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जंजीर कविता

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जंजीर  में  मुझे  मत  बांधो मैं  उड़ने  वाला  परिंदा  हूं  दबाव  तले बोझ  बने  हम घुट - घुट कर जी  रहे  हम  तप  रहे  मोहमाया जाल से बच - बचकर  जी  रहे  हम मुझे बेचैनी है, इस जीवन में कोई साथ नहीं, सहारा नहीं एक भी नींद सो लूं चैन का तन - मन - धन, व्यथा रहित सारा  जगत  क्षणभंगुर  है भूल जाऊं सदा इस जीवन को कब  आए   वों  रैन  बसेरा जन्म - जन्म तक नाता न तोड़ू उड़  जाऊं  मैं  उन  हवाओं  में नई  हौसले से नए उड़ान भर दूं परिंदा की तरह स्वच्छंद हो जाऊं जहां मिले सदा तरुवर की छाया छूम लूं उन  तमाम बुलंदियों  को संघर्षरत दुनिया का रसपान करुं

वों नवोदय का जन्नत

वों महीनों का साल था‌ मेरे लिए बहुत ही कमाल था था  सात साल का सफर सच में बहुत सुहाना था  तभी तो मैं उसकी दीवानी थी । छः सितंबर का वह दिन दाखिला हुए  थे उस दिन घरवाले भी काफी खुश थे  और खुश  थे  सारा  जहां हम फूले नहीं समा रहे थे  सीढ़ी थी  पहली  कामयाबी की । उस नवोदय विद्यालय को कैसे भूल सकती हूं... ! न जाने क्यों..... ? आज भी याद आ जाती है चेहरे पर खुशी आ जाती है । वों शिक्षक भी बेशुमार थे महाज्ञानी  के  अनुकृति थे और था  साथ  उनका प्यार वों  दोस्तों का भी भरोसा था और था छात्रावास की मस्तियां अपनापन का भी एहसास था । सपनों  जैसी  थी  यादगारी थी यह विद्यालय नहीं,   जन्नत  है मैं खुदा से यहीं मांगती हूं मन्नत यहां गरीबों का ही पदार्पण हो  जहां नवोदय का ही यशोगान हो ।

कलम कविता

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अब कलम टूट पड़ेगी ,  अन्यायों  के  खिलाफ । भ्रष्टाचार  के उपद्रव  से , अब  चुप  नहीं  बैठेंगे । धर्म - अधर्म के मतभेद नहीं , अत्याचारों  का  आतंक  है । पिता-पुत्र में अंतरभेद नहीं , जहां जाए कलयुगी विनाश है। हम कर्तव्यपरायणता भूल रहे , भूल रहे महाकाव्यों का सार । घूसखोरी की अतिभय  से , दीन - हीन तड़प रहे हैं ।   क्या है ? , क्या होगा जमाना ? ईश्वर  भी  आश्चर्य  है । सत्य - झूठ के अंतरभेद नहीं , पैसों के बल से बिक जाते हैं । दोषी, निर्दोषी बन जाते हैं ,  फंस जाते हैं निस्सहाय । न्याय - अन्याय दिखावा है , सत्यमेव जयते है मिथ्या ।

सिर्फ तुम कविता

सजे परे जो सपने इन आंखों में उनकी मंजिल बस तुम्हारे दीदार का है  जीने में रह गई जो कमी उसे  भरने का हक भी तुम्हारे प्यार का है  आजकल लगा आंखों पर पहरा भी  तुम्हारी निगाहों का है  कहीं दूर से आती आवाजों में गूंज, भी तुम्हारे अल्फाज का है  रातों की उड़ी नींद का कसूर भी    तुम्हारे ख्वाब का है  इस दिल को इंतजार बस  तुम्हारे इकरार का है ,⚘  इस अधूरे सफर में जरूरत अब  तुम्हारे साथ का है।  :-पलक श्रेया

एकांत कविता

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एकांत जीवन का आधार है आनंदमय व चरमोत्कर्षक अनुरक्त हो अंतःकरण में आत्मविस्मृत   बेसुध-सा अंतर्मुखी वृत्तियां अनुरूपण जग - संसार स्वच्छंद हो चांदनी रात के सितारे मनोरम शून्यता - अशब्दता अपार हो मंद - मंद बहती पवनें छंद - छंद हिलते पल्लव सागर की कलकल करती नीर अनुपम रहा पर्वत हिमालय तत्वों  के  केंद्र  बिंदुओं ‌ से रवि  का   है   ऊर्जा  निदाग   शून्य - शांत जीवन सरोवर में अंतर्धान हो जा आत्म गात में प्रकृति  की  कृती कृति  है ईश्वरप्रदत  का रत रति  है जन्म - मरण के यथार्थ से सर्वदा सदाव्रत रहता एकांत **वरुण सिंह गौतम

रामधारी सिंह दिनकर कविताएं संग्रह

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Ramdhari Singh Dinkar रामधारी सिंह दिनकर हिन्दी कविता सामग्री 1  1. प्रार्थना / रामधारी सिंह 'दिनकर' 2  2. एकान्त / रामधारी सिंह 'दिनकर' 3  3. अकेलेपन का आनन्द / रामधारी सिंह 'दिनकर' 4  4. उखड़े हुए लोग / रामधारी सिंह 'दिनकर' 5  5. देवता हैं नहीं / रामधारी सिंह 'दिनकर' 6  6. महल-अटारी / रामधारी सिंह 'दिनकर' 7  7. शैतान का पतन / रामधारी सिंह 'दिनकर' 8  8. ईश्वर की देह / रामधारी सिंह 'दिनकर' 9  9. निराकार ईश्वर / रामधारी सिंह 'दिनकर' 10  Renuka Ramdhari Singh Dinkarरेणुका रामधारी सिंह 'दिनकर' 10.1  मंगल-आह्वान/रामधारी सिंह 'दिनकर' 10.2   तांडव/रामधारी सिंह 'दिनकर' 10.3   हिमालय/रामधारी सिंह 'दिनकर' 10.4  प्रेम का सौदा/रामधारी सिंह 'दिनकर' 10.5   कविता की पुकार/रामधारी सिंह 'दिनकर' 10.6   बोधिसत्त्व/रामधारी सिंह 'दिनकर' 10.7  मिथिला/रामधारी सिंह 'दिनकर' 10.8  पाटलिपुत्र की गंगा से/रामधारी सिंह 'दिनकर' 10.9  कस्मै देवाय ?/रामधारी सिंह 'दिनकर...