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चिर – चिर होते दिवस

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पूछा मै किसी से भव कहाँ तेरा ? न जाने क्या भार लिए , कबसे ? पीड़ा भी घूँट – घूँट के पी रहे थे मै विस्मित – सा , क्या हुआ इसे ? वहीं उन्मादो – सा मशक्कत कर को इसरार लिए साश्रु का सबल नहीं विभीत सीकड़ में सहर के प्रतीर घनघोर शोणित के धरणी के भार यह कमान खल के प्रचण्ड पर सर नहीं क्यों लूटता लहू भी मुफ़लिस के ? चिर – चिर होते दिवस के शिथिल ज़र पङ्ख के भृत्य लगे दोजख के वज्रवधिर से पूछो क्यों निहत निशा ? ध्वनित भी नेति प्रहर क्या परिहत ? भोर – विभोर भी तिमिर मे कबके मलिन यह मिति भी क्या नहीं देती चिङ्गार ? बाट जोह जोड़ रहा इन्तकाल देह के साँस भी मिलती यहाँ घूँटन के गरल जईफ दरकार तरुवर अन्य करती वीरान विप्लव बाँछती लहर ऊर्ध्वङ्ग मातम

स्पन्दन उन्मद के

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मेरा क्या ! इस शून्य भव जल के आया बहुरि पुनः दीपक द्युति के चल… आज इस , कल उस समर के कुन्तल कहाँ छिपा मकरन्द हयात केतन के ? प्रतिबिम्ब बिखेरती विभावरी स्वच्छन्द में अरुण भी बढ़ चला पृषदश्व के पानी लौटता फिर दिव से बनके तरङ्गित दामिनी घनीभूत घन से बून्द- बून्द नीहार चाह कहाँ होती विलीन , ओझिल भी कहाँ ? यह चीर मही वारि तुङ्ग दीर्घ के भुजङ्ग साध्वस भृकुटी मे छिपा अक़ीदा के नहीं असित भी मौना कबसे कौन जाने , कैसे ? संसृति के दरकार थी स्पन्दन उन्मद के टूट के स्मित कलित झङ्कृत पुलक नींव बिछाती कलेवर घेर रहा परभृत स्वर में अघात धरा को प्रतिध्वनित कर दो धार को अकिञ्चन आनन को न देख , शुचि उर को बढ़ चला अभ्र पन्थ – पन्थ को बून्द – बून्द उस शिखर तुङ्ग के उदान्त क्षितिज नभ के कण्टकाकीर्ण का इस्तक़बाल मुझे यह कुदरत इजाद

मेघदूत

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चलूँ मैं कहाँ पतवार भी नहीं परवाह नहीं पन्थ को अवज्ञा ही भुजङ्ग राही को राह नहीं दिखाता कोई पलको में पड़ा आँशू भर – भरके विस्तीर्ण अथ लौट चला शून्य में शून्य में क्यों नहीं दिखती दिनेश ? मुरझाईं फूल से जाकर पूछो क्या मधुकर आती तेरी भव में ? यह अहि आती नहीं मधु विभावरी देवारी भास न लौटती क्षितिज से निर्विकार स्तुती निवृत्त स्वर में ले राग चल यौवन अलङ्कृत मिट्टी भी धोता लौकिक लिप्त धरा फिर क्यों लुप्त अमौघ धार मलिन ? यह लौह चिङ्गार फौलादी के नहीं विरत शान्ध्य नहीं पानी के प्राच्य नही कबसे मैं इन्तकाल नजीर स्मरण की छाया नहीं क्षणिक हीन तिनका क्या एक – एक चिरता नभ ? यह एका करती मेघदूत घनीभूत क्रन्दन क्यों करती अम्बूद अभ्र में ? आती क्या पिक मयूर होती उन्माद टूट पड़ा दीपक खण्डिन ज्वार में यह हलाचल घूँट क्या विस्तृत प्रथम के

दिवस क्या लौट गई ?

