाजि घने, मन संभ्रम छायौ ।
कंधों परयों कहूँ मारग भूलि कें, के अब फेरि मैं द्वारिका आयी।। मौन बिलोकिबे को मन लोचत, सोचत ही सब गाँव मँझायौ।
पूछत पाँड़े फिरें सबसों पर, झोपरि को कहुँ खोजु न पायी।
कै वह टूटी सी छानी हुती, कहँ कंचन के सब घाम सुहावत।
के पग में पनही न हुतीं, कहँ लै गजराजहु ठाढ़े महावत ॥
भूमि कठोर पै रात कटै, कहँ कोमल सेज पै नींद न आवत।
के जुरतो नहिं कोदो सवाँ, प्रभु के परताप तें दाख न भावत ॥
धन्य धन्य जदुवंश - मनि, दीनन पै अनुकूल ।
धन्य सुदामा सहित तिय, कहि बरसहिं सुर फूल ॥
कवि : नरोत्तमदास
टिप्पणियाँ