वों नवोदय का जन्नत
वों महीनों का साल था
मेरे लिए बहुत ही कमाल था
था सात साल का सफर
सच में बहुत सुहाना था
तभी तो मैं उसकी दीवानी थी ।
छः सितंबर का वह दिन
दाखिला हुए थे उस दिन
घरवाले भी काफी खुश थे
और खुश थे सारा जहां
हम फूले नहीं समा रहे थे
सीढ़ी थी पहली कामयाबी की ।
उस नवोदय विद्यालय को
कैसे भूल सकती हूं... !
न जाने क्यों..... ?
आज भी याद आ जाती है
चेहरे पर खुशी आ जाती है ।
वों शिक्षक भी बेशुमार थे
महाज्ञानी के अनुकृति थे
और था साथ उनका प्यार
वों दोस्तों का भी भरोसा था
और था छात्रावास की मस्तियां
अपनापन का भी एहसास था ।
सपनों जैसी थी यादगारी थी
यह विद्यालय नहीं, जन्नत है
मैं खुदा से यहीं मांगती हूं मन्नत
यहां गरीबों का ही पदार्पण हो
जहां नवोदय का ही यशोगान हो ।
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