आग की भीख (सामधेनी से )
( १ )
धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँ - सा।
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है,
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है?
दाता, पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे;
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अङ्गार माँगता हूँ।
चढ़ती जवानियों का श्रृङ्गार माँगता हूँ।
( २ )
बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँझधार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
तम - वेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ।
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ।
( ३ )
आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बल - पुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है;
अग्निस्फुलिङ्ग रज का, बुझ, ढेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अन्धेर हो रहा है!
निर्वाक है हिमालय, गङ्गा डरी हुई है,
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।
पंचास्य - नाद भीषण, विकराल माँगता हूँ।
जड़ता - विनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ।
( ४ )
मन की बँधी उमङ्गे असहाय जल रही है,
अरमान - आरज़ू की लाशें निकल रही हैं।
भीगी - खुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं,
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं,
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ।
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ।
( ५ )
आँसू - भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,
मेरे शमशान में आ श्रृंङ्गी जरा बजा दे।
फिर एक तीर सीनों के आर - पार कर दे,
हिमशीत प्राण में फिर अङ्गार स्वच्छ भर दे।
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ।
बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ।
( ६ )
ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे।
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे,
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।
हम दे चुके लहु हैं, तू देवता विभा दे,
अपने अनल - विशिख से आकाश जगमगा दे।
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ।
तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ।
१९४३ ई०
- रामधारी सिंह दिनकर
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