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देखा जब समय की पङ्क्ति को चल चल चलाचल जैसे… ऊपर – ऊपर , ऊपर होते बढ़ते कदम सब बँधे है बिछाता इसमें तरणि क्या वों बटोरती राह ? यह गो की देखो सार… साँझ कब का आता , कबसे तम कब छाती , कब होती प्रभा समाँ क्या नहीं मिलता किसी को ? अश्म का पहरा देता कौन हैं ? अविरत क्या निशा रहती नभ में ? फिर असित में ही कुञ्चित क्यों है ? केतन विजय के ले जाता कौन ? दिवस क्या लौट गई कुतूहल सर से ? किञ्चित छू अमरता के कहाँ नव ! अचल परख रख ले तू कल विशिख कौन्धती क्षिति मर्त्य के वन कस्तूरी मृग कहाँ खोजती स्वयं में ? समीर उर में ही क्यों कनक द्युति छिपा ? यह प्रसून नहीं ‌सृष्टा ज्योति के

नव्य रङ्ग

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कैसे सुनाऊँ मैं अपनी तफ़सीर ? एकान्त जिन्दनी मेरी न कोई तन्हां विषाद भरी पीड़ा दर्द कराह रही सहचर भी कहाँ मंशा नहीं मुझसे दर – दर भटक रहा वों दलहीज डगमगा – डगमगा के चलती है राह कोई दुत्कारता कोई पत्थर मारता न जाने कोई , क्यों घूँटन मेरी काया ? अविकल निर्जन उन्मादों में था भरा अपलक देखता तस्वीर- सी अम्बर वसन भी फटेहाल जिसका हर कदम प्रहार काँटे में पग पर लहूलुहान नृशंस भरा अशनि पात डाल दो या कहर त्रिशूल क्षत – विक्षत कर दो जीर्ण रूद्ध अधीर रूद्र उग्र प्रचण्ड में नृत्य करें नग पे निर्मल उज्ज्वलित नव्य रङ्ग भर दे ईश्वर निर्बन्ध स्वच्छन्द उद्दाम लौटा दो कलित सलिल राग को काह निहारी ओहू जागहु दीना समर जतन पहिं हर्षित रनधीर मानहुँ पै दिए दमक गुलशन

क्यों मै अपरिचित ?

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सागर चीर- चीर के नभ नतमस्तक घेर – घेर रहा स्वप्निल दरवाजा के बुलन्दी फौलादी बढ़ चला शिखर अमरता के जो तपता आया तन – तन जिसके प्रचण्ड बढ़ चला धूल भी वों अभी धूमिल कलित है तल आया त्वरित कल से अन्समञ्जस हूँ क्यों मै अपरिचित ? लौट आऊँ ओट के दुल्हन नभ से तरुवर छाँव के क्या एक तिनका सहारा ? क्या उँड़ेल दूँ आहुती भी दूँ किसका ? तड़पन में कराह रही कौन जाने मेरा राह ? टूट के बिखरा कब वसन्त, कब पतझर भला ? पङ्ख पङ्क्ति को तो हेर कौन रहा ? सब तन्मय मोह – माया के जञ्जाल में आज यहाँ अट्यालिका कल वों बाजार हो चले भव रुग्णनता के हाहाकार… यह व्याथाएँ परिपूर्ण नहीं है अभी बाकी पूँछ लो उसे जो बाँधती कफन पेट को लूट – लूट साम्राज्य का क्या नेस्तानाबूद ? मत करो और नग्न जिसे लिबास नहीं

प्रतिबिम्ब

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आईन में देखा जब तस्वीर चाहा यथार्थता को प्रतिपल छिपा लूँ किन्तु छिप न सका टेढ़ी – मेढ़ी लकीर भी दिख गया तकदीर के कोहरिल कालिख पतझर के झुर्रियाँ उग आएँ काले – काले गर्वीली निगाहों को देख मदहोश बन बैठा उन्मादों के उलझनें भी आयी चुभ पड़ी तत्क्षण न जाने क्या कुढ़न कलङ्कित ? तिमिर में भी क्या कभी पुष्प खिला ? अश्रु भी चक्षु में नहीं कब से धुएँ अंधेरी के जरा सी उँड़ेल चिन्मय भी प्रचण्ड पथ – पथ के अंतर देखूँ तो स्पर्धा से जलता हूँ ऊपर देखूँ तो या भीतर के भव तरङ्गित कर छायी उषा में खग ध्रुवों पर अटल चिरता प्रतिबिम्ब उत्तमता ऐब देख पिराती परिवेष्टित मँडराती भवितव्यता भार पर हूँ अशक्त बेला कहाँ वसन्त के झेलूँ भी कैसे ? यह उजियाला लौट चला प्रतिची से रश्मि की बाट क्यों देखूँ तब से ? गूढ़ जीवन अमरता छू लूँ कहाँ से ? तृषित धरा गगन गरल नील भी नीरस नीले नभ में भोर तरणि कहाँ ओझिल ? टूटता कलित तारों से बिछोह सन्ताप क्रन्दन रस बिखर गया घनघोर में अपरिचित झिलमिल विभावरी तट के

