कुँअर बेचैन की रचना

घिरा रहता  हूँ मैं  भी   आजकल   अनगिन विचारों  में
कि  जैसे इक  अकेला  आसमाँ    लाखों   सितारों   में

पता क्या था  कि अपना  कोई इक  पागल पड़ोसी  ही
बिछा    जाएगा   बारूद    और   अंगारे   बहारों     में

हम अब लफ़्ज़ों  से  बाहर हैं, हमें मत   ढूंढिये  साहब
हमारी बात  होती  है,    खमोशी   से,     इशारों      में

चमन  में  तितलियाँ हों  या  कि भँवरे,  रहना पड़ता है
कभी  फूलों,  कभी  तीखे   नुकीले  तेज़    खारों     में

मुहब्बत की दुल्हन डोली में  बैठी  ही थी सज-धज कर
कि फिर होने    लगी साज़िश  उधर  बैठे  कहारों     में

कुछ  ऐसे    खेल  भी  हैं   बीच   में   ही  छूट  जाते  हैं
मैं   ऐसा  ही   खिलाड़ी   हूँ,  न   जीतों में,   न हारों में

नदी  तो    है  ममुन्दर   की,  उधर   ही  जा रही  है वो
है  फिर   भी  ज़ंग ज़ारी   क्यों  नदी  के दो किनारों में

उजालों में   छुपाने  का हुनर,    क्या   बात   करते हो
'कुँअर'  शामिल    न कर  लेना इन्हें तुम   राज़दारों में

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