ऐ नगेश हिमालय !
ऐ नगेश ! रक्षावाहिनी !
ऐश्ववर्य - खूबसूरती महान !
प्रातः कालीन का सौंदर्य तुंग,
रत्नगर्भा मानदंड हो !
मार्तण्ड नीड़ - पतंग में तान रहा,
पुरुषत्व समवेत महीधर हो ।
जम्बू द्वीपे के हिम उष्णीष,
सिंधु - पंचनंद - ब्रह्मपुत्र के चैतन्य।
तू ही ब्रह्मास्त्र - गांडीव हो,
रत्न - औषधि - रुक्ष का वालिदा,
हिमाच्छादित, वृक्षाच्छादित हो।
युग - युगांतर तेरी महिमा,
गौरव - दिव्य - अपार।
टेथिस सागर प्रणयन है,
जहां ऋषि-मुनियों का विहार।
जीवन की अंकुरित काया,
सर्वशक्तिमान नभ धरा हो।
प्रियदर्शी - पारलौकिक - अजेय,
सांस्कृतिक - आर्थिक अविनाशी हो।
सुखनग - अभेध - जिगीषा,
शाश्वत ही पथ प्रदर्शक हो।
कैसी अखंड तेरी करुणा काया ?
तड़प रहा विश्वपटल का राज।
सदा पंचतत्व में समा रहा,
कोरोना के रुग्णता का हाहाकार।
मुफलिस कुटुंब नेस्तनाबूद हुए,
मरघट हो रहा कृतांत का समागम।
क्यों मौन है ऐ विश्व धरा ?
ले अंगड़ाई, हिल उठ धरा।
कर नवयुग शंखनाद का हुंकार,
सिंहनाद से करें व्याधि विकार।
**वरुण सिंह गौतम
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