पूछो उसकी चाह

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गोधूलि लुढ़कती जैसे… तस्वीर के पीछे छाया करती आँखें जुगनू के प्यारे लौट चली विलिन में ऊपर से ताकता शशि भुजङ्ग जुन्हाई करूँ या तिमिर में हम श्याम गगन – सी हो कालिख राख कहाँ धूल – सी ज्योति विशाल क्लेश – सी मानव , पूछो उसकी चाह बन बैठा अश्रु से धोता दिव धार बन रचाती जलद मीन को क्या भला कान्ति टर – टर तृषित ? अकिञ्चन पङ्क्त चहुँओर क्यों विस्तीर्ण ? दुर्लंध्य असीम क्या धुँधुआते क्यों ? प्रतिबिम्ब भी नहीं तीक्ष्ण त्याज्य को सुषुप्त है यह या जाग्रत नहीं कबसे ? चिन्मय चिर नहीं चेतन कहाँ से ? कौन दे इसे शक्ति विरक्त झिलमिल ? यह देह नहीं , बिकने का सार ! मशक्कत मेरी भूख से तड़पन क्यों ? यह तस्वीर के मजहब पूछो जरा… गोरा – काला नहीं , क्या जाति तेरा ? उँच – नीच अपृश्य नहीं , मुफलिस हूँ मै चिर नहीं मसान में भव से निष्प्रभ

प्रथम जागृत

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काली छायी टूट पड़ी नभमण्डल काया में ललकार नही, जयकार नहीं वों ऊर्ध्वङ्ग तस्वीर चन्द्रहास को न पूँछ उसमें भी शङ्खनाद नहीं चेतना की लहर किसका पङ्क्ति की आवाज पिञ्जरबद्ध विहग आँगन के शप्त शय्या प्रतीर कल सहर भी लौट चला विरक्त तिमिर सर में तरुवर छाँह कराह के अशक्त निहत निर्वाद निवृति ईप्सा अकिञ्चन भी नहीं आयत्ति गात क्रान्ति व्यूह की प्रथम जागृत उबाल मिट्टी तन में यह शहादत मंगल की बगावत बारूद चिङ्गार रणभेरी यह रण थी दीन वनिता उत्पीड़न के भव कमान सर से चूक पर रक्तरञ्जित कुञ्चित धरा आमद यती प्रस्फुटित प्रभा पुष्प पुञ्ज कलित रण के उपेन्द्र धार प्रवाह हृदय चित्त में विलीन मयूख स्वप्निल स्वच्छन्द स्पन्दन से पन्थ कबसे नव्य अरुण के इतिवृत्त पन्नग – सी त्याग शिशिर अम्बुद में मीन वसन्त चिर विछोह तरङ्गित उर में स्वत्व वतन व्योम असीम यह उपवन अभेद नीहार अजेय विस्तीर्ण भव केतन ऊर्ध्वङ्ग बहुरि द्विज उद्भिज हूँ चिरायँध से स्वः सृष्टा गुर के आर्द्र चितवन अमन के स्वच्छन्द विहग पङ्ख उड़ान के चला

