दिवस क्या लौट गई ?



देखा जब समय की पङ्क्ति को
चल चल चलाचल जैसे…
ऊपर – ऊपर , ऊपर होते बढ़ते कदम
सब बँधे है बिछाता इसमें

तरणि क्या वों बटोरती राह ?
यह गो की देखो सार…
साँझ कब का आता , कबसे
तम कब छाती , कब होती प्रभा

समाँ क्या नहीं मिलता किसी को ?
अश्म का पहरा देता कौन हैं ?
अविरत क्या निशा रहती नभ में ?
फिर असित में ही कुञ्चित क्यों है ?

केतन विजय के ले जाता कौन ?
दिवस क्या लौट गई कुतूहल सर से ?
किञ्चित छू अमरता के कहाँ नव !
अचल परख रख ले तू कल

विशिख कौन्धती क्षिति मर्त्य के वन
कस्तूरी मृग कहाँ खोजती स्वयं में ?
समीर उर में ही क्यों कनक द्युति छिपा ?
यह प्रसून नहीं ‌सृष्टा ज्योति के

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