नव्य रङ्ग



कैसे सुनाऊँ मैं अपनी तफ़सीर ?
एकान्त जिन्दनी मेरी न कोई तन्हां
विषाद भरी पीड़ा दर्द कराह रही
सहचर भी कहाँ मंशा नहीं मुझसे

दर – दर भटक रहा वों दलहीज
डगमगा – डगमगा के चलती है राह
कोई दुत्कारता कोई पत्थर मारता
न जाने कोई , क्यों घूँटन मेरी काया ?

अविकल निर्जन उन्मादों में था भरा
अपलक देखता तस्वीर- सी अम्बर
वसन भी फटेहाल जिसका हर कदम प्रहार
काँटे में पग पर लहूलुहान नृशंस भरा

अशनि पात डाल दो या कहर त्रिशूल
क्षत – विक्षत कर दो जीर्ण रूद्ध अधीर
रूद्र उग्र प्रचण्ड में नृत्य करें नग पे
निर्मल उज्ज्वलित नव्य रङ्ग भर दे ईश्वर

निर्बन्ध स्वच्छन्द उद्दाम लौटा दो कलित
सलिल राग को काह निहारी ओहू
जागहु दीना समर जतन पहिं हर्षित
रनधीर मानहुँ पै दिए दमक गुलशन

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