चक्रव्यूह

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कागज पन्नों की क्या कसूर इतिवृत्त का भी सार किसका ? निरीह स्वर के कलङ्कित राग न जाने व्याथाएँ की क्या दस्तूर ? क्या प्रारब्ध है चातक जाने ? मन चला गर्जन घनघोर झुरवन दीवानें भी सङ्गिनी चातक के ऊँघते सौगन्ध प्रमुदित विह्वल ढ़लकती ऊषा क्रन्दन व्याधि उन्माद बरखा कब के लौट चलें नभ से ! ऊँघते क्रान्ति निरुद्वेग ओट अरुण कड़कती निगाह तजनित पाश मातहत भौन में भस्मीभूत काया अविरत अङ्गीकार मुलम्मा ओछा रञ्जीदा भव अवहेला शब खिजाँ दरख्तो तड़ित पतवार पनघट के इन्द्रधनुषीय – सी चिरप्यास घनेरी में उत्स्वेदन ईजाद घनीभूत किसमे ? आहत औरन के तनी जाने कौन ? कजरारे दिग्मण्डल प्राची भी ओझल खण्डहर- सी शोहरत अर्सा के क्या कदर क्यों कोहारिल से ? निष्ठुर दीपक भी नूर मञ्ज़िल नहीं यह पौन धरा के भार भी क्यों ? प्रलय नियरे किन्तु अर्जुन नहीं कृष्ण शङ्खनाद सार कौन समझें ? चक्रव्यूह समर के, क्यों अभिमन्यु ? यह प्रतिद्वदी प्रतिक्षण का क्या निस्तेज ?

तिरङ्गा

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सूर्योदय का इन्तजार मुझे देश का तिरङ्गा फहराएंगे राष्ट्रगान सर्वशक्ति सम्पन्न देश की धरोहरों की शान याद दिलाती वों कुर्बानी तीन रङ्गों का पथ तिरङ्गा समृद्धि शिखर तक जाएँ हम अशोक चक्र सब धर्म हमारा चौबीस तीलियाँ जीवन हमारा हिन्दुस्तान का गुणगान करें हम एकता का पैगाम पहुंचाएँ जहाँ जन गण मन का धार बने हम हिन्दू – मुस्लिम – सिख – ईसाई शान्ति एकता साहस बलिदानी धरती माँ की आँचल की काया भगत सिंह गांधी चंद्रशेखर आजाद आजादी के वीर सिपाही बने हम ध्रुव प्रह्लाद सीता सावित्री है हम लक्ष्मीबाई महादेवी मीरा की नाद आदर्श जीवन का ज्ञान कराएँ हम

ऊर्ध्वङ्ग तिरङ्गा

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प्रातः कालीन का विश्व जगा देखो- देखो कितने है उत्साह तिरङ्गा का शान ऊर्ध्वङ्ग जरा बच्चें भी कर रहें इनके नमन आन – बान – शान की दस्तूर अपना अपना अम्बर सिन्धु धरा जहाँ जीवन प्रभा चाँदनी हरियाली बनें शपथ पथ समर्पण सर्वस्व रहें सदा इतिहासों की यहीं धरोहर अपना कई वीरों का आहुति रक्त धार चला सरहद कूर्बानी के समर रङ्ग काया हर कदम साँसों की लाश भला दुल्हन दामन का श्रृङ्गार रचा किन्तु वों भी सिन्दूर बूझ गयी राखी बन्धन का आसरा कहाँ ? माँ का आँचल भी सिन्धु में बह चला परिन्दें भी अपना आँचल छोड़ चलें लूट गये भारत की वों भी तस्वीरें अखण्ड भारत का कसम टूटा जब धूल की तरह हम भी बिखेर गए जय हिन्द क्रान्ति दिवाने बढ़ चलें हम अज़मत चमन छत्रछाया ध्वज धरोहर आजादी स्वच्छन्द अमन, साहसी बनें गूञ्ज रहा पुनीत, सत्य, सम्पन्न का सार

