जंजीर कविता

जंजीर में मुझे मत बांधो मैं उड़ने वाला परिंदा हूं दबाव तले बोझ बने हम घुट - घुट कर जी रहे हम तप रहे मोहमाया जाल से बच - बचकर जी रहे हम मुझे बेचैनी है, इस जीवन में कोई साथ नहीं, सहारा नहीं एक भी नींद सो लूं चैन का तन - मन - धन, व्यथा रहित सारा जगत क्षणभंगुर है भूल जाऊं सदा इस जीवन को कब आए वों रैन बसेरा जन्म - जन्म तक नाता न तोड़ू उड़ जाऊं मैं उन हवाओं में नई हौसले से नए उड़ान भर दूं परिंदा की तरह स्वच्छंद हो जाऊं जहां मिले सदा तरुवर की छाया छूम लूं उन तमाम बुलंदियों को संघर्षरत दुनिया का रसपान करुं