प्रतीक्षा (रसवन्ती से)

अयि सङ्गिनी सुनसान की !

              (१)

मन में मिलन की आस है, 
दृग में दरस की प्यास है,
पर, ढूँढ़ता फिरता जिसे 
उसका पता मिलता नहीं,
झूठे बनी धरती बड़ी,
झूठे बृहत् आकाश है;
मिलती नहीं जग में कहीं 
प्रतिमा हृदय के गान की।
अयि सङ्गिनी सुनसान की !

        (२)

तुम जानती सब बात हो,
दिन हो कि आधी रात हो, 
मैं जागता रहता कि कब
मंजीर की आहट मिले,
मेरे कमल- वन में उदय
किस काल पुण्य - प्रभात हो
किस लग्न में हो जाय कब 
जानें कृपा भगवान की।
अयि सङ्गिनी सुनसान की !

            (३)

मुख में हँसी, मन म्लान है,
उजड़े घरों में गान है,
जग ने सिखा रक्खा, गरल
पीकर सुधा - वर्षण करो,
मन में पचा ले आह जो
सब से वही बलवान है।
उर में पुरातन पीर, मुख 
पर द्युति नयी मुसकान की।
अयि सङ्गिनी सुनसान की !

१९३९ ई०
रामधारी सिंह दिनकर

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