मैं हूँ आर्यावर्त

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हम नभ के है रश्मि प्रभा चल उड़ता गर्दिशो मे पङ्क्ति प्रतीर के अचल केतन ले चलूँ मैं मातृ-भूमि के वसन्त अरुण मृगाङ्क जहाँ निर्मल करती नयन निर्वाण आलिङ्गन वतन के हो जहाँ तन शङ्खनाद मेरी महासमर के हुँकार के हो भव अर्जुन – कर्ण के प्रतीर जहाँ कृष्ण के जहाँ पन्थ अभिमन्यु हूँ चक्रव्यूह के शौर्य ही मेरी दस्तूर गङ्गा – सिन्धु धार वहाँ अश्रु मैं परिपूर्ण नगपति हूँ आर्यावर्त के दृग धोएँ पद्चिन्ह खिला कुसुम कश्मीर के शिखर चला सौगन्ध स्वछन्द तपोवन तीर का लहुरङ्ग के मलयज उन्माद बटोरती तस्दीक के गुमनामी पतझर मधुमय कलित मन मे क्या करूँ मै प्रचण्ड ? शून्य क्षितिज तड़ित न जाने हेर कौन रहा ? तरङ्गिनी तरी सर चला जलप्लावन तरङ्ग उद्भाषित प्रतिपल का जगा कस्तूरी उरग के त्वरित प्रच्छन्न वनिता वदन रुचिर उर में यह द्युति त्रिदिव के इला गिरि समीर सर नीले – नीले दिव नयन इन्द्रधनुषीय – सी मयूर  

बरखा आई घूम - घूम के

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 बरखा आई बून्द - बून्द के करते मृदङ्ग बढ़ - बढ़ आँगन के चढ़ते - उतरते बहिरङ्ग सङ्गिनी चली बयार की लीन्ही सतरङ्ग जल - थल मिलन मिली छूअन हर्षित अनुषङ्ग ओढ़ घूँघट के दामिनी स्वर में झूम - झूम  आती क्षितिज से घूमड़- घूमड़ घूम - घूम  घोर- घनघोर पुलकित आशुग ठूम - ठुमके  स्पन्दन क्रन्दन में सङ्गीत रश्मि नूपुर - सी रुनझून निशा बिछाती विभोर विरहनी सावन  गुलशने निवृत्ति निझरि - सी स्वर आप्लावन  पिक मीन सिन्धू वात तड़ित सङ्ग करावन  हरीतिमा नभचर जीवन सृजन कितने मनभावन ! कर जोर विनती तुङ्ग धरा करती आलिङ्गन इन्द्रधनुषीय छटाएँ छलकाएँ तरणि आँगन कृष्ण राधा सखियाँ सङ्ग करती प्रेमालिङ्गन हो धरा प्रतिपल प्रेमिल धोएँ ध्वनि लिङ्गन   हूँ - हूँ स्वर कलित भव में चिन्मय हुँकार तड़ित ऊर्मि वारिद अँगन में अर्ध्वङ्ग धुङ्कार  पन्थ- पन्थ पन्थी आहिश्वर रव ओङ्कार मण्डूक ध्वनि नतशिर झमाझम बरखा झमङ्कार  

रणभेरी में रण नहीं

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पङ्क्षी घोंसले से क्यों लौट रही ? आजादी क्या इनकी छीन- सी गई ! या यहाँ कोई दरिन्दों का बसेरा है भूखे - प्यासे है यें कैसे जानें ? जख्म पड़ी चहुँओर प्याले वसन्त दुर्दिन लौट गया उस क्षितिज से  करूणा व्याथाएँ को जगाएँ कौन ? विभूत अरुण नही पन्थ- पन्थ में उन्माद लिए कबसे अचल असीम रणभेरी में रण नहीं आरोहन के बटोरती ऊर्ध्वङ्ग मधुमय भुजङ्ग प्यास भी बिखेरती अकिञ्चन नभ नहीं कहाँ खोजूँ अमरता छू लूँ अविकल  आघोपान्त रहूँ तड़ित झँकोर गगन गुमराही नहीं मानिन्द निकन्दन उपवन से  स्वर - ध्वनि नूपुर के अभिजात नवल  बढ़ चला अलङ्गित पन्थ- पन्थ पतझर भरा मजार में नहीं मञ्जर का पथ पखार  अम्लान - सी अदब करूँ मातृभूमि व्योम की मुकुलित गिरिज पङ्किल से करती नतशीर किञ्चित् कस्तूरी मिलिन्द मैं द्विजिह्व लिए मही  छवि  उर  में  कुसुम  मलयज घन - घन घनप्रिया कैसी करती क्रन्दन ? आँसू बूँद - बूँद करके धोएँ कलित नयन 

लौट चलूँ मैं ?

