पथिक


बदल क्यों गया ध्वनि कलित का ?
घूँट - घूँट क्लान्त व्याल ज्वलन में
टूट गया विह्वल वों प्राण से तलवार
कौन जाने मरघट के श्रृङ्गार नयन ?

बैठ  चला  है  तू   उन्मादों   के
मशक्कत कर फिर गोधूलि हो जाता
यह आनन को न देख बढ़ चल अग्रसर
कल्पना के बाढ़ में बैठ चला हारिल

रुक मत घूङ्घट के सार में न विकल
एक तिनका भी नहीं विचलित तेरे स्वप्नों के
एक चिङ्गार तेरी है और किसी के नहीं
मनु चला मनुपुत्र भी अब तेरी है बारी

लौट चल फिर उस पथ के पथिक तू ही है
रागिनी स्वर के तरङ्गित कर तू प्राची है
यह दुनिया स्वप्न के जञ्जीर नहीं चला
तू ही सम्राट हो स्वर झङ्कृत के प्याले

मौन नहीं सान्ध्य निर्निमेष निगूढ़ में
तू प्रकृति के रसगान  तरङ्गित स्वर के
युगसञ्चय समिधा ज्वलित पङ्क्ति में अकेला
सदा द्रवित चीर नीहार अनुरक्त 
दृग स्वप्निल कलित भरा 

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