सम्बल (रसवन्ती से)
सोच रहा, कुछ गा न रहा मैं।
(१)
निज सागर को थाह रहा हूँ,
खोज गीत में राह रहा हूँ,
पर, यह तो सब कुछ अपने हित, औरों को समझा न रहा मैं।
(२)
वातायन शत खोल हृदय के,
कुछ निर्वाक् खड़ा विस्मय से,
उठा द्वार - पट चकित झाँक अपनेपन को पहचान रहा मैं।
(३)
ग्रन्थि हृदय की खोल रहा हूँ,
उन्मन - सा कुछ बोल रहा हूँ,
मन का अलस खेल यह गुनगुन, सचमुच, गीत बना न रहा मैं।
(४)
देखी दृश्य - जगत् की झाँकी,
अब आगे कितना है बाकी ?
गहन शून्य में मग्न, अचेतन, कर अगीत का ध्यान रहा मैं।
(५)
चरण - चरण साधन का श्रम है,
गीत पथिक की शान्ति परम है,
ये मेरे सम्बल जीवन के, जग का मन बहला न रहा है।
(६)
एक निरीह पथिक निज मग का,
मैं न सुयश - भिक्षुक इस जग का,
अपनी ही जागृति का स्वर यह, बन्धु और कुछ गा न रहा मैं।
सोच रहा, समझा न रहा मैं।
१९३६ ई०
रामधारी सिंह दिनकर
टिप्पणियाँ