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मत पूछो कविता के बहाने मुझसे बिखर गया टूट के तकदीर प्याले शक्ति कहाँ मुझमें कसमसाहट भरी उलझनें थी तमाशबीनों के तनी थाती यह करतब कसाव तरि व्यथाएँ की किन्तु यह धरा निहत नही जनमत में तन लौट चलूँ मैं अब निर्झर भार के नहीं यह द्युत कीड़ा भी नहीं पाण्डव के बह चला वों कर्तव्यनिष्ठ के पथिक शङ्खनाद आलिङ्गन के महासमर में मञ्जर प्रतिज्ञा देवव्रत तरङ्गित करती आवाह्न हरिश्चन्द्र शक्ति नही अब घनीभूत किसमें अकिञ्चन अपार द्विज दुर्बोध पला अद्भिज हूँ प्रवात परभृत प्रतीर के रश्मि जग उठी केतन लिए प्राची में क्षितिज से हुँकार कर रही धरा तम में छवि तरणि उद्भव से चल दिया कलित दक्ष किरणें लाँघती विसर्जित पन्थ में क्यों नहीं ऊँघते राग ध्वनित मञ्जु में ? ओट ढ़लकाती निमिष में जागृति विकल सुभट दमखम पावस घनीभूत निवृत्ति मून्द व्याधि अक्षोभ प्रभूत प्रभात के बूँद नीहार पिक दामिनी के नूतन चक्षु अनी अभेद मही वसन निकेत चितवन के

कैसे भूल जाऊँ मैं ?

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कैसे भूल जाऊँ मैं ? आदिवासी की दस्तूरें , प्रकृति जिसके थे सहारे  अंग्रेजों ने जिसे बाँध लिया  खानाबदोश की तन देखो  पसीनो से क्यो भीङ्ग रहें ? वञ्चित रह रहकर जिसने  अपने पेट को भी सिल दिए सङ्कुचित कितने हो रहे यें  क्या  लुप्त के कगारे  है ? कैसे भूल जाऊँ मै .............!!  माताएँ की साधना को देखो  बहनें मुस्तकबिल तन मे खो रहें पन्थी गुलामी की जञ्जीर जकड़े है उनकी व्यथाएँ तड़पन कौन जाने ! घर - भार इनका आग के लपटों में बिखेर‌ रहा बच्चों का चिङ्गार को देखो दरिन्दो  नग्न पड़ी इसकी पुरानी बस्ती  पेटी भरना अभी इनकी बाकी है ! लुटा दो, मिटा दो वों पुरानी सभ्यता  भूखों को सूली पे लटका दो  कैसे भूल जाऊँ मै .............!!    हे भगवन् ! रोक लो अब इस बञ्जर को ज्वलन मेरी असीम मे बह चला जानता हूँ पहाड़ भी मौन पड़ा नदियाँ बोली मैं भी इन्तकाल सूर्य तपन  में  है मेरी कराह कबसे अम्बर गरल बरसा रहें सुनो न ! लौटा दो बहुरि बिरसा को तन्हां कलित कर दे इस भव को स्वच्छन्द हो धरा स्वप्निल में बसा कबसे निर...

रात रानी आयी

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रात रानी आयी पङ्ख पसारे  झिलमिल-झिलमिल कितने है निराले ! हैरान हो चला,  पता नही मुझे...? गुमसुम  में क्यों खो जाते है लोग ? चिडियाँ भी गयी , सूरज भी गया... पेड़ भी सोने क्यों चले गए कबसे ? देखो चन्द्रमा की प्यारी - सी मुस्कान  रह जाते क्यों तुम आमावस्या को अधूरे ? फिर पूर्णिमा को पूरे कहाँ‌ से चले आते हो ! आसमान हो गए जिससे प्याले - प्याले असमञ्जस में मुझे क्यों तुम रखते हो ?  इसका  भी  रहस्य  मुझे  बताओ  न उपर - ऊपर देखो दिखता उद्भाषित तारें यें छोटे- छोटे झिलमिलाते क्यों दिखते है ? इन्हें माता - पिता का डर है या शिक्षकों का घर जाने के लिए यें क्यों रोते सदा ? मै भी रोता, तू भी रोते रहते हो इसलिए चलो आज मै तू दोस्त बन जाते है । ध्रुव तारा के कितने पास सप्तऋषि तारें हैं !   चारों ओर मण्डल सदैव जिसके चक्कर लगाते स्वस्तिक चिन्ह अग्रेषित रहने का सन्देश देती  शान्ति समृद्ध प्रेम का पैगाम पहुँचाती हमें अरुण अगोरती अनजान  प्राची क्षितिज से बढ़ चला उषा सदैव सवेरे पन्थ पखारे          ...

