आशा का दीपक (सीमाधेनी से)
वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है;
थक कर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।
(१)
चिनगारी बन गयी लहू की बूँद गिरी जो पग से ;
चमक रहे, पीछे मुड़ देखो, चरण - चिह्न जगमग - से।
शुरू हुई आराध्य - भूमि यह, क्लान्ति नहीं रे राही ;
और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग- से ?
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई ! मंज़िल दूर नहीं है ।
(२)
अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का ।
एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है ;
थक कर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है ।
(३)
दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य - प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल - अक्षरों में इतिहास तुम्हारा ।
मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलायेगी ही,
अम्बर पर घन बन छायेगा ही उच्छ्वास तुम्हारा ।
और अधिक ले जाँच, देवता इतना क्रूर नहीं है ;
थक कर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।
१९४३ ई०
रामधारी सिंह दिनकर
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