पन्थ

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व्यथाएँ विस्तृत सरोवर में अलङ्गित चान्दनी - सी धार विलीन करती मुझमें रिमझिम - रिमझिम पाहुन वल तड़ित तरि अपार में अभेद्य उऋण कली करिल कान्ति तनी में दीवा विस्मित नीरज नीड़़ में परिहित विभूति विरद सखी मैं सहर के दविज स्वर मैं अनुरक्त से बढ़ चला अनभिज्ञ अस्त चिन्मय चेतन क्षणिक ज्योत्स्ना तरुण द्रुम बहुरि तिमिर जरा झोपड़ी छाँह बन चला निरुद्विग्न मैं पाश में नहीं निस्तब्ध - सी निरापद शबनम स्नेहिल अम्लान रणभेरी छरिया वृत्ति व्याधि वल्कल विटप के विह्वल मजार मेरी विरुदावली इजहार के लहराईं सौंह के अर्सा में आरोहन से चली बयार चिरायँध नहीं विभूति सतदल के कलित गात  व्योम विहार बसुधा जीवन के नतशीर प्राण डारि देहि तम भोर सुरम्य वरित वसन्त उद्यत्त जनमत जर्रा से पृथु पन्थ के जवाँ

कलियाँ

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तृण फरियाद सुने कौन इस आँगन के ? अनिर्वृत्त निगीर्ण स्वच्छन्द नहीं वों क्षिति कुक्षि इतिवृत्त की आहुति दे दो अकिञ्चन महफिल प्रबल अभिभूत अघाना प्रलय पद्चिन्ह दहकता स्वर में  चिरकाल असि म्यान में क्या कदर ?  चातक क्यों है उचकाएँ खड़ा ?  यह ईजाद ओछा अतल उदधि के घनेरी कोहरिल की तृषित घटाएँ मरकज विभा मयस्सर सफर के जनमत लूँ बहुरि दरगुजर के नहीं महरूम दर्प - दीप्त तलघरा दूर आदृत नहीं जो चिर गोचर विषाद यह आतप नहीं विपद असार चनकते कलियाँ को भी देखा मचलते निमिष मग में बह चला तनते पङ्ख सान्त प्रतिक्षण विसर्जन के मृदुल विस्तार में पनघट तड़ित मूलम्मा दरख्यतों के निठूर स्याही थी किरात चक्षु विभूत अकिञ्चन  उँघते  मधुमय  शबीह

पथिक

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बदल क्यों गया ध्वनि कलित का ? घूँट - घूँट क्लान्त व्याल ज्वलन में टूट गया विह्वल वों प्राण से तलवार कौन जाने मरघट के श्रृङ्गार नयन ? बैठ  चला  है  तू   उन्मादों   के मशक्कत कर फिर गोधूलि हो जाता यह आनन को न देख बढ़ चल अग्रसर कल्पना के बाढ़ में बैठ चला हारिल रुक मत घूङ्घट के सार में न विकल एक तिनका भी नहीं विचलित तेरे स्वप्नों के एक चिङ्गार तेरी है और किसी के नहीं मनु चला मनुपुत्र भी अब तेरी है बारी लौट चल फिर उस पथ के पथिक तू ही है रागिनी स्वर के तरङ्गित कर तू प्राची है यह दुनिया स्वप्न के जञ्जीर नहीं चला तू ही सम्राट हो स्वर झङ्कृत के प्याले मौन नहीं सान्ध्य निर्निमेष निगूढ़ में तू प्रकृति के रसगान  तरङ्गित स्वर के युगसञ्चय समिधा ज्वलित पङ्क्ति में अकेला सदा द्रवित चीर नीहार अनुरक्त  दृग स्वप्निल कलित भरा 

मझधार

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चल दिया लौट मैं दरमियान के वक्त के तालिम बढ़ चला असमञ्जस मैं विस्तृत नभचर अमोघ प्याला अवनि चला चिन्मय अश्रु अर्पण सार प्रथम स्तुति कलमा नव्य जागृत  के निर्लिप्त प्राची उषा के दिग्मण्डल उर्ध्वङ्ग आवाह्न सृजन पराग झरा चीरता पङ्खों से असीम चला चिन्मय आतप मेरी सुषुप्त अचिर को अनृत निष्ठुर आकीर्ण आतप अचिर नहीं ध्वज दण्ड का विष दञ्श भरा शलभ क्षणिक प्राण न्यौछावर दामिनी के प्रभा पिराती है मुझे अन्तर्ध्वनि के मलिन रुधिर रक्तरञ्जित कनक हरिण हिलकोर सैलाब उमङ्ग नहीं पथ पखार विधान आवरण रङ्गमञ्च यथार्थ सञ्चित विराग दरिया आलिम मझधार में कम्पित मनचला आहुति स्मृति स्वप्निल धूमिल शहादत ज्वलित पङ्किल भस्मीभूत सुरभित बह्नि तारकित शहादत शौर्य दुकूल तिरोहित कोहरिल उन्मुत्त उन्मुक्त कजा यह गात मेरे कजरारे क्लेश - सी विस्मित काफिर  शव  शब   गुञ्जित  स्वर कराली  अङ्गीकार  मुझे  तप्त  तीरे

पङ्क्ति

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मत रुक बस एक पैगाम दे दे मुझे लौट आ मेरी आँखों के तन्हां मञ्ज़िल का नहीं वों अभी पथिक दस्तूर न जाने कैद क्यों हो चला जग से ? अपने रन्ध्रों कसाव से मुरझा रहा कबसे तमाशा भरी दुनिया में जग से मैं वीरान विवर हो चला अन्तर्ध्वनि भयभीत के व्रज हूँकार कोऊ थाम ले झिलमिल बौछारें टूट पड़ी दुर्मुख तेरी गर्जन मैं विचलित गिरहें उँड़ेल दी मुझे जग निहारी दारिद - सी दुनी असहेहु विप्लव रव गुलशनें जीमूत आलम अंजुमने मय के आबो - ताब आशिक हुस्नो ईश्क में फ़िदा फितरत मदहोश अँधड़ - सी नमित पङ्क्ति कजरारे न्यौछावर नौरस भव गम आँशू कर रहे अदब स्नेह - सुरा मन्दिर में ध्वनित गात मेरी उद्गार उर में उन्माद राग विकल शिथिल तन में विषाद विह्वलता निःशेष  खण्डहर - सी किनारों में पला त्रियामा पन्थ विधु कौमुदी ओझल म्यान - सी शून्य सारगर्भित निराकार उदयाञ्चल में बढ़ चला उऋण सन्सार पन्थ से विचलित कहर दफ्न में समाँ

इन्तकाम - मां २०

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1. इन्तकाम मत  देख उस भुजङ्ग को , गरल  का घड़ा  भरा  है । ह्रदय  की वेदना  समझों , मारुत   की  बवण्डर   है । मत  पूँछ उस लालिमा को , उनकी  ज्योतिमान धरा है । कर  मशक्कत  हो  प्रभा , वों बुलन्दी का आलम्भन है । मत  सुन उस भ्रममूलक को , मिथ्या  का  पुष्ट आबण्डर  है । छल - प्रपञ्च   परवशता  ही , निशाचर   का  कुजात   है । मत  कर उस  अशिष्टता  को , अधर्मपना अभिशप्त साँकल है । अपकृष्ट अनावृष्टि बाँगुर गात ही , घातक अंज़ाम का  द्योतक  है । मत   हन्स  उस  मुफलिस  को , दमन  का  व्यथा  असह्य   है । वक्त  का  आसरा  है   उसे , इन्तकाम का ज्वाला उग्र   है । 2. हड़प्पा सभ्यता सिन्धु नदी का प्रवाह जहाँ हड़प्पा सभ्यता का विकास वहाँ पुरावस्तुओं - साक्ष्यों का अन्वेषण सन्स्कृति सभ्यता का है पदार्पण मध्य रेलवे लाइन तामील दौर बर्टन बन्धुओं इत्